31 जनवरी 2011

लोह सौदागर



पुराने समय की बात है, रेगीस्तान क्षेत्र में रहनेवाले चार सौदागर मित्रों नें किसी सुविधाजनक समृद्ध जगह जा बसनें का फ़ैसला किया। और अपने गांव से निकल पडे। उन्हे एक नगर मिला जहाँ लोहे का व्यवसाय होता था। चारों ने अपने पास के धान्य को देकर लोहा खरीद लिया, पैदल थे अत: अपने सामर्थ्य अनुसार उठा लिया कि जहाँ बसेंगे इसे बेचकर व्यवसाय करेंगे।

आगे जाने पर एक नगर आया, जहां ताम्बा बहुतायत से मिल रहा था, लोहे की वहां कमी थी अतः लोहे के भारोभार, समान मात्रा में ताम्बा मिल रहा था। तीन मित्रों ने लोहा छोड ताम्बा ले लिया, पर एक मित्र को संशय हुआ, क्या पता लोहा अधिक कीमती हो, वह लोहे से लगा रहा। चारों मित्र आगे बढे, आगे बडा नगर था जहां चाँदी की खदाने थी, और लोहे एवं तांबे की मांग के चलते, उचित मूल्य पर चांदी मिल रही थी। दो मित्रों ने तो ताम्बे से चाँदी को बदल दिया। किन्तु लोह मित्र और  ताम्र मित्र को अपना माल आधिक कीमती लगा, सो वे उससे बंधे रहे। ठीक उसी तरह जो आगे नगर था वहाँ सोने की खदाने थी। तब मात्र एक मित्र नें चाँदी से सोना बदला। शेष तीनो को अपनी अपनी सामग्री मूल्यवान लग रही थी

अन्ततः वे एक समृद्ध नगर में आ पहुँचे, इस विकसित नगर में हर धातु का उचित मूल्यों पर व्यवसाय होता था, जहाँ हर वस्तु की विवेकपूर्वक गणनाएँ होती थी।चारों सौदागरों ने अपने पास उपलब्ध सामग्री से व्यवसाय प्रारंभ किया। सोने वाला मित्र उसी दिन से समृद्ध हो गया, चाँदी वाला अपेक्षाकृत कम रहा। ताम्र सौदागर बस गुजारा भर चलाने लगा। और लोह सौदागर!! एक तो शुरू से ही अनावश्यक बोझा ढोता रहा और यहाँ बस कर भी उसका उद्धार मुश्किल हो गया।

26 जनवरी 2011

अनुकूल हवा में जग चलता, प्रतिकूल चलो तो हम जानें।



अनुकूल हवा में जग चलता, प्रतिकूल चलो तो हम जानें।
कलियाँ खिलती है सावन में, पतझड़ में खिलो तो हम जानें॥

तृप्तों को भोज दिया करते, मित्रों को जिमाना तुम जानो।
अनजानी भूख की चिंता में, भोजन त्यागो तो हम जानें॥

इस हंसती गाती दुनिया में, मदमस्त बसना तुम जानो।
मधु की मनुहारें मिलने पे, तुम गरल पियो तो हम जानें॥

मनमौजी बनकर जग रमता, संयम में रहना कठिन महा।
जो पानें में जीवन बीता, उसे भेंट चढाओ तो हम जानें॥

दमन तुम्हारा जग चाहता, और जगत हिलाना तुम जानो।
है लगन सभी की चढने में, स्कंध बढाओ तो हम जानें॥

इन लहरों का रुख देख-देख, जग की पतवार चला करती।
झंझावात भरे तूफानों में, तरणि को तिराओ तो हम जानें॥

अनुकूल हवा में जग चलता, प्रतिकूल चलो तो हम जानें।
कलियाँ खिलती है सावन में, पतझड़ में खिलो तो हम जानें॥

25 जनवरी 2011

जब वक्त ही न रहा पास तो फिर क्या होगा?

अप्रमाद-पुरूषार्थ

जब वक्त ही न रहा पास तो फिर क्या होगा?
लुट गई दौलते अहसास तो फिर क्या होगा?
कौन सी सुबह जलाओगे तमन्नाओं का चराग़?
शाम से ही टूट गई आस तो फिर क्या होगा?

सांस लेना ही केवल जिन्दगानी नहीं है।
उस बीस साल की उम्र का नाम जवानी नहीं है।
ज्योत बन जीना घड़ी भर का भी सार्थक,
जल के दे उजाला उस दीप का सानी नहीं है।

24 जनवरी 2011

ज्ञानी और चरित्रवान



शिक्षा से मानव शिक्षित कहलाता है और वह सर्वत्र आदर पाता है। किन्तु शिक्षित की अपेक्षा चरित्रवान अधिक आदर पाता है। शिक्षित के खिलाफ़ अंगुली निर्देश सम्भव है पर चरित्रवान के खिलाफ़ यह सम्भव हीं। चरित्रवान में कथनी और करनी की एकरूपता हो जाती है।

22 जनवरी 2011

समाज का चिंतन


"समाज"
‘पशूनां समजः, मनुष्याणां समाजः’
पशुओं का समूह समज होता है और मनुष्यों का समूह समाज
अर्थार्त, पशुओं के संगठन, झुंड कहलाते है, जबकि इन्सानो के संगठन ही समाज कहलाते है।
भेद यह है कि पशुओं के पास भाषा या वाणी नहीं होती। और मनुष्य भाषा और वाणी से समृद्ध होता है।
जहाँ भाषा और वाणी होती है,वहाँ बुद्धि और विवेक होता है। जहाँ बुद्धि और विवेक होता है वहीं चिंतन होता हैं।
आज मनुष्यों ने भाषा,वाणी,बुद्धि,विवेक और चिंतन होते हुए भी समाज को तार तार कर उसे झुंड (भीड) बना दिया हैं।
रहन-सहन में उच्चतम विकास साधते हुए भी मानव मानसिकता से पशुतुल्य होता जा रहा है।भीड में रहते हुए भी सामुहिकता तज कर, स्वार्थपूर्ण एकांतप्रिय और व्यक्तिगत होना पसंद कर रहा है।
___________________________________________________

21 जनवरी 2011

संस्कार और हार ? -लघुकथा

गोपालदास जी के एक पुत्र और एक पुत्री थे। उन्हे अपने पुत्र के विवाह के लिये संस्कारशील पुत्रवधु की तलाश थी। किसी मित्र ने सुझाया कि पास के गांव में ही स्वरूपदास जी के एक सुन्दर सुशील कन्या है।
गोपालदास जी किसी कार्य के बहाने स्वरूपदास जी के घर पहूंच गये, कन्या स्वरूपवान थी देखते ही उन्हे पुत्रवधु के रूप में पसन्द आ गई। गोपालदास जी ने रिश्ते की बात चलाई जिसे स्वरूपदास जी ने सहर्ष स्वीकार किया। स्वरूपदास जी की पत्नी ने मिष्ठान भोजन आदि से आवभगत की।
संयोगवश स्वरूपदास जी की पत्नी के लिये उसी दिन एक नवसहर सोने का हार बनकर आया था। समधन ने बडे उत्साह से समधी को दिखाया, हार वास्तव में मोहक और सुन्दर था। गोपालदास जी ने जी भरकर उस हार की तारीफ की। तत्पश्चात कुछ देर बातो का दौर चला और फ़िर गोपालदास जी ने लौटने के लिये विदा लेकर अपने घर के लिये चल दिये।
सँयोग से चार दिन बाद ही स्वरूपदास जी की पत्नी को किसी समारोह में जाने की योजना बनी, और उन्हे वही हार पहनना था। उन्होने ड्रॉअर का कोना कोना छान मारा, पर हार नहीं मिला। सोचने लगी आखिर हार गया तो गया कहाँ? उसी क्षण स्वरूपदास जी की पत्नी के मन एक विचार कौँधा, कुछ निश्चय करते हुए स्वरूपदास जी को बताया कि हार तो गोपालदास जी चोरी कर गये है।
स्वरूपदास जी ने कहा भागवान! ठीक से देख, घर में ही कहीं होगा, समधी ऐसी हरक़त नहीं कर सकते। उसने कहा मैने सब जगह देख लिया है और मुझे पूरा यकीन है हार गोपाल जी ही ले गये है, हार देखते ही उनकी आंखे फ़टी रह गई थी। वे बडा घूर कर देख रहे थे, निश्चित ही हार तो समधी जी ही लेकर गये है।आप गोपाल जी के यहां जाईए और पूछ देखिए हार वहां से ही मिलेगा।
बडी ना-नुकर के बाद पत्नी की जिद्द के आगे स्वरूप जी को झुकना पडा और बडे भारी मन से वे गोपाल जी के घर पहूंचे। आचानक स्वरूप जी को घर आया देखकर गोपाल जी शंकित हो उठे कि क्या बात हो गई?
स्वरूपजी दुविधा में कि आखिर समधी से कैसे पूछा जाय? इधर उधर की बात करते हुए, साहस जुटा कर बोले- आप जिस दिन हमारे घर आए थे, उसी दिन घर एक हार आया था, वह मिल नहीं रहा।
कुछ क्षण के लिये गोपाल जी स्तब्ध हो गए, जरा विचार में पडे, और बोले अरे हाँ, ‘वह हार तो मैं लेकर आया था’, मुझे अपनी पुत्री के लिये ऐसा ही हार बनवाना था, अतः सुनार को सेम्पल दिखाने के लिये, मैं ही ले आया था। वह हार तो अब सुनार के यहां है। आप तीन दिन रुकिये और हार ले जाईए।
किन्तु असलियत में तो हार के बारे में पूछते ही गोपाल जी को आभास हो गया कि हो न हो समधन ने चोरी का इल्जाम लगाया है। उसी समय सुनार के यहां जाकर, देखे गये हार की डिज़ाइन के आधार पर सुनार को बिलकुल वैसा ही हार, मात्र दो दिन में तैयार करने का आदेश दे आए। तीसरे दिन सुनार के यहाँ से हार लाकर स्वरूप जी को सौपते हुए कहा, लिजिये सम्हालिये अपना हार।
घर आकर स्वरूप जी ने हार श्रीमति को सौपते हुए हक़िक़त बता दी। पत्नी ने कहा- मैं न कहती थी, हार गोपाल जी चोरी कर् गए है, बाकि सब तो बहाने मात्र है, भला कोई बिना बताए सोने का हार लेकर जाता है ? समधी सही व्यक्ति नहीं है, आप आज ही समाचार कर दिजिये कि यह रिश्ता नहीं हो सकता।
स्वरूप जी नें फ़ोन पर गोपाल जी को सूचना दे दी, गोपाल जी को आभास था ऐसा ही होना है वे कुछ न बोले।
सप्ताह बाद स्वरूप जी की पत्नी साफ सफ़ाई कर रही थी, उन्होने पूरा ड्रॉअर ही बाहर निकाला तो पिछे के भाग में से हार मिला, निश्चित करने के लिये कि यह पहला वाला हार है, दूसरा हार ढूढा तो वह भी था। दो हार थे। वह सोचने लगी, अरे यह तो भारी हुआ, समधी जी नें इल्जाम से बचने के लिये बिलकुल वैसा ही दूसरा हार बनवा कर दिया है।
तत्काल उसने स्वरूप जी को वस्तुस्थिति बताई और कहा, समधी जी तो बहुत उंचे खानदानी है। ऐसे समधी को खोना तो रत्न खोने के समान है। आप पुनः जाईए, उन्हें हार वापस लौटा कर और समझा बुझा कर रिश्ता पुनः जोड कर आईए। ऐसा रिश्ता बार बार नहीं मिलता।
स्वरूप जी पुनः दुविधा में फंस गये सफलता में उन्हें भी संदेह था पर सोचा कोशीश तो की ही चाहिए। ऐसे विवेकवान समधी से पुनः सम्बंध जोडने का एक प्रयास उन्हे भी उचित प्रतीत हो रहा था।
स्वरूप जी, गोपाल जी के यहां पहूँचे गोपाल जी समझ गये कि शायद अब पुराना हार मिल चुका होगा।
स्वरूप जी ने क्षमायाचना करते हुए हार सौपा और अनुनय करने लगे कि जल्दबाजी में हमारा निर्णय गलत था। आप हमारी भूलों को क्षमा कर दिजिए, और उस सम्बंध को पुनः कायम कीजिए।
गोपाल जी नें कहा, देखिए स्वरूप जी यह रिश्ता तो अब हो नहीं सकता, आपके घर में शक्की और जल्दबाजी के संस्कार है जो इस रिश्ते के कारण मेरे भी घर के संस्कारो को प्रभावित कर सकते है।


लेकिन मैं आपको निराश नहीं करूंगा। मैं अपनी बेटी का रिश्ता आपके बेटे के लिये देता हूँमेरी बेटी में वो संस्कार है जो आपके परिवार को निश्चित ही सुधार देने में सक्षम है। मुझे अपने संस्कारो पर ऐसा भरोसा है। और यह इसलिए कि जहाँ पहले रिश्ते में दो घर बिगडने की सम्भावनाएं थी, वहां यह नया रिश्ता दोनो घर सुधारने में सक्षम होगा। 

स्वरूप जी की आंखे ऐसा हितैषी सम्बन्धी पाकर छल छला आई।
________________________________________________________

19 जनवरी 2011

आज कल के चक्कर में ही, मानव जाता व्यर्थ छला.......

आज नहीं मैं कल कर लूंगा, जीवन में कोई काम भला।
आज कल के चक्कर में ही, मानव जाता व्यर्थ छला॥

इक दो पल नहीं लक्ष-कोटि नहीं, अरब खरब पल बीत गये।
अति विशाल सागर के जैसे, कोटि कोटि घट रीत गये।
पर्वत जैसा बलशाली भी, इक दिन ओले जैसा गला।
आज कल के चक्कर में ही, मानव जाता व्यर्थ छला॥

आज करे सो कर ले रे बंधु, कल की पक्की आश नहीं।
जीवन बहता तीव्र पवन सा, पलभर का विश्वास नहीं।
मौत के दांव के आगे किसी की, चलती नहीं है कोई कला।
आज कल के चक्कर में ही, मानव जाता व्यर्थ छला॥
____________________________________________________

17 जनवरी 2011

दुर्गम पथ पर तुम न चलोगे कौन चलेगा?


साधक बोलो दुर्गम पथ पर तुम न चलोगे कौन चलेगा?

कदम कदम पर बिछे हुए है, तीखे तीखे कंकर कंटक।
भ्रांत भयानक पूर्वाग्रह है, और फिरते हैं वंचक।
पर साथी इन बाधाओ को तुम न दलोगे कौन दलेगा?

अम्बर में सघनघन का, कोई भी आसार नहीं है।
उष्ण पवन है तप्त धरा है, कोई भी उपचार नहीं है।
इस विकट वेला में तरूवर, तुम न फलोगे कौन फलेगा?

सूरज कब का डूब चला है, रह गया अज्ञान अकेला।
चारो ओर घोर तिमिर है, और निकट तूफानी बेला।
फिर भी इस रजनी में दीपक, तुम न जलोगे कौन जलेगा?

________________________________________________

14 जनवरी 2011

कटी पतंग

तंग, उँचा आसमान छूने के लिए अधीरदूसरी पतंगो को मनमौज से झूमती इठलाती देखकर मायुस। वह एक नियंत्रण की डोर से बंधी हुईसधे अनुशासन के आधार से उडती-लहराती, फ़िर भी परेशान। आसमान तो अभी और शेष थाशीतल समीर के उपरांत भी, अन्य पतंगो का नृत्य देख उपजीर्ष्या, उसे झुलसा रही थी। श्रेय की अदम्य लालसा और दूसरो से उँचाई पाने की महत्वाकांक्षा ने उसे बेकरार कर रखा था। स्वयं को तर्क देती, हाँ! प्रतिस्पर्धा ही तो उन्नति की सीढी है

किन्तु,फ्फ!! यह डोर बंधन!! डोर उसकी स्वतंत्रता में बाधक थी। अपनी महत्वाकांक्षा पूर्ति के लिए, वह दूसरी पतंगो की डोर से संघर्ष करने लगी। इस घर्षण में उसे भी अतीव आनंद आने लगा। अब तो  वह डोर से बस मुक्ति चाहती थी । अनंत आकाश में स्वच्छंद विचरण करना चाहती थी।

निरंतर घर्षण से डोर कटते ही, वह स्वतंत्र हो गई। सूत्रभंग के झटके ने उसे सहसा उंचाई की ओर धकेला, वह प्रसन्न हो गईकिन्तु यह क्या? वह उँचाई तो क्षण मात्र की थी। अब स्वयंमेव उपर उठने के सारे प्रयत्न विफल हो रहे थे। निरूपाय-निराधार डोलती हुई वह नीचे गिर रही थी। सांसे हलक में अटक गई थी, नीचे गहरा गर्त, बडा डरावना भासित हो रहा था। उसे डोर को पुनः पाने की प्रबल इच्छा जगी, किन्तु देर हो चुकी थी, डोर उसकी दृष्टि से ओझल हो चुकी थी। अन्तत: धरती पर गिर कर धूल धूसरित हो गई, पतंग

12 जनवरी 2011

नर-वीर

चोट खाकर रो पडे वो आदमी नादान है।
गिरते हुए गैर पर हँसना बड़ा आसान है।
थाम ले जो हाथ गिरते आदमी का,
बस आदमी होता वही इन्सान है॥

तन को निर्मल बना दे वह नीर होता है।
शान्ति से सहन करे वह धीर होता है।
क्रोध करने वाले में छिपी है कायरता,
समभावी क्षमाशील ही नर-वीर होता है॥
________________________________________

11 जनवरी 2011

पुरूषार्थ

जो सोते है उनकी किस्मत भी सोती है
श्रम से ही तो कल्पना साकार होती है
बंद कर बैठे रहे जो सारी खिड़कियां
भरी दोपहर उन घरो में रात होती है

रोशनी मांगने से उधार नहीं मिलती।
बैठे रहने से जीत या हार नहीं मिलती।
असफलताओ से  निराश क्या होना?
पतझड के आए बिन बहार नहीं खिलती।

सपनो में खोना, छूना परछाई होता है।
पुरूषार्थ भरा जीवन ही सच्चाई होता है।
सोते हुओं की नाप लो तुम मात्र लम्बाई,
जगे हुओं का नाप सदैव उँचाई होता है॥

++++++++++++++++++++++++++++++++

सन्देश !!

सेवा और समर्पण का कोई दाम नहीं है।
मानव तन होने से कोई इन्सान नहीं है।
नाम प्रतिष्ठा की चाहत छोडो यारों,
बड़बोलो का यहां अब काम नहीं है।
                  ***
बिना काम के यहाँ बस नाम चाहिए।
सेवा के बदले भी यहाँ इनाम चाहिए।
श्रम उठाकर भेजा यहाँ कौन खपाए?
मुफ़्त में ही सभी को दाम चाहिए॥
                  ***
आलोक सूर्य का देखो, पर जलन को मत भूलो।
चन्द्र पूनम का देखो, पर ग्रहण को मत भूलो।
किसी आलोचना पर होता तुम्हे खेद क्योंकर,
दाग सदा उजले पर लगे, इस चलन को मत भूलो॥

                  ***

10 जनवरी 2011

निष्फल है,बेकार है…


ज्ञान के बिना क्रिया।
दर्शन के बिना प्रदर्शन।
श्रद्धा के बिना तर्क।
आचार के बिना प्रचार।
नैतिकता के बिना धार्मिकता।
समता के बिना साधना।
दान के बिना धन।
शील के बिना शृंगार।
अंक के बिना शून्य सम।
निष्फल है,बेकार है॥
_____________________________

