28 फ़रवरी 2011

इष्ट वियोग अनिष्ट योग में, सहनशीलता दिखलाएँ...


जिसने राग द्वेष सब जीते, और सर्वजग जान लिया।
सब जीवों को मोक्ष मार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया।
बुद्ध वीर जिन हरि हर ब्रह्मा, या उनको स्वाधीन कहो।
गुणानुवाद से प्रेरित होकर, सद् चित उन में लीन रहो॥

विषयों से निरपेक्ष है जो, साम्यभाव मन रखते है।
स्व-पर के हित साधन में जो निशदिन तत्पर रहते है।
स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या,बिना खेद जो करते है।
ऐसे ज्ञानी संत जगत् के, दुख समूह का हरते है॥

सदा रहे सत्संग गुणी का, गुणों पर मैं आसक्त रहूँ।
उनके जैसी चर्या में ही, आत्म-चित अनुरक्त रहूँ।
सताऊँ न किसी जीव को, झूठ कभी ना जिया करूँ।
परधन वनिता पर न लुभाऊँ, संतोषामृत पिया करूँ॥

अहंकार का भाव न रखूं, नहीं किसी पर क्रोध करूँ।
देख दूसरों की बढती को, कभी न ईर्ष्या द्वेष धरूँ।
रहे भावना ऐसी मेरी, सत्य सरल व्यवहार करूँ।
बने वहाँ तक इस जीवन में औरों का उपकार करूँ॥

मैत्री भाव जगत् में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे
दीन दुखी जीवों पर मेरे, उर से करूणा स्रोत बहे
दुर्जन क्रूर कुमार्ग रतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आए।
साम्यभाव रखूँ मैं उनपर, ऐसी परिणिति हो जाए॥

कोई बुरा कहे या अच्छा, लक्ष्मी आए या जाए।
सौ वर्ष जीऊँ या फिर, मृत्यु आज ही आ जाए।
अथवा कोई कैसा भी भय, या लालच देने आए।
किंचित न्यायमार्ग से मेरा, मन विचलित न हो पाए॥

होकर सुख में मग्न न फूलें, दुख में कभी न घबराएँ।
पर्वत नदी श्मशान भयानक, अटवी से न भय खाएँ।
रहें अडोल अकम्प निरंतर, यह मन दृढतर बन जाए।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग में, सहनशीलता दिखलाएँ॥

इति भीति न व्यापे जग में, सत्य धर्म बस हुआ करे।
धर्मनिष्ट बन राजतंत्र भी, न्याय प्रजा का किया करे।
महामारी दुर्भिक्ष न फैले, प्रजा शान्ति से जिया करे।
नैतिकता सहयोग सभी बस, देशोन्नति में दिया करे॥

सुखी रहे सब जीव जगत के, कोई कभी न घबरावे।
जिए कृतज्ञ होकर यह जीवन, प्रकृति द्रोह न उर आवे।
वैर पाप अभिमान छोड जग, नित्य नये मंगल गावे।
ज्ञान चरित्र उन्नत कर अपना, मनुष्य जन्म सफल पावे।।

23 फ़रवरी 2011

सोचविहारी और जडसुधारी का अलाव


     कस्बे में दो पडौसी थे, सोचविहारी और जडसुधारी, दोनो के घर एक दिवार से जुडे हुए,दोनो के घर के आगे बडा सा दालान। दोनो के बीच सम्वाद प्राय: काम आवश्यक संक्षिप्त सा होता था। बाकी बातें वे मन ही मन में सोच लिया करते थे।जाडे के दिन थे, आज रात उनकी अलाव तापने की इच्छा थी, दोनो ने लकडहारे से जलावन लकडी मंगा रखी थी।

     देर शाम ठंडी के बढते ही दोनों ने अपने अपने यहाँ अलाव जलाने की तैयारियाँ शुरू की। सोचविहारी लकडीयां चुननें लगे, लकडियां चुनने में सोचविहारी को ज्यादा समय लगाते देख जडसुधारी ने पुछा- इतना समय क्यों लगा रहे है। सोचविहारी नें कहा- लकडियां गीली भी है और सूखी भी, मैं सूखी ढूंढ रहा हूँ। जडसुधारी बोले-गीली हो या सूखी जलाना ही तो है, सूखी के साथ गीली भी जल जायेगी। सोचविहारी नें संक्षिप्त में समझाने का प्रयास किया- सूखी जरा आराम से जल जाती है।

     जडसुधारी नें तो अपने यहां, आनन फ़ानन में एक-मुस्त लकडियां लाई और नीचे सूखी घास का गुच्छा रखकर चिनगारी देते सोचने लगा- कैसे कैसे रूढ होते है, गीली लकडी में जान थोडे ही है जो छांटने बैठा है, सोचना क्या जब जलाने बैठे तो क्या गीली और क्या सूखी?लकडी बस लकडी ही तो है।

उधर सोचविहारी सूखी लकडी को चेताते सोचने लगा- अब इसे सारे कारण कम शब्दों में कैसे समझाउं गीली और सूखी साथ जलेगी तो ताप भी सही न देगी, भले कटी लकडी निर्जीव हो पर उसपर कीट आदि के आश्रय की सम्भावना है, मात्र थोडे परिश्रम के आलष्य में क्यों उन्हें जलाएं। और गीली जलेगी कम और धुंआ अधिक देगी। कैसे समझाएं, और समझाने गये तो समझ नाम से ही बिदक जायेगा। वह स्वयं को थोडे ही कम समझदार समझता है?

     दोनो के अलाव चेत चुके थे। सोचविहारी मध्यम उज्ज्वल अग्नी में आराम से अलाव तापने लगे, उधर जडसुधारी जी अग्नी में फूंके मार मार कर हांफ़ रहे थे, जरा सी आग लग रही थी पर बेतहासा धुंआ उठ रहा था। तापना तो दूर धुंए में बैठना दूभर था।

     जडसुधारी के अलाव का धुंआ, आनन्द से ताप रहे सोचविहारी के घर तक पहूंच रहा था और उन्हें भी परेशान विचलित किये दे रहा था। सोचविहारी चिल्लाए- मै न कहता था सूखी जलाओ…

     जडसुधारी को लगा कि यह सोचविहारी हावी होने का प्रयास कर रहे है। वे भी गुर्राए- समझते नहीं, सदियों की जमी ठंड है,गर्म होने में समय लगता है। सब्र और श्रम होना चाहिए। सब कुछ चुट्कियों में नहीं हो जाता। आग होगी तो धुंआ भी होगा। देखना देर सबेर अलाव अवश्य जलेगा। कहकर जडसुधारी, धुंए और सोचविहारी के प्रश्नों से दूर रज़ाई में जा दुबके।

प्रतीक:
  • सोचविहारी: परंपरