30 अगस्त 2010

अपने अंदर है दुश्मनों का डेरा।

मिथ्या कहलाता है जग इसी से,
क्योंकि जग में भ्रमणाओं का घेरा।
क्या ढ़ूंढे हम दुश्मन जगत में,
अपने अंदर है दुश्मनों का डेरा।


कोई अपमान कैसे करेगा,
हमको अपने अभिमान ने मारा।
लोग ठग ही न पाते कभी भी,
हमको अपने ही लोभ ने मारा।


क्रोध अपना लगाता है अग्नि,
दावानल सा लगे जग सारा।
लगे षडयंत्र रचती सी दुनियां,
खुद की माया नें जाल रचाया।


मेरा दमन क्या दुनिया करेगी,
मुझको अपने ही मोह ने बांधा।
रिश्ते बनते है पल में पराए,
मैने अपना स्वार्थ जब साधा।


दर्द आते है मुझ तक कहां से,
खुद ही ओढा भावों का लबादा।
इच्छा रहती सदा ही अधूरी,
पाना चाहा देने से भी ज्यादा।


खुद का स्वामी मुझे था बनना,
मैने बाहर ही ढूंढा खेवैया।
स्व कषायों ने नैया डूबो दी,
जब काफ़ी निकट था किनारा।


मिथ्या कहलाता है जग इसी से,
क्योंकि जग में भ्रमणाओं का घेरा।
क्या ढ़ूंढे हम दुश्मन जगत में,
अपने अंदर है दुश्मनों का डेरा।

26 अगस्त 2010

क्रूरता आकर करूणा के, पाठ पढा रही है


सौ सौ चुहे खा के बिल्ली, हज़ को जा रही है।
क्रूरता आकर करूणा के, पाठ पढा रही है॥

गुड की ढेली पाकर चुहा, बन बैठा पंसारी।
पंसारिन नमक पे गुड का, पानी चढा रही है॥

कपि के हाथ लगा है अबतो, शांत पडा वो पत्थर।
शांति भी विचलित अपना, कोप बढा रही है

 
हिंसा ने ओढा है जब से, शांति का चोला।
अहिंसा मन ही मन अबतो, बडबडा रही है॥

सियारिन जान गई जब करूणा की कीमत।
मासूम हिरनी पर हिंसक आरोप चढा रही है॥

सौ सौ चुहे खा के बिल्ली, हज़ को जा रही है।
क्रूरता आकर करूणा के, पाठ पढा रही है॥

23 अगस्त 2010

मांसाहार प्रचार का भ्रमज़ाल (सार्थक विकल्प निरामिष)

सलीम खान ने कभी अपने ब्लॉग पर यह '14 बिन्दु' मांसाहार के पक्ष में प्रस्तुत किये थे। असल में यह सभी कुतर्क ज़ाकिर नाईक के है, जो यहां वहां प्रचार माध्यमों से फैलाए जाते है। वैसे तो इन फालतू कुतर्को पर प्रतिक्रिया टाली भी जा सकती थी, किन्तु  इन्टरनेट जानकारियों का स्थायी स्रोत है यहाँ ऐसे भ्रामक कुतर्क अगर अपना भ्रमजाल फैला कर स्थायी रहेंगे तो लोगों में संशय और भ्रम यथावत बना रहेगा। ये कुतर्क यदि निरूत्तर रहे तो भ्रम, सच की तरह रूढ़ हो जाएंगे, इसलिए  इन कुतर्कों का यथार्थ और तथ्ययुक्त खण्ड़न  जालस्थानों पर उपलब्ध होना नितांत ही आवश्यक है।

मांसाहार पर यह प्रत्युत्तर-खण्ड़न, धर्मिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि अहिंसा और करूणा के दृष्टिकोण से प्रस्तुत किए जा रहे है। मांसाहार को भले ही कोई अपने धर्म का पर्याय या प्रतीक मानते हो, जीव-हत्या किसी भी धर्म का उपदेश या सिद्धांत नहीं हो सकता। इसलिए इस को खण्ड़न अगर निंदा भी माना जाता है तो स्पष्ट रूप से यह हिंसा, क्रूरता और निर्दयता की निंदा है। प्रायोजित गोश्तखोरी की हिंसा प्रेरणा सर्वत्र निंदनीय ही होनी चाहिए, क्योंकि इस विकार से बनती हिंसक मनोवृति समाज के शान्त व संतुष्ट जीवन ध्येय में प्रमुख बाधक है।

निश्चित ही शारीरिक उर्जा पूर्ति के लिए भोजन करना आवश्यक है। किन्तु सृष्टि का सबसे बुद्धिमान प्राणी होने के नाते, मानव इस जगत का मुखिया है। अतः प्रत्येक जीवन के प्रति, उत्तरदायित्व पूर्वक सोचना भी मानव का कर्तव्य है। सृष्टि के सभी प्राणभूत के अस्तित्व और संरक्षण के लिए सजग रहना, मानव की जिम्मेदारी है। ऐसे में आहार से उर्जा पूर्ति का निर्वाह करते हुए भी, उसका भोजन कुछ ऐसा हो कि आहार-इच्छा से लेकर, आहार-ग्रहण करने तक वह संयम और मितव्ययता से काम ले। उसका यह ध्येय होना चाहिए कि सृष्टि की जीवराशी  कम से कम खर्च हो। साथ ही उसकी भावनाएँ सम्वेदनाएँ सुरक्षित रहे, मनोवृत्तियाँ उत्कृष्ट बनी रहे। प्रकृति-पर्यावरण और स्वभाव के प्रति ऐसी निष्ठा, वस्तुतः उसे मिली अतिरिक्त बुद्धि के बदले, कृतज्ञता ज्ञापन  है। अस्तित्व रक्षा के लिए भी अहिंसक जीवन-मूल्यों को पुनः स्थापित करना मानव का कर्तव्य है। सभ्यता और विकास को आधार प्रदान के लिए सौम्य, सात्विक और सुसंस्कृत भोजन शैली का प्रसार नितांत आवश्यक है।

सलीम खान के मांसाहार भ्रमजाल का खण्ड़न।

1 - दुनिया में कोई भी मुख्य धर्म ऐसा नहीं हैं जिसमें सामान्य रूप से मांसाहार पर पाबन्दी लगाई हो या हराम (prohibited) करार दिया हो.

खण्ड़न- इस तर्क से मांसाहार ग्रहणीय नहीं हो जाता। यदि मांसाहर लेने का यही मूढ़ता भरा कारण है तो  ऐसा भी कोई प्रधान धर्म नहीं, जिस ने शाकाहार पर प्रतिबंध लगाया हो। प्रतिबंध तो मूढ़ बुद्धि के लिए होते है, विवेकवान के लिए संकेत ही पर्याप्त होते है। धर्म केवल हिंसा न करने का उपदेश करते है एवं हिंसा प्रेरक कृत्यों से दूर रहने की सजग करते है। आगे मानव के विवेकाधीन है कि आहार व रोजमर्रा के वे कौन से कार्य है जिसमें हिंसा की सम्भावनाएं अधिक है और उसका सारा प्रयास हिंसा से विरत रहकर बचने का होना चाहिए। सभी धर्मों में, अहिंसा के उद्देश्य से ही, प्रकट व अप्रकट रूप से, सभी जीवों के प्रति दया, करूणा, रहम और सहिष्णुता आदि को उपदेशित किया गया है। पाबन्दीयां तो कपट और माया का सहारा लेकर बचने के रास्ते निकालने वालों के लिए होती है। विवेकवान के लिए तो दया, करूणा, रहम, सदाचार, ईमान में अहिंसा और जीवदया ही गर्भित है।

2 - क्या आप भोजन मुहैया करा सकते थे वहाँ जहाँ एस्किमोज़ रहते हैं (आर्कटिक में) और आजकल अगर आप ऐसा करेंगे भी तो क्या यह खर्चीला नहीं होगा?

खण्ड़न- अगर एस्किमोज़ मांसाहार के बिना नहीं रह सकते तो क्या आप भी शाकाहार उपलब्ध होते हुए एस्किमोज़ का बहाना आगे कर मांसाहार चलाए रखेंगे? खूब!! एस्किमोज़ तो वस्त्र के स्थान पर चमड़ा पहते है, आप क्यों नही सदैव उनका वेश धारण किए रहते? अल्लाह नें आर्कटिक में मनुष्य पैदा ही नहीं किये थे,जो उनके लिये वहां पेड-पौधे भी पैदा करते, लोग पलायन कर पहुँच जाय तो क्या किया जा सकता है। ईश्वर नें बंजर रेगीस्तान में भी इन्सान पैदा नहीं किए थे, फ़िर भी सत्ता भूखा स्वार्थी मनुष्य वहाँ भी पहुँच ही गया। यह तो कोई बात नहीं हुई कि  दुर्गम क्षेत्र में रहने वालों को शाकाहार उपलब्ध नहीं, इसलिए सभी को उन्ही की आहार शैली अपना लेनी चाहिए। आपका यह एस्किमोज़ की आहारवृत्ति का बहाना निर्थक है। जिन देशों में शाकाहार उपलब्ध न था, वहां मांसाहार क्षेत्र वातावरण की अपेक्षा से विवशता हो सकता है और इसीलिए ही उसी वातावरण के संदेशकों-उपदेशकों नें मांसाहार पर उपेक्षा का रूख अपनाया और निषेध नहीं किया। यदि शाक उपलब्ध होता तो, सभ्य व सुधरे लोगों की पहली पसंद शाकाहार ही होता है। बुद्धिमता यही है कि जहां सात्विक पौष्ठिक शाकाहार प्रचूरता से उपलब्ध है वहां जीवों को मौत के घाट उतार कर उदरपूर्ति नहीं करनी चाहिए। सजीव और निर्जीव एक गहन विषय है। जीवन वनस्पतियों आदि में भी है, लेकिन प्राण बचाने को संघर्षरत पशुओं को मात्र स्वाद के लिये मार खाना तो क्रूरता की पराकाष्ठा है। आप लोग दबी जुबां से कहते भी हो कि "मुसलमान, शाकाहारी होकर भी एक अच्छा मुसलमान हो सकता है" इस सच्चाई के उपरांत मांसाहार की ज़िद्द मूर्खता है। आखिर एक 'अच्छा मुसलमान' बनने से इतना परहेज ही क्यों ?

3 - अगर सभी जीव/जीवन पवित्र है पाक है तो पौधों को क्यूँ मारा जाता है जबकि उनमें भी जीवन होता है.
4 - अगर सभी जीव/जीवन पवित्र है पाक है तो पौधों को क्यूँ मारा जाता है जबकि उनको भी दर्द होता है.
5 - अगर मैं यह मान भी लूं कि उनमें जानवरों के मुक़ाबले कुछ इन्द्रियां कम होती है या दो इन्द्रियां कम होती हैं इसलिए उनको मारना और खाना जानवरों के मुक़ाबले छोटा अपराध है| मेरे हिसाब से यह तर्कहीन है.

खण्ड़न- इस विषय पर जानने के लिए शाकाहार मांसाहार की हिंसा के सुक्ष्म अन्तर  को समझना होगा। साथ ही हिंसा में विवेक  करना होगा। स्पष्ट हो जाएगा कि जीवहिंसा प्रत्येक कर्म में है, किन्तु हम विवेकशील है,  हमारा कर्तव्य बनता है, हम वह रास्ता चुनें जिसमे जीव हिंसा कम से कम हो। किन्तु आपके तर्क की सच्चाई यह है कि वनस्पति हो या पशु-पक्षी, उनमें जान साबित करके भी आपको किसी की जान बचानी नहीं है। आपका कुतर्क वनस्पति जीवन पर करूणा के उद्देश्य से नहीं, हिंसा अहिंसा आपके लिए अर्थहीन है, आपको तो मात्र सभी में 'जीव' साबित करने के बाद भी वक्रता के साथ, बडे से बडे प्राणी और बडी से बडी हिंसा का ही चुनाव करना है।

"एक यह भी कुतर्क दिया जाता है कि शाकाहारी सब्जीयों को पैदा करनें के लिये आठ दस प्रकार के जंतु व कीटों को मारा जाता है।"

खण्ड़न- इन्ही की तरह कुतर्क करने को दिल चाहता है………
भाई, इतनी ही अगर सभी जीवों पर करूणा आ रही है,और जब दोनो ही आहार हिंसाजनक है तो दोनो को छोड क्यों नहीं देते?  दोनो नहीं तो पूरी तरह से किसी एक की तो कुर्बानी(त्याग) करो…॥ कौन सा करोगे????


"ऐसा कोनसा आहार है,जिसमें हिंसा नहीं होती।"

खण्ड़न- यह कुतर्क ठीक ऐसा है कि 'वो कौनसा देश है जहां मानव हत्याएं नहीं होती?' इसलिए मानव हत्याओं को जायज मान लिया जाय? उसे सहज ही स्वीकार कर लिया जाय? और उसे बुरा भी न कहा जाय? आपका आशय यह है कि, जब सभी में जीवन हैं, और सभी जीवों का प्राणांत, हिंसादोष है तो सबसे उच्च्तम, क्रूर, घिघौना बडे जीव की हत्या का दुष्कर्म ही क्यों न अपनाया जाय? यह तो समझ का सरासर दिवालियापन है!!

तर्क से तो बिना जान निकले पशु शरीर भी मांस में परिणित नहीं हो सकता। तार्किक तो यह भी है कि किसी भी तरह का मांस हो, अंततः मुर्दे का ही मांस होगा। उपर से तुर्रा यह है कि हलाल तरीके से काटो तो वह मुर्दा नहीं । मांस के लिये जीव की जब हत्या की जाती है, तो जान निकलते ही मख्खियां करोडों अंडे उस मुर्दे पर दे जाती है, पता नहीं जान निकलनें का एक क्षण में मख्खियों को कैसे आभास हो जाता है। उसी क्षण से वह मांस मख्खियों के लार्वा का भोजन बनता है, जिंदा जीव के मुर्दे में परिवर्तित होते ही लगभग 563 तरह के सुक्ष्म जीव उस मुर्दा मांस में पैदा हो जाते है। और जहां यह तैयार किया जाता है वह जगह व बाज़ार रोगाणुओं के घर होते है, और यह रोगाणु भी जीव ही होते है। यानि एक ताज़ा मांस के टुकडे पर ही हज़ारों मख्खी के अंडे, लाखों सुक्ष्म जीव, और हज़ारों रोगाणु होते है। कहो, किसमें जीव हिंसा ज्यादा है।, मुर्दाखोरी में या अनाज दाल फ़ल तरकारी में?

रही बात इन्द्रिय के आधार पर अपराध की तो जान लीजिए कि हिंसा तो अपराध ही है बस क्रूरता और सम्वेदनाओं के स्तर में अन्तर है। जिस प्रकार किसी कारण से गर्भाधान के समय ही मृत्यु हो जाय, पूरे माह पर मृत्यु हो जाय, जन्म लेकर मृत्यु हो, किशोर अवस्था में मृत्यु हो जवान हो्कर मृत्यु हो या शादी के बाद मृत्यु हो होने वाले दुख की मात्रा व तीव्रता बढ़ती जाती है। कम से अधिकतम दुख महसुस होता है क्योंकि इसका सम्बंध भाव से है। उसी तरह अविकसित से पूर्ण विकसित जीवन की हिंसा पर क्रूर भाव की श्रेणी बढती जाती है। बडे पशु की हिंसा के समय अधिक विकृत व क्रूर भाव चाहिए। सम्वेदना भी अधिक से अधिक कुंद हो जानी चाहिए। आप कम इन्द्रिय पर अधिक करूणा की बात करते है न, क्या विकलेन्द्रिय भाई के अपराध के लिए इन्द्रिय पूर्ण भाई को फांसी दे देना न्यायोचित होगा? यदि दोनो में से किसी एक के जीवन की कामना करनी पडे तो किसके पूर्ण जीवन की कामना करेंगे? विकलेन्द्रिय या पूर्णइन्द्रिय?

6 -इन्सान के पास उस प्रकार के दांत हैं जो शाक के साथ साथ माँस भी खा/चबा सकता है.

7 - और ऐसा पाचन तंत्र जो शाक के साथ साथ माँस भी पचा सके. मैं इस को वैज्ञानिक रूप से सिद्ध भी कर सकता हूँ | मैं इसे सिद्ध कर सकता हूँ.

खण्ड़न- मानते है इन्सान कुछ भी खा/चबा सकता है, किन्तु प्राकृतिक रूप से वह शिकार करने के काबिल हर्गिज नहीं है।  वे दांत शिकार के अनुकूल नहीं है। उसके पास तेज धारदार पंजे भी नहीं है। मानव शरीर संरचना शाकाहार के ही अनुकूल है। मानव प्रकृति से शाकाहारी ही है। खाने चबाने को तो हमने लोगों को कांच चबाते देखा है, जहर और नशीली वस्तुएँ पीते पचाते देखा है। मात्र खाने पचाने का सामर्थ्य हो जाने भर से जहर, कीचड़, कांच मिट्टी आदि उसके प्राकृतिक आहार नहीं हो जाते। ‘खाओ जो पृथ्वी पर है’ का मतलब यह नहीं कि कहीं निषेध का उल्लेख न हो तो धूल, पत्थर, जहर, एसीड आदि भी खा लिया जाय या खाने की संस्तुति की जाय। इसलिए ऐसे किसी बेजा तर्क से मांसहार तर्कसंगत सिद्ध नहीं हो जाता।

8 - आदि मानव मांसाहारी थे इसलिए आप यह नहीं कह सकते कि यह प्रतिबंधित है मनुष्य के लिए | मनुष्य में तो आदि मानव भी आते है ना.

खण्ड़न- हां, देखा तो नहीं, पर सुना अवश्य था कि आदि मानव मांसाहारी थे। पर नवीनतम जानकारी तो यह भी मिली कि प्रगैतिहासिक मानव शाकाहारी था। यदि फिर भी मान लें कि वे मांसाहारी थे तो बताईए शिकार कैसे करते थे? अपने उन दो छोटे भोथरे दांतो से? या कोमल नाखूनो से? मानव तो पहले से ही शाकाहारी रहा है, उसकी मां के दूध के बाद उसकी पहली पहचान फलों - सब्जियों से हुई होगी। जब कभी कहीं, शाकाहार का अभाव रहा होगा तो पहले उसने पत्थर आदि के हथियार बनाए होंगे फिर शिकार किया होगा, पहले उसने अग्नी जलाना सीखा होगा  फ़िर मांसाहार किया होगा। यानि हथियारों और आग्नी के अविष्कार के पहले वह फ़ल फ़ूल पर ही आश्रित था।

लेकिन फिर भी इस कुतर्क की जिद्द है तो, आदि युग में तो आदिमानव नंगे घुमते थे, क्या हम आज उनका अनुकरण करें? वे अगर सभ्यता के लिए अपनी नंगई छोड़ कर परिधान धारक बन सकते है तो हम आदियुगीन जंगली मांसाहार त्याग कर, सभ्ययुगीन संस्कारी शाकाहार क्यों नहीं अपना सकते? हमारे आदि पूर्वज शिकार से निर्दोष आहार की तरफ बढ़े है उन्होने विकार से संस्कार की और विकास साधा है क्या हम उस विकास को उलट कर पुनः पतन गामी बन जाएं?

9 - जो आप खाते हैं उससे आपके स्वभाव पर असर पड़ता है - यह कहना 'मांसाहार आपको आक्रामक बनता है' का कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं है.

खण्ड़न- इसका तात्पर्य ऐसा नहीं कि हिंसक पशुओं के मांस से हिंसक,व शालिन पशुओं के मांस से शालिन बन जाओगे।

इसका तात्पर्य यह है कि जब आप बार बार बड़े पशुओं की अत्यधिक क्रूरता से हिंसा करते है तब ऐसी हिंसा, और हिंसा से उपजे आहार के कारण, हिंसा के प्रति सम्वेदनशीलता खत्म हो जाती है। क्रूर मानसिकता पनपती है और गूढ़ हिंसक मनोवृति बनती है। ऐसी मनोवृति के कारण आवेश आक्रोश द्वेष सामान्य सा हो जाता है। क्रोधावेश में हिंसक कृत्य भी सामान्य होता चला जाता है। इसलिए आवेश आक्रोश की जगह कोमल संवेदनाओं का संरक्षण जरूरी है। जैसे आपने प्राय देखा होगा कि रोज रोज कब्र खोदने वाले के चहरे का भाव पत्थर की तरह सपाट रहता है। क्या वह मरने वाले के प्रति जरा भी संवेदना या सहानुभूति दर्शाता है? वस्तुतः उसके बार बार के इस कृत्य में सलग्न रहने से, मौत के प्रति उसकी सम्वेदनाएँ मर जाती है।

10 - यह तर्क देना कि शाकाहार भोजन आपको शक्तिशाली बनाता है, शांतिप्रिय बनाता है, बुद्धिमान बनाता है आदि मनगढ़ंत बातें है.

खण्ड़न- हाथ कंगन को आरसी क्या?, यदि शाकाहारी होने से कमजोरी आती तो मानव कब का शाकाहार और कृषि-कर्म  छोड चुका होता। कईं संशोधनों से यह बात उभर कर आती रही है कि शाकाहार में शक्ति के लिए जरूरी सभी पोषक पदार्थ है। बाकी शक्ति सामर्थ्य के प्रतीक खेलो के क्षेत्र में अधिकांश खिलाडी शाकाहार अपना रहे है। कटु सत्य तो यह है कि शक्तिशाली, शांतिप्रिय, बुद्धिमान बनाने के गुण मांसाहार में तो बिलकुल भी नहीं है।

11 - शाकाहार भोजन सस्ता होता है, मैं इसको अभी खारिज कर सकता हूँ, हाँ यह हो सकता है कि भारत में यह सस्ता हो. मगर पाश्चात्य देशो में यह बहुत कि खर्चीला है खासकर ताज़ा शाक.

खण्ड़न- भाड में जाय वो बंजर पाश्चात्य देश जो ताज़ा शाक पैदा नहीं कर सकते!! भारत में यह सस्ता और सहज उपलब्ध है तब यहां तो शाकाहार अपना लेना ही बुद्धिमानी है। सस्ते महंगे की सच्चाई तो यह है कि पशु से 1 किलो मांस प्राप्त करने के लिए उन्हें 13 किलो अनाज खिला दिया जाता है, उपर से पशु पालन उद्योग में बर्बाद होती है विशाल भू-सम्पदा, अनियंत्रित पानी के उपयोग का यह दुष्कृत्य  निश्चित ही पृथ्वी पर भार है। मात्र  उपलब्ध उपजाऊ भूमि का भी अन्न उत्पादन के लिए प्रयोग हो तो निश्चित ही अन्न सभी जगह अत्यधिक सस्ता हो जाएगा। बंजर निवासियों को कुछ अतिरिक्त खर्चा करना पडे तब भी उनके लिए सस्ता सौदा होगा।

12 - अगर जानवरों को खाना छोड़ दें तो इनकी संख्या कितनी बढ़ सकती, अंदाजा है इसका आपको.

खण्ड़न- यदि अल्लाह ही जीवन देता हरता है  तो संख्या कम करने का ठेका अल्लाह से आपने ले रखा है?

जो लोग ईश्वरवादी है, वे तो अच्छी तरह से जानते है, संख्या का बेहतर प्रबंधक ईश्वर ही है।

जो लोग प्रकृतिवादी है वे भी जानते है कि प्रकृति के पास जैव सृष्टि के संतुलन का गजब प्लान है।

करोडों साल से जंगली जानवर और आप लोग मिलकर शाकाहारी पशुओं को खाते आ रहे हो, फ़िर भी जिस प्रजाति के जानवरों को खाया जाता है, बिलकुल ही विलुप्त या कम नहीं हुए। उल्टे मांसाहारी पशु अवश्य विलुप्ति की कगार पर है। सच्चाई तो यह है कि जो जानवर खाए जाते है उनका बहुत बडे पैमाने पर उत्पादन होता है। जितनी माँग होगी उत्पादन उसी अनुपात में बढता जाएगा। अगर नही खाया गया तो जानवरों की खेती ही नहीं होगी। मांसाहारियों ने जानवर पैदा करने के उद्योग लगा रखे है।

13 -कहीं भी किसी भी मेडिकल बुक में यह नहीं लिखा है और ना ही एक वाक्य ही जिससे यह निर्देश मिलता हो कि मांसाहार को बंद कर देना चाहिए.

खण्ड़न- मेडिकल बुक किसी धार्मिक ग्रंथ की तरह 'अंतिम सत्य' नहीं है। वह इतनी इमानदार है कि कल को यदि कोई नई शोध प्रकाश में आए तो वह अपनी 'बुक' में इमानदारी से परिवर्तन-परिवर्धन कर देगी। शाकाहार के श्रेष्ठ विकल्प होने पर अभी तक गम्भीर शोध-खोज नहीं हुई है। किन्तु सवाल जब मानव स्वास्थ्य का है तो कभी न कभी यह तथ्य अवश्य उभर कर आएगा कि मांसाहार मनुष्य के स्वास्थ्य के बिलकुल योग्य नहीं है। और फिर माँसाहार त्याग का उपाय सहज हो, अहानिकर हो तो माँसाहार से निवृति का स्वागत होना चाहिए। मेडिकल बुक में भावनाओं और सम्वेदनाओं पर कोई उल्लेख या निर्देश नहीं होता, तो क्या भावनाओं और सम्वेदनाओं की उपयोगिता महत्वहीन हो जाती है? भावों के प्रभाव पर कोई शोध खोज तथ्य या तत्व  मेडिकल बुक में नहीं है, तो क्या मन के भावों पर उपदेश करती उस अन्तिम बुक को भी निरस्त कर देंगे कि मेडिकल बुक में भावों के बारे में कुछ नहीं लिखा?

14 - और ना ही इस दुनिया के किसी भी देश की सरकार ने मांसाहार को सरकारी कानून से प्रतिबंधित किया है.

खण्ड़न- सरकारें क्यों प्रतिबंध लगायेगी? जबकि उसके निति-नियंता भी इसी समाज की देन है, यहीं से मानसिकता और मनोवृतियां प्राप्त करते है। लोगों का आहार नियत करना सरकारों का काम नहीं है।यह तो हमारा फ़र्ज़ है, हम विवेक से उचित अनुचित का भेद करें और उचित को अपनाएं, अनुचित को दूर हटाएं। उदाहरण के लिए झुठ पर सरकारी कानून से प्रतिबंध कहीं भी नहीं लगाया गया है। फिर भी सर्वसम्मति से झूठ को बुरा माना जाता है। किसी प्रतिबंध से नहीं बल्कि नैतिक प्रतिबद्धता से हम झूठ का व्यवहार नहीं करते। कानून सच्च बोलने के लिए मजबूर नहीं कैसे कर पाएगा?  इसीलिए सच पाने के लिए अदालतों को धर्मशास्त्रों शपथ दिलवानी पडती है। ईमान वाला व्यक्ति इमान से ही सच अपनाता है और झूठ न बोलने को अपना नैतिक कर्तव्य मानकर बचता है। उसी तरह अहिंसक आहार को अपना नैतिक कर्तव्य मानकर अपनाना होता है।

हर प्राणी में जीवन जीने की अदम्य इच्छा होती है, यहां तक की कीट व जंतु भी कीटनाशक दवाओं के प्रतिकार की शक्ति उत्पन्न कर लेते है। सुक्ष्म जीवाणु भी कुछ समय बाद रोगप्रतिरोधक दवाओं से प्रतिकार शक्ति पैदा कर लेते है। यह उनके जीनें की अदम्य जिजीविषा का परिणाम होता है। सभी जीना चाहते है मरना कोई नहीं चाहता।

इसलिए, 'ईमान' और 'रहम' की बात करने वाले 'शान्तिपसंद' मानव का यह फ़र्ज़ है कि वह जीए और जीने दे।

21 अगस्त 2010

मै न हिंदु, न इस्लाम, न जैन, न बौध प्रचारक हूं, मै हूं मात्र जीवदया वादी।

लोगो को लगता है कि मैँ शाकाहार के बहाने किसी धर्म का प्रचार कर रहा हूँ किंतु यह सच नही हैमेरे शाकाहार मांसाहार सम्बंधी आलेखो को किसी भी धर्म का अपमान न माना जाय।  यह किसी भी धर्म को हीन बताने के उद्देश्य से नहीं है। फिर भी किसी विचारधारा में दया जैसा कुछ भी नहीं है तो उस धर्म मेँ धर्म जैसा है भी क्या? यदि हिंसक कुरीति, धार्मिक आस्था का चोला पहन कर आती है तो ऐसी कुरीतियो पर आघात करना जागरूकता कहलाता है। मेरा मक़सद अहिंसा है, जीव दया है, इसलिए बात मात्र इतनी सी है कि कईं प्रकार की हिंसाओं से जब मानव बच सकता है,तो उसे क्यों न हिंसा से बचना चाहिए?

हिंसा पाप है और हर व्यक्ति को पाप को पाप स्वीकार करना ही चाहिए, फिर चाहे वह धर्म के नाम पर या धार्मिक आस्थाओँ की ओट में ही क्यो न किया जा रहा हो।  मैं तो यह स्वीकार करता हूं कि मेरे शाकाहार से भी, मेरे गमन-आगमन से, साथ ही जीवन के कई कार्यों से जीवहिंसा होती है. किंतु अपने लिए आवश्यक होने मात्र से कोई पाप कृत्य धर्म नही बन जाता, वह पाप ही माना जाएगा। बस ध्यान विवेक व सावधानी इसी बात पर हो कि हमसे बडी जीवहिंसा न हो जाय। यह कुटिलता नहीं कि अपरिहार्यता के कारण पाप को भी धर्म बताया जाय।
कहते है कि किसी की आस्थाओं और भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए। लेकिन जरा सी सार्थक ठेस से यदि आस्थाएँ कांप उठे तो वे कैसी आस्थाएँ? मै तो कहता हूँ बेशक उन अस्थिर आस्थाओं को ठेस पहुँचाओ यदि वे आस्थाएं कुरीति है। इन ठेसों से ही सम्यक् आस्थाओं को सुदृढ़ होने का औचित्य प्राप्त होता है। बस यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ठेस कुतर्कों से किसी को मात्र बुरा साबित करने के लिए ही न पहुँचाई जाय।

20 अगस्त 2010

ईश्वर ने जानवरों को हमारे भोजन के लिये ही पैदा किया है? (हिंसा अनुमति का यथार्थ)

वैसे तो शाकाहार - मांसाहार का सम्बंध किसी धर्म विशेष से नहीं होता है, क्योंकि धर्म का सम्बंध गहराई से सीधे दया, रहम, करूणा से होता है। लेकिन मांसाहार प्रचारक ही अक्सर इस कहावत को चरितार्थ करते है कि ‘मांस खाए तो ही मुसलमान’। क्योंकि शाकाहार के प्रसार से इन्हे ही गम्भीर आपत्ति होती है। इस्लाम के अनुयायी मांसाहारी आदतों के संरक्षण में जी-जान से जुटे देखे जा सकते है। कहने को तो कह देते है कि 'मांसाहार फर्ज नहीं है, मांसाहार न करके भी एक अच्छा मुसलमान बनकर रहा जा सकता है।' लेकिन तत्काल पलट कर मांसाहार की उपयोगिता और आवश्यक्ता पर कुतर्क करते नजर आते है। अपनी किताबों से माँसाहार की ‘अनुमति’ को कुछ इस प्रकार जताते है जैसे यह ‘आदेश’ ही हो, जबकि यथार्थ तो यह है कि वह ‘अनुमति’ भी नहीं  मात्र आदतों का ‘उल्लेख’ है। प्रस्तुत आलेख उक्त मांसाहार उल्लेख को समझने परखने का विनम्र प्रयास है।

 ईश्वर नें जानवरों को हमारे भोजन आदि के लिये ही पैदा किया है?

अक्सर कुरआन की चार आयतों का हवाला देकर, यह ‘अनुमति’ की बात कही जाती हैं, आइए देखते है उन आयतों के क्या मायने है।

"ऐ लोगों, खाओ जो पृथ्वी पर है लेकिन पवित्र और जायज़ (कुरआन 2:168)

"ऐ ईमान वालों, प्रत्येक कर्तव्य का निर्वाह करो| तुम्हारे लिए चौपाये जानवर जायज़ है, केवल उनको छोड़कर जिनका उल्लेख किया गया है" (कुरआन 5:1)

इन आयतों में 'मांस' शब्द का उल्लेख तक नहीं है। कहा मात्र यह गया है कि "खाओ जो पृथ्वी पर है लेकिन पवित्र और जायज़।" बात अगर ‘पवित्र और जायज़’ की है तो,शाकाहार पवित्र भी है और जायज़ भी। फिर उससे विशेष क्या शुद्ध और योग्य हो सकता है?  यदपि कुछ जानवरों को नाज़ायज़ नहीं कहा गया है. तथापि यह अर्थ लेना हो तो पृथ्वी पर उपलब्ध धूल पत्थर को भी नाज़ायज़ नहीं कहा गया, उसे तो अनुमति केनाम पर आहार नहीं बनाया जाता? बिना नाम लिए कहा गया है अतः पवित्र और जायज़ का विवेक इंसानो को करना है. इस आयत का आशय मात्र यही है।

"रहे पशु, उन्हें भी उसी ने पैदा किया जिसमें तुम्हारे लिए गर्मी का सामान (वस्त्र) भी और अन्य कितने लाभ. उनमें से कुछ को तुम खाते भी हो" (कुरआन 16:5)

"और मवेशियों में भी तुम्हारे लिए ज्ञानवर्धक उदहारण हैं. उनके शरीर के अन्दर हम तुम्हारे पीने के लिए दूध पैदा करते हैं और इसके अलावा उनमें तुम्हारे लिए अनेक लाभ हैं, और जिनका माँस तुम प्रयोग करते हो" (कुरआन 23:21)

इन आयतों में ‘खाना’ व ‘माँस’ शब्द अवश्य है। लेकिन इसे गहनता से विवेक पूर्वक समझने की आवश्यकता है। ऐसी सभी आयतो में एक वाक्य बडा आम मिलता है कि "इसमें तुम्हारे लिए बहुत बडा ईशारा है" इस वाक्य का सीधा सा अर्थ है, 'सार्थक निर्थक पर विवेक से सोचो।' ईशारा यह है कि उचित अनुचित का भेद शब्दों में ही है। यहां अल्लाह, जानवरों को गर्मी के सामान आदि व उपयोग के लिये पैदा करनें की तो जिम्मेदारी लेता है, किन्तु उन्हे खाने की क्रिया बंदे पर छोडता है, यह कहकर कि, "कुछ को 'तुम' खाते भी हो"। अर्थ साफ़ है 'खा सकते हो' नहीं कहा,  'तुम खाते हो' कहा, यही ईशारे भरा वाक्य है, इसे ही विवेक से समझने की दरकार है। अतः यह वाक्य खाने की आदतों का उल्लेख मात्र है, किसी भी प्रकार की आज्ञा या आदेश नहीं है। उस स्थल परिवेश और काल अनुसार आदतें होगी, उन आदतों का बयान मात्र है। यह कोई अनुमति नहीं, फिर यदि अविवेक से अनुमति की बात कही भी जाय तब भी कोई जरूरी नहीं कि प्रदत्त अनुमति का जडवत उपभोग किया ही जाय। यदि पोषण आवश्यकताएं शाकाहार से पूर्ण हो जाती हो तो ईश्वर की अनुकम्पा का दुरुपयोग कृतघ्नता है।

निशानी: ईशारा - 'विवेक के लिए'

और तुम्हारे लिए चौपायों में से एक बड़ी शिक्षा-सामग्री है, जो कुछ उनके पेटों में है उसमें से गोबर और रक्त से मध्य से हम तुम्हे विशुद्ध दूध पिलाते है, जो पीनेवालों के लिए अत्यन्त प्रिय है, (16 : 66) और खजूरों और अंगूरों के फलों से भी, जिससे तुम मादक चीज़ भी तैयार कर लेते हो और अच्छी रोज़ी भी। निश्चय ही इसमें बुद्धि से काम लेनेवाले लोगों के लिए एक बड़ी निशानी है (16 : 67)

और निश्चय ही तुम्हारे लिए चौपायों में भी एक शिक्षा है। उनके पेटों में जो कुछ है उसमें से हम तुम्हें पिलाते है। औऱ तुम्हारे लिए उनमें बहुत-से फ़ायदे है और उन्हें तुम खाते भी हो (23 : 21)

उपरोक्त अलग अलग आयतों में अल्लाह ने अपने अवदान का उल्लेख और उसमें 'शिक्षा और निशानी' की बात रखकर 'अपने कर्म' और 'तुम्हारे कर्म' में भेद कर दिया है। अल्लाह का कर्म "हम तुम्हें पिलाते है।" और तुम्हारा कार्य "उन्हें तुम खाते भी हो"। अल्लाह ईशारा करते है कि जो कर्म तुम कर रहे हो इसमें बड़ी शिक्षा या बड़ी निशानी है, जिसे बुद्धि से काम लेने वालों को स्वविवेक से समझना चाहिए। यहां सोचने वाली बात यह भी है कि यदि आयत 16:67 से ‘तुम’ लगाकर भी शराब का निषेध है तो 23:21 में भी ‘तुम’ लगे होने से अल्लाह द्वारा मांसाहार की अनुमति कैसे हो गई? निशानी का अर्थ यदि विवेक है तो विवेक का प्रयोग दोनो जगह समान रूप से  होना चाहिए।

कुरआन में कईं जगह, रहम के परिपेक्ष्य में आदेश है कि तुम ‘अनावश्यक हत्या’ न करो। चलो भी तो पैर पटकते हुए न चलो, ताकि कोई जीव जन्तु कुचल कर न मर जाय। फिर पर्याप्त शाकाहार रूपी भोजन के उपल्ब्ध रहते भी स्वादेन्द्रीय के वशीभूत, मांसाहार करना ‘अनावश्यक हत्या’ ही है। गैर जरूरी हिंसा ही है। निशानी ईशारा या विवेक यही कहता है यदि हमें विकल्प उपलब्ध हो तो आहार प्रयोजन से जीवहिंसा नहीं करनी चाहिए।

हज इस्लाम में सबसे शीर्ष धार्मिक अनुष्ठान है। जब मुसलिम हज यात्रा पर जाते हैं वे बिना सिले हुए श्वेत वस्त्र के दो टुकड़े परिधान करते हैं, जिसे 'अहराम' कहा जाता है। ये अत्यंत साधारण वस्त्र सादगी और सहिष्णुता का प्रतीक होता है, ये परिधान प्रकट करते है कि यह मनुष्य दुनिया के आडंबर, दंभ और द्वेष से दूर है। इन धार्मिक वस्त्रों में समस्त जी्वों को अभयदान देना होता है। क्योंकि अहराम की दशा में किसी जीव की हत्या करना मना है। न तो मक्खी, न मच्छर और न ही जूं यानी किसी जीव के मारने पर कड़ा प्रतिबंध है। यदि कोई हाजी जमीन पर पड़े हुए किसी कीड़े को देख ले तो अपने अन्य साथी को उससे बचकर चलने की हिदायत करता है। कहीं ऐसा न हो जाए कि उसके पांव के नीचे वह कीड़ा दब जाए।  यदि कोई जीव जंतु उसे अपने कपड़े पर नजर आए तो वह उसे उठाकर जमीन पर तक नही फेंक सकता। जब तक उसके शरीर पर यह अहराम है, जीव को मारना तो दूर वह उसके जीवन में बाधा  भी नहीं पहूंचा सकता। 'अहराम' जीवन की सर्वाधिक पवित्र अवस्था है। तो समग्र जीवन में इस आत्मिक शुद्धता और पवित्रता को आत्मसात करने में क्यों आपत्ति होनी चाहिए। 

दृष्टांत : सद्बुद्धि
: सामर्थ्य का दुरुपयोग

19 अगस्त 2010

मांसाहार करते हुए वनस्पति जीवन पर करूणा क्यों उमड रही है?

मांसाहारी प्रचारको द्वारा शाकाहार पर बडे बचकाना कुतर्क प्रस्तूत किये जाते है। September 6, 2008 में ही श्री अनुराग शर्मा ने चार लेखों की श्रेणी लिखकर बडे ही तर्किक ढंग से प्रत्युत्तर प्रस्तूत किये थे। आपके लिये उस में से अन्तिम लेख यहां प्रस्तूत किया जा रहा है।
शाकाहार - कुछ तर्क कुतर्क

शाकाहार के बारे में अक्सर होने वाली बहस और इन सब तर्कों-कुतर्कों में कितनी सच्चाई है। लोग पेड़ पौधों में जीवन होने की बात को अक्सर शाकाहार के विरोध में तर्क के रूप में प्रयोग करते हैं। मगर वे यह भूल जाते हैं कि भोजन के लिए प्रयोग होने वाले पशु की हत्या निश्चित है जबकि पौधों के साथ ऐसा होना ज़रूरी नहीं है।

मैं अपने टमाटर के पौधे से पिछले दिनों में बीस टमाटर ले चुका हूँ और इसके लिए मैंने उस पौधे की ह्त्या नहीं की है। पौधों से फल और सब्जी लेने की तुलना यदि पशु उपयोग से करने की ज़हमत की जाए तो भी इसे गाय का दूध पीने जैसा समझा जा सकता है। हार्ड कोर मांसाहारियों को भी इतना तो मानना ही पडेगा की गाय को एक बारगी मारकर उसका मांस खाने और रोज़ उसकी सेवा करके दूध पीने के इन दो कृत्यों में ज़मीन आसमान का अन्तर है।

अधिकाँश अनाज के पौधे गेंहूँ आदि अनाज देने से पहले ही मर चुके होते हैं। हाँ साग और कंद-मूल की बात अलग है। और अगर आपको इन कंद मूल की जान लेने का अफ़सोस है तो फ़िर प्याज, लहसुन, शलजम, आलू आदि मत खाइए और हमारे प्राचीन भारतीयों की तरह सात्विक शाकाहार करिए। मगर नहीं - आपके फलाहार को भी मांसाहार जैसा हिंसक बताने वाले प्याज खाना नहीं छोडेंगे क्योंकि उनका तर्क प्राणिमात्र के प्रति करुणा से उत्पन्न नहीं हुआ है। यह तो सिर्फ़ बहस करने के लिए की गयी कागजी खानापूरी है।

मुझे याद आया कि एक बार मेरे एक मित्र मेरे घर पर बोनसाई देखकर काफी व्यथित होकर बोले, "क्या यह पौधों पर अत्याचार नहीं है?" अब मैं क्या कहता? थोड़ी ही देर बाद उन्होंने अपने पेट ख़राब होने का किस्सा बताया और उसका दोष उन बीसिओं झींगों को दे डाला जिन्हें वे सुबह डकार चुके थे - कहाँ गया वह अत्याचार-विरोधी झंडा?

एक और बन्धु दूध में पाये जाने वाले बैक्टीरिया की जान की चिंता में डूबे हुए थे। शायद उनकी मांसाहारी खुराक पूर्णतः बैक्टीरिया-मुक्त ही होती है। दरअसल विनोबा भावे का सिर्फ़ दूध की खुराक लेना मांसाहार से तो लाख गुने हिंसा-रहित है ही, मेरी नज़र में यह किसी भी तरह के साग, कंद-मूल आदि से भी बेहतर है। यहाँ तक कि यह मेरे अपने पौधे से तोडे गए टमाटरों से भी बेहतर है क्योंकि यदि टमाटर के पौधे को किसी भी तरह की पीडा की संभावना को मान भी लिया जाए तो भी दूध में तो वह भी नहीं है। इसलिए अगली बार यदि कोई बहसी आपको पौधों पर अत्याचार का दोषी ठहराए तो आप उसे सिर्फ़ दूध पीने की सलाह दे सकते हैं। बेशक वह संतुलित पोषण न मिलने का बहाना करेगा तो उसे याद दिला दें कि विनोबा दूध के दो गिलास प्रतिदिन लेकर ३०० मील की पदयात्रा कर सकते थे, यह संतुलित और पौष्टिक आहार वाला कितने मील चलने को तैयार है?

आईये सुनते हैं शिरिमान डॉक्टर नायक जी की बहस को - अरे भैया, अगर दिमाग की भैंस को थोडा ढील देंगे तो थोड़ा आगे जाने पर जान पायेंगे कि अगर प्रभु ने अन्टार्कटिका में घास पैदा नहीं की तो वहाँ इंसान भी पैदा नहीं किया था। आपके ख़ुद के तर्क से ही पता लग जाता है कि प्रभु की मंशा क्या थी। फ़िर भी अगर आपको जुबां का चटखारा किसी की जान से ज़्यादा प्यारा है तो कम से कम उसे धर्म का बहाना तो न दें। पशु-बलि की प्रथा पर कवि ह्रदय का कौतूहल देखिये :


अजब रस्म देखी दिन ईदे-कुर्बां

ज़बह करे जो लूटे सवाब उल्टा

धर्म के नाम पर हिंसाचार को सही ठहराने वालों को एक बार इस्लामिक कंसर्न की वेबसाइट ज़रूर देखनी चाहिए। इसी प्रकार की एक दूसरी वेबसाइट है जीसस-वेज। हमारे दूर के नज़दीकी रिश्तेदार हमसे कई बार पूछ चुके हैं कि "किस हिंदू ग्रन्थ में मांसाहार की मनाही है?" हमने उनसे यह नहीं पूछा कि किस ग्रन्थ में इसकी इजाजत है लेकिन फ़िर भी अपने कुछ अवलोकन तो आपके सामने रखना ही चाहूंगा।

योग के आठ अंग हैं। पहले अंग यम् में पाँच तत्त्व हैं जिनमें से पहला ही "अहिंसा" है। मतलब यह कि योग की आठ मंजिलों में से पहली मंजिल की पहली सीढ़ी ही अहिंसा है। जीभ के स्वाद के लिए ह्त्या करने वाले क्या अहिंसा जैसे उत्कृष्ट विषय को समझ सकते हैं? श्रीमदभगवदगीता जैसे युद्धभूमि में गाये गए ग्रन्थ में भी श्रीकृष्ण भोजन के लिए हर जगह अन्न शब्द का प्रयोग करते हैं।

अंडे के बिना मिठाई की कल्पना न कर सकने वाले केक-भक्षियों के ध्यान में यह लाना ज़रूरी है कि भारतीय संस्कृति में मिठाई का नाम ही मिष्ठान्न = मीठा अन्न है। पंचामृत, फलाहार, आदि सारे विचार अहिंसक, सात्विक भोजन की और इशारा करते हैं। हिंदू मंदिरों की बात छोड़ भी दें तो गुरुद्वारों में मिलने वाला भोजन भी परम्परा के अनुसार शाकाहारी ही होता है। संस्कृत ग्रन्थ हर प्राणी मैं जीवन और हर जीवन में प्रभु का अंश देखने की बात करते हैं। ग्रंथों में औषधि के उद्देश्य से उखाड़े जाने वाले पौधे तक से पहले क्षमा प्रार्थना और फ़िर झटके से उखाड़ने का अनुरोध है। वे लोग पशु-हत्या को जायज़ कैसे ठहरा सकते हैं?

अब रही बात प्रकृति में पायी जाने वाली हिंसा की। मेरे बचपन में मैंने घर में पले कुत्ते भी देखे थे और तोते भी। दोनों ही शुद्ध शाकाहारी थे। प्रकृति में अनेकों पशु-पक्षी प्राकृतिक रूप से ही शाकाहारी हैं। जो नहीं भी हैं वे भी हैं तो पशु ही। उनका हर काम पाशविक ही होता है। वे मांस खाते ज़रूर हैं मगर उसके लिए कोई भी अप्राकृतिक कार्य नहीं करते हैं। वे मांस के लिए पशु-व्यापार नहीं करते, न ही मांस को कारखानों में काटकर पैक या निर्यात करते हैं। वे उसे लोहे के चाकू से नहीं काटते और न ही रसोई में पकाते हैं। वे उसमें मसाले भी नहीं मिलाते और बचने पर फ्रिज में भी नहीं रखते हैं। अगर हम मनुष्य इतने सारे अप्राकृतिक काम कर सकते हैं तो शाकाहार क्यों नहीं? शाकाहार को अगर आप अप्राकृतिक भी कहें तो भी मैं उसे मानवी तो कहूंगा ही।

अगर आप अपने शाकाहार के स्तर से असंतुष्ट हैं और उसे पौधे पर अत्याचार करने वाला मानते हैं तो उसे बेहतर बनाने के हजारों तरीके हैं आपके पास। मसलन, मरे हुए पौधों का अनाज एक पसंद हो सकती है। और आगे जाना चाहते हैं तो दूध पियें और सिर्फ़ पेड़ से टपके हुए फल खाएं और उसमें भी गुठली को वापस धरा में लौटा दें। नहीं कर सकते हैं तो कोई बात नहीं - शाकाहारी रहकर आपने जितनी जानें बख्शी हैं वह भी कोई छोटी बात नहीं है। दया और करुणा का एक दृष्टिकोण होता है जिसमें जीव-हत्या करने या उसे सहयोग करने का कोई स्थान नहीं है।
                                                                                                                                          -अनुराग शर्मा
दृष्टव्य : सुज्ञ: क्रूरता आकर करूणा के, पाठ पढा रही है

15 अगस्त 2010

बुढापा, कोई लेवे तो थने बेच दूं॥

(यह राजस्थानी गीत, “मोरिया आछो बोळ्यो रे……” लय पर आधारित है।)

बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं।
थांरी कौडी नहिं लेवुं रे छदाम, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं ॥

बुढापा पहली तो उंचै महलां बैठतां, बुढापा पहली तो उंचै महलां बैठतां। बैठतां, बैठतां
अबै तो डेरा थांरा पोळियाँ रे मांय, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

बुढापा पहली तो हिंगळू ढोळिए पोढतां, बुढापा पहली तो हिंगळू ढोळिए पोढतां। पोढतां, पोढतां,
अबै तो फ़ाटो राळो ने टूटी खाट, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

बुढापा पहली तो भरिया चौटे बैठतां, बुढापा पहली तो भरिया चौटे बैठता। बैठतां, बैठतां
अबै तो देहली भी डांगी नहिं जाय, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

बुढापा पहली तो षटरस भोजन ज़ीमतां, बुढापा पहली तो षटरस भोजन ज़ीमतां। ज़ीमतां, ज़ीमतां
अबै तो लूखा टूकडा ने खाटी छास, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

बुढापा पहली तो घर का हंस हंस बोलतां, बुढापा पहली तो घर का हंस हंस बोलतां। बोलतां, बोलतां
अबै तो रोयां भी पूछे नहिं सार, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

बुढापा पहली तो धर्म ध्यान ना कियो, बुढापा पहली तो धर्म ध्यान ना कियो। ना कियो, ना कियो
अबै तो होवै है गहरो पश्च्याताप, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

रचना शब्दकार -अज्ञात

14 अगस्त 2010

बस लूट हुई स्वाधीन

कहते थे देश लूटे फ़िरंगी,
दर्द से युवा बने थे ज़ंगी।
उन वीरों की औलादों का,
जीना हुआ मुहाल।
लूट का यह लोकतंत्र है,
पावे सो निहाल॥

जाति से पिछडे थे शोषित,
अगडे रहे है शोषक घोषित।
अब शोषक शोषित एक हुए है,
देश हुआ बदहाल।
लूट का यह लोकतंत्र है,
पावे सो निहाल॥

जब गरीब पसीना बहाते,
राजा राजस्व से महल बनाते।
नेताओं ने अब खून पीकर,
साम्राज्य किये बहाल।
लूट का यह लोकतंत्र है,
पावे सो निहाल॥

जब महाजन खूब कमाते,
सूदखोर बनिया कहलाते।
आज बैंको ने चार्जखोरी से,
चली पुरानी चाल,
लूट का यह लोकतंत्र है,
पावे सो निहाल॥

हां यही आज़ादी पाई,
मनमर्ज़ी की लूट चलाई।
स्वार्थ बस स्वाधीन हुआ,
सब सत्ता का बवाल।
लूट का यह लोकतंत्र है,
पावे सो निहाल॥

लूंट हुई स्वाधीन

कहते थे देश लूटे फ़िरंगी,
दर्द से युवा बने थे ज़ंगी।
उन वीरों की औलादों का,
जीना हुआ मुहाल।
लूंट का यह लोकतंत्र है,
पावे सो निहाल॥


जाति से पिछडे थे शोषित,
अगडे रहे है शोषक घोषित।
अब शोषक शोषित एक हुए है,
देश हुआ बदहाल।
लूंट का यह लोकतंत्र है,
पावे सो निहाल॥

7 अगस्त 2010

ब्लॉगिंग की आचार संहिता

ब्लोग जगत में आपसी वैमनस्य का फ़ैलना बहुत ही दुखद है। इस तरह ब्लोग जगत का वातावरण खराब हो, उससे पहले ही सभी ब्लोगरों को जाग्रत हो जाना चाहिए और कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए। क्योंकि हिन्दी ब्लोग जगत का सौहार्दपूर्ण वातावरण हिन्दी ब्लोगिंग के अस्तित्व का प्रश्न है।

बे-शक ब्लोग आपकी निजि डायरी है, आप जो चाहें लिखने के लिये स्वतंत्र है, पर चुंकि आपके लेख सार्वजनिक रूप से प्रकाशित होते है, इसिलिये आपका नैतिक उत्तरदायित्व बनता है कि आपके लेखों से वैमनस्य न फ़ैले।

आपका अपने लेखों और पाठकों के प्रति इमानदार होना जरूरी है।

आपके धर्म प्रचार के ब्लोग हो सकते है, लेकिन इमानदारी इसमें हैं कि आपका पाठक आपके ब्लोग पर आते ही जान ले कि यह धर्म प्रचार का ब्लोग है और मुझे यहां से क्या जानकारी प्राप्त हो सकती है।

आप अपने धर्म के बारे में फ़ैली भ्रंतियों को दूर करने के लिये भी ब्लोग चलाएं, पर इन भ्रातियों को अपने अपने ध्रर्म-ग्रंथो के संदर्भो से दूर करें,अपनी अच्छाईयां बताएं, उससे अतिक्रमण न करें,

किसी धर्म विशेष की बुराईयां निकालना, अपने धर्म को बेहतर साबित करने का तर्क नहिं हो सकता। सच्चाई लोगों तक पहुंचाना चाहते है तो वह उदाह्रण दिजिये कि देखो ये लोग, धर्म में दिखाए फ़लां उपदेश का पालन करते है, इसलिये देखो कितने शांत,सह्र्दय, व मानवीय है। कथनी का ठोस उदाह्रण अनुकरण करने वालों की करनी से ही पेश होता है।

अपनी विधारधारा पर बेशक तर्क करो, पर तर्कों को कुतर्कों के स्तर तक  न ले जाओ।

विरोधी विचारधारा का सम्मान करो, असहमति को भी आदर दो। सहमत करने के प्रयास करते हुए भी संयमित रहें। प्रयास विफ़ल होते देख, आवेश में आकर बहसबाज़ी पर न उतरें, चर्चा छोड दें, यह कोई हार जीत का प्रश्न नहिं न किसी मान का सवाल होता है।

एक बात हमेशा याद रखें कि कंई चीजों पर हजारों सालों से चर्चा हो रही है, कई विद्वान खप गये,निराकरण आज तक नहिं आया, वह आपसे भी आने वाला नहिं। ऐसे मामलों को मात्र सार्थक चर्चा तक ही सीमित रखें, क्यो व्यर्थ श्रम खोना व द्वेष बढाना।

सभी को मिलकर स्वघोषित आचार संहिता का निर्माण करना चाहिए। 



4 अगस्त 2010

ब्लॉग काम्पलेक्स और रंगबिरंगी पोस्टें

         शहर के नवविकसित क्षेत्र में एक संभ्रांत आवासीय सोसायटी है, नवीनतम सुविधाओ से भरपूर इस सोसायटी का नाम है, ‘ब्लॉग काम्पलेक्स’। प्रतिदिन सोसायटी के चौक में पोस्टों व टिप्पणियों का मेला सा लगता है। सभी की अपनी अपनी ‘विचारधाएं’ है। पोस्टें अपनी 'मान्यताओं' के अनुरूप रंग विशेष के वस्त्र परिधान करती है। कुछ टिप्पणियों के भी अपने अपने पसंदीदा रंग है। ये पोस्टें रंग के प्रति इतनी पूर्वाग्रही है कि लगता है, रंग ही इनकी पहचान है। वे इन्ही रंगो के नाम से पुकारी जाती है। जैसे सफ़ेदियाँ, केशरनियाँ , हरीयाँ, लालीयाँ, नीलियाँ और हाँ, पचरंगीयाँ भी। एक ही रंग पसंद वाली पोस्टों ने अपने अपने समूह बना रखे है।

इन रंगीली पोस्टो की जो बातें कानों में पडी……
-'वे जो सफ़ेदियां है ना, सफ़ेद साडी देखकर विधवा मत मान लेना, वे बडी सफ़ाई पसंद है। इसीलिये श्वेताम्बरी है।'

-हरीयां जो खुद को कुछ अधिक ही पाक-साफ़ का दिखाने का प्रयास करती है, और लम्बा सा घुंघट खीचे रहती है, जैसे मर्यादा की अम्माएँ हो। हमें पता है, घर में वो कैसी रहती है। उनका हमेशा उन केशरनिओं से झगडा चलता ही रहता है।

-ये केसरनीयां शुरू से सोसायटी में रहती आई है, सो वह इन हरीयों को भाव नहीं देती। हरीयां इसलिये भी चिढती है कि सोसायटी में कोई भी समारोह हो, उत्सव हो, केसरनीयां अपनी ही चलाती रहती है। यह तो अच्छा है कि सोसायटी कमेटी में पचरंगीयों और लालीयों का दब दबा है और पचरंगियाँ और लालियाँ, हरियों का फ़ेवर करती है, अन्यथा केसरनीयां तो हरियों को सोसायटी से निकाल कर ही दम ले।

-इन पचरंगीयों का तो भरोसा ही नहीं, कब किस करवट बैठे, इनका केसरनीयों से पता नहीं किस जनम का बैर है, इन्हे केसरनीयों की साडी में तो हज़ार नुक्स नज़र आते है, पर हरीयों की साडी से निकली चिंदियां नज़र नहीं आती। इन्हे तो हरीयां बेचारी ही लगती है।

उसी तरह लालियों का भी अज़ीब वर्ताव है, रिति-रिवाज़ तो पचरंगीयों की तरह ही है पर, एक नम्बर की ज़िद्दी, ज़िद्द को भी उसूलों की तरह मानती है। खुद कभी मंदिर वगैरह जाती नहीं, पर पता नहीं क्या डर समा गया है कि यदि कोई दूसरा चला गया तो इनका अस्तित्व ही खतरे मे पड जाता है। गरीबों को अपना पिछलगू बनाए रखने में शायद भगवान ही एक मात्र इनका प्रतिद्वंधी है। बात तो पूरी सोसायटी में समानता की करती है, लेकिन मुश्किल यह है कि समानता आती ही नहीं, मानवों के अधिकार के लिये मानवों को ही गिरा देने को तत्पर रहती है।

और नीलीयां, पता नहीं हमेशा बुझी बुझी सी रहती है, सामान्य बात भी करो तो, क्रोध इनकी आंखो में उतर आता है, बैर बदले की बातें करती रहती है, पता नहीं किससे बदला लेंगी। शायद अभावो में पली है, इसिलिये ऐसी मानसिकता बन गई है, हर समय अपने दुखडे रोती रहती है। एक बार दुखडे रोने शुरु करे तो पता भीं नहीं चलता कि बच्चों को स्कूल भेजने का समय हो गया है। पति बडे बडे पद पर है, फ़िर भी बच्चो के लिये खैराती पुस्तकें लाएँगी।

सफ़ेदीयां भी कोई कम नहीं, कुछ तो वाकई सिर्फ़ सफ़ेद साडी ही पहनती है, पर कुछ की सफ़ेद साडी पर केसरी बार्डर, तो किसी के हरा, कुछ तो मदर टेरेसा की तरह नीली बार्डर भी रखती है। कई समाज सेवा के बडे बडे काम करती है, पर सफ़ेद साडी का लाल चटाक पल्लु कमर में खौच कर छुपा लेती है।
कल सफ़ेद वाली बात कर रही थी, कि सामने वाली से चुटकी भर मिर्च मांगी तो मना कर दिया, आज कैसी मीठी मीठी बोलकर कटोरी भर चीनी ले गई, बडी चालाक है।

-लालवालीयां तो बिना मांगे ही मिर्ची घर तक देने आ जाती है, पर चीनी देने को कहो तो उनका जी जलता है।
हरी और केसरी में तो लेने देने के सम्बंध ही नहीं है, पर कोई एक भी विशेष वस्तु देने जाय तो चटाक से दूसरी बोल देती है, हमारे घर में तो पहले से ही है।

-कल एक हरी नें, उस स्वच्छ सफ़ेदी को फ़ंसा दिया, बिचारी कभी केसरानीयों के साथ नहीं रही, पर उसकी साडी पर आरेंज ज्यूस गिरा कर, बदनाम करने लगी कि यह भी केसरानीयों की टोली की है।

एक दिन सोसायटी में बाढ आ गयी, बडा गंदला पानी। पानी घरों में घुसनें लगा, सभी नें दौडकर एक उचाँई पर बडे से खुले मैदान में आश्रय लिया। चारो तरफ़ पानी ही पानी था, भीगे कपडों और ठंड के मारे बुरा हाल था। थोडी ही देर में सहायता के लिये हेलिकॉप्टर आ गये, कपडे और खाद्य सामग्री बरसाने लगे, सूखे कपडे पानें के लिये छीना-झपटी चली,जिसके हाथ जो आया पहन लिया। रंगो की पहचान खत्म हो गई। छीना-झपटी में कपडे फ़ट चुके थे।सभी को अक्ल आ चुकी थी, इस तरह तो हम स्वयं का ही नुकसान करेंगे, अन्त सुखद था, भोजन सभी ने मिल बांट कर खाया।

मेरा धर्म प्रचार

क्यों मैं अपने धर्म का प्रचार करूं।
क्यों लोगो को अपने धर्म की और आकृषित करूं?
जबकि लोग तो स्वयं धर्मी है,
गुणग्राही हैं, भलाईयां ही चाहते हैं,
और करते भी है।
फ़िर क्या अच्छा है मेरे धर्म में जो कि,
पहले से ही उनके अंतरमन में नहिं है।
वासनाओं, इच्छाओं और मोह के वशीभुत,
कहीं कोई गुण यदि दबा भी पडा है तो,
मेरे धर्म का लेबल उसे और आवृत कर देगा।
धर्म किसी की बपौति नहिं,
मानवता की नेमत है,
हर बाडे में फ़लफ़ूल जायेगी।
मैं अपनी शक्ति जो लगा दूंगा,
दूसरों को स्वधर्मी बनाने में।
और वे परधर्मी गुणग्राही बन,
सद्गुणों से अपनी नैया पार लगा देंगे।
कल्याण, मुक्ति व निर्वाण पा लेंगे।
परहित सद्गुण गठरी के भार से,
मेरी नैया प्रचार के भंवर में डूब जायेगी।
आज समझ आया मेरे ही धर्म का मर्म
‘सद्भाव चरित्र बिना मुक्ति सम्भव नहिं’
और इसके लिये किसी लेबल की क्या जरूरत।

1 अगस्त 2010

टिप्पणियां स्वतः उछल-उछल कर व्यंग्य करती है!!

 

प्रविष्ठियाँ टिप्पणीयों से बल पाकर, आस पास बैठ जाती है। सहसा पडौसी प्रविष्ठियों पर व्यंग्य बाण चलाने लगती है। संख्या के आधार पर समूह में जा बैठती है,और अरस-परस की पोस्टों पर ताने मारती है। ये टिप्पणियां अन्य पोस्टों को विचित्र प्रतिक्रिया प्रकट करने को बाध्य करती है। 

रविवार शाम 7/20 , "चिठ्ठाजगत" पर टॉप टिप्पणी सूची , नजारा कुछ यह था, दो-दो-तीन पोस्ट शिर्षक को एक साथ पढ आप भी आनंद लिजिये……… 

 

उदासी मन का एक्स रे होती है [35] 

दोस्ती का एक दिन [25] 

 

वो सारे ज़ख़्म पुराने, बदन में लौट आए [21] 

भैया जरा बच के , जाना दिल्ली में, -तारकेश्वर गिरी. [20] 

 

रविवार भोर ६ बजे [20] 

.....अब आप भी प्रेम की रूहानी यादों में तनिक खो जाईये तो बात बनें! [19] 

 

द डे व्हेन एवरीथिंग वेंट रॉंग.....वेल..नॉट एवरीथिंग :) [19] 

सावन की बरसात [18] 

 

फ्रैंडशिप डे -ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगें [17] 

The real Guide सच का जानने और बताने वाला केवल वह मालिक है . वही मार्गदर्शन करने का सच्चा अधिकारी है। कर्तव्य और अकर्तव्य का सही ज्ञान वही कराता है। -Anwer Jamal [16] 

 

पहचान पायेंगे क्या? [16] 

तेरे चाहने वाले, तमाम बढ़ गए है[16] 

 

फ्रैंडशिप- डे की बधाई [15] 

गड्ढे में हाथी [15] 

सनडे मानसिक फीस्ट .... हंसते क्यों नहीं हो ? [14] 

 

ब्लॉग-गुरु ! कैरान्वी भाई, कहाँ हो आजकल आप !! [12] 

घर लौटने का समय [11] 

सर्दी की गुनगुनी धूप में ममता भरी रजाई अम्मा -सतीश सक्सेना [11] 

 

नेता और कुत्ता [11] 

फ्रेण्डशिप-डे: ये दोस्ती हम नहीं तोडेंगे [11] 

 

आराम की ज़रूरत है…! [10] 

शेर [10] 

अपने ही घर में मुझे सब , मेहमान बना देते हैं............अजय कुमार झा [10] 

 

परिशिष्ट: 

 

हिंदी सबके लिए [13] 

यह कौन सी भाषा है विभूति जी? [13] 

 

आत्मा कहाँ जाती है ? [22] 

रविवार भोर ६ बजे [22] 

 

खाओ मनभाता, पहनो जगभाता और लिखो....... [11] 

सलामत रहे दोस्ताना हमारा [11]

 “… खुद चलके आती नही” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”) [11] 

 

अन्तिम तुर्रा……॥

 

हमारे ज्ञान की परिधि कितनी सीमित है----- [14] 

टिप्पणियां स्वतः आ आकर व्यंग्य करती है!! [14] 

 

सामग्री: ज्यों की त्यों चिठ्ठाजगत से साभार। विद्वानों के नाम आना 'कट-पेस्ट' संयोगमात्र है,कृपया हास्य विनोद से लें । :)

 

श्रेष्ठ सटीक प्रति्क्रिया, ……

 

"इसे कहते हैं.. पहने कुर्ता पर पतलून आधा फागुन,आधा जून. और तुर्रा ये कि किसी का कुर्ता,किसी की पतलून.."
 ---सम्वेदना के स्वर 
"हिन्दी ब्लॉगों की टिप्पणी 'दशा' पर अब तक की सबसे सार्थक, सटीक, अर्थयुक्त टिप्पणी :) "
 ---रवि रतलामी

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