8 जनवरी 2011

यदि……कर न सको तो…


यदि भला किसी का कर न सको तो,बुरा किसी का मत करना।
यदि अमृत न हो पिलाने को तो, ज़हर के प्याले मत भरना।
यदि हित किसी का कर न सको तो, द्वेष किसी से मत करना।
यदि रोटी किसी को खिला न सको तो,भूख-भीख पे मत हंसना।
यदि सदाचार अपना न सको तो, दुराचार डग मत धरना।
यदि मरहम नहिं रख सकते तो, नमक घाव पर मत धरना।
यदि दीपक बन नहिं जल सकते तो, अन्धकार भी ना करना।
यदि सत्य मधुर ना बोल सको तो, झूठ कठिन भी ना कहना।
यदि फूल नहिं बन सकते तो, कांटे बन न बिखर जाना।
यदि अश्क बिंदु न गिरा सको तो, आंख अगन न गिरा देना।
यदि करूणा हृदय न जगा सको तो, सम्वेदना न खो देना।
यदि घर किसी का बना न सको तो,झोपडियां न जला देना।
____________________________________________

7 जनवरी 2011

ब्लॉग गुटबाजी का निदान


अपने पिछले लेख और उस पर आयी प्रतिक्रियाओं से चर्चा आगे बढाते हुए………एक नज़र जो विचार प्रस्तुत हुए…

“……सिर्फ कमेन्ट पाने या खुद को बौद्दिक रूप से संपन्न दिखाने जैसे कारणों या इच्छाओं की पूर्ति के लिए के लिए लेखन का ये खेल खेला जाता है”।
“……गुटबाजी की चर्चा से लगता है कि कहीं न कहीं आग तो है, वर्ना धुँआ नहीं उठता।"
 “……गुट है और उसे बनाया और बढाया जाता है | बहुत सारी और भी बाते तथ्य है पर उन पर ज्यादा बहस करना ही बेकार है”।
“……जब परस्पर विरोधी विचारधाराएँ, रंजिश में बदल जाती हैं!
“……प्रचलित धारा से अलग कुछ कहने वाला कुपाच्य हो जाता हैं
“……अब अनुभव में आ रहा है कि लोगों को परामर्श रुचते नहीं”।

मेरे द्वारा पूर्व वर्णीत, 'स्वभाविक ग्रुप-संकल्पना' जिसे यथार्थ में 'गुट-निर्पेक्षता' भी कहा जा सकता है। ऐसे ग्रुप का विचार, विषय और विधा की प्रकृति अनुसार एकीकरण हो जाना स्वभाविक है। 

इसके इतर जो गुट मात्र विवादों के समय अस्तित्व में आते है और पुनः आपस में ही विवाद कर बिखर भी जाते है। क्योंकि ऐसे दल का आधार मात्र और मात्र अहं तुष्टि होता है। फिर भी हिन्दी ब्लॉग जगत को ऐसे गुटों से कोई खतरा नहीं है। प्रतिस्पृदा की दौड के मध्य ऐसे संयोजन का प्रकट होना और वियोजन भी हो जाना, विकास के दौर में सम्भावित ही है। इसे अपरिपक्वता से परिपक्वता की संधी के रूप में देखना ही ठीक है।
 
दूसरे, जो मात्र तुच्छ स्वार्थो भरी मानसिकता से गुटबंदी का खेल खेलते है, इसी खेल से विवादग्रस्त होकर अन्तत: तो महत्व खो ही देते है। क्योंकि वे केवल इस सूत्र पर कार्य कर रहे है कि 'बदनाम हुए तो क्या हुआ नाम तो हुआ।' भले इस मानसिकता के चलते अपने ब्लॉग को अल्पकालिक प्रसिद्धि दे पाने में सफल हों, किन्तु विचारों की विश्वसनीयता खो देते है। वैचारिक दरिद्रता लेखकीय चरित्र का अंत है। निष्ठावान व्यक्तित्व में ही ब्लॉग की सफलता निहित है।

यह एक प्राकृतिक नियम है कि
जो कमजोर होता है, स्वतः ही पिछड जाता है।(कमजोर से यहां आशय विचार दरिद्रता से है।) और साथ ही अर्थशास्त्र का एक सार्वभौमिक नियम है जो सभी जगह लागू होता है, "जैसी मांग, वैसी पूर्ति।" और यह सच्चाई है कि अन्ततः तो उच्च
गुणवत्तायुक्त सार्थक लेखन की मांग उठनी ही है। इसलिए जो भी सार्थक गुणवत्तायुक्त सामग्री की पूर्ति करेंगे, वे ही टिकेंगेनिकृष्ट, भ्रांत और अविश्वसनीय सामग्री की मांग का समाप्त होना अवश्यंभावी है

तीसरे, वे धार्मिक विचारधाराएँ जिनमें, दर्शन आधारित समीक्षा को अवकाश नहीं होता, कार्य-कारण पर विवेकयुक्त विवेचन को कोई जगह नहीं है, मानवीय सोच को विचार-मंथन के अवसर प्रदान नहीं करती। ऐसी धार्मिक विचारधाराएं तो सम्प्रदाय प्रचार के फुटपाथी गल्ले मात्र है। जो आने जाने वालों को अपनी दुकान में लाने हेतू चिल्ला कर, रोक कर,प्रलोभन देकर बुलाते है। ऐसे पंथप्रचारी गुटों के विवाद बस फ़ुट्पाथ स्तर के फेरी वालों की तकरार सम होते है। अतः इनसे भी हिन्दी ब्लॉग जगत को कोई हानि नहीं होने वाली। गम्भीर ज्ञान-चर्चा के लिये धर्म-दर्शन आधारित अन्य क्षेत्र विकसित हो ही जाते है। विवेकशील वैचारिकता अपना पड़ाव तय कर ही लेती है।

अंत में, अपने विचार परिमार्जन के परामर्श जिन्हें पथ्य नहीं, ऐसे ब्लॉगर के विचार तो स्वतः ही स्थिर होकर सडन को प्राप्त होंगे। और कहते हैं कि ‘जो झुकते नहीं टूट जाते है’। इसलिए जिन्हें विनय से नया ज्ञान प्राप्त करने की कूवत नहीं, विनम्रता से विचारों का परिशीलन नहीं करते, धारणाओं को परिष्कृत नहीं करते उस दशा में अन्तत: तो उनके अपने अन्तरमन से ज्ञान सर्वदा लुप्त हो जाता है। और अपने स्थिर ज्ञान का दम्भ भी उनकी लुटिया डुबोने के लिए प्रयाप्त है।

इसलिए उच्च वैचारिकता को किसी से भी कोई चुनौती नहीं है। किन्तु विकास संयुक्त सहयोग पर ही निर्भर है।

इसलिये चलें?, सार्थक ब्लॉग लेखन से ब्लॉग स्मृद्धि की ओर…………।

सम्बंधित अन्य सूत्र........

ब्लॉगिंग ज्ञानतृषा का निदान ही नहीं, ज्ञान का निधान है।
हिन्दी ब्लॉग जगत में गुटबाजी?
विचार प्रबन्धन
लेखकीय स्वाभिमान के निहितार्थ
ब्लॉगिंग की आचार संहिता

6 जनवरी 2011

हिन्दी ब्लॉग जगत में गुटबाजी?


हिन्दी ब्लॉग जगत में एक शिकायत बडी आम है कि ब्लॉगर गुट बनाते है, और अपने गुट विशेष के सदस्यों की ही सराहना करते है। वैसे तो मैं स्वयं गिरोहबाजी का समर्थक नहीं, पर हमेशा जो दिखता है, वास्तव में वही मात्र यथार्थ नहीं होता।

हिन्दी ब्लॉग जगत में सभी सशक्त साहित्यकार नहीं आते, वस्तुतः अधिसंख्य रूप से वे सामान्य लेखक, सहज अभिव्यक्ति करने वाले ब्लॉगर ही होते है। ऐसे नव-आगंतुको को प्रेरणा व प्रोत्साहन की नितांत ही आवश्यकता होती है। उनकी सराहने योग्य रचनाओं पर जब, ‘बढिया पोस्ट’ ‘उम्दा पोस्ट ‘Nice post’  जैसी टिप्पणियाँ आती है, उनके लिये बहुत मायने रखती है। प्रेरणादायिनी होती है। उनके लिये तो यह भी बहुत होता है, लोगों ने उसका ब्लॉग देखा। स्थापित होने के संघर्ष में वे भी सप्रयत्न दूसरे ब्लॉगर के समर्थक बनते है, बिना लेख पढे ज्यादा से ज्यादा टिप्पणियाँ करते है, इसलिये कि उन्हे भी याद रखा जाय, उन्हे  महत्व दिया जाय, उनकी पहचान स्थापित हो।

इस तरह लेन-देन के प्रयास में पाठकों की नियमितता होती है, जिसे हम अक्सर गुट समझने की भूल करते है, जबकि यह नियमितता प्रेरक सहयोग मात्र होता है, साथ ही सक्रीयता सूचक भी।

अकसर प्रतिष्ठित विद्वान साहित्यक ब्लॉगर्स के ब्लॉग पर भी ऐसा दृष्टिगोचर होता है, कुछ विशेष ब्लॉगर की वहां सक्रीयता दिखती है। किन्तु वहां भी उनकी आवश्यकताएँ होती है। साहित्यक प्रतिभावान ब्लॉगर भी अपेक्षा रखता है उसे साहित्यक समझ वाले पाठक उपलब्ध हो। वह टिप्पणीकर्ता के विचारों से भांप लेता है कि पाठक साहित्यक समझ के योग्य पात्र है। ऐसे में इन ब्लॉगर पाठक के साथ संवाद की निरंतरता बनती है, वे परस्पर लेखादि को सराहते है, जो कि सहज ही होना भी चाहिए। ऐसी आपसी सराहना को हम गुट मान लेते है। हिंदी ब्लॉगजगत की दुविधा यह है कि इस विकासशील दौर में हर ब्लॉगर ही पाठक होता है। अतः आपस में जुडाव सहज है।

स्थापित वरिष्ठ बलॉगर भी वर्षों से ब्लॉगिंग में है। प्रतिदिन के सम्पर्कों और अनुभव के आधार पर वे एक दूसरे को जानने समझने लगते है, ऐसे परिचित ब्लॉगर से सम्पर्क में निरंतरता बनना आम है। इसे भी हम गुट मान लेते है।

कोई भी व्यक्ति विचारधारा से पूर्णतया मुक्त नहीं होता, प्रत्येक ब्लॉगर की भी अपनी पूर्व निर्धारित विचारधारा होती है। सम्पर्क में आनेवाले दूसरे ब्लॉगर में जब वह उसी विचार को पाता है, तो उसके प्रति आकृषण होना सहज सामान्य है। ऐसे में निरंतर सम्वाद बनता है। समान विचारो पर समान प्रतिक्रिया देनेवालों को भी एक गुट मान लिया जाता है।

इस प्रकार के सहज सम्वाद प्रेरित सम्पर्को को यदि हम गुट कहें तब भी ऐसा गुट ध्रुवीकरण हो जाना प्राकृतिक है। जिस तरह मित्रता बनना सहज है उसी तरह कुदरती समूह का अस्तित्व में आना अवश्यंभावी है। यह वर्ग निर्माण की तरह भी हो सकता है। जैसे बौद्धिक अभिजात्य वर्ग, सामान्य वर्ग, सहज अभिव्यक्ति वर्ग। स्थापित ब्लॉगर, साधारण ब्लॉगर, संघर्षशील ब्लॉगर।

लेकिन इस तरह के ध्रुवीकरण से भय खाने की आवश्यकता नहीं। जैसे जैसे ब्लॉगिंग का विस्तार होता जायेगा, पाठक अपनी रूचि अनुसार पठन ढूंढेगा। विषयानुसार केटेगरी बनना तो निश्चित है। इस तरह के सारे गठबंधन, विचार विनिमय को भी आसान कर देते है जो हिन्दी ब्लॉग पाठकों  की सुविधा में अभिवृद्धि ही करेंगे। बस बात जब हिंदी ब्लॉग जगत के उत्थान और विकास की हो सभी गुट को एकजुट हो विकास में योगदान देना चाहिए।

इसलिये बस लिखते चलो………लिखते चलो………

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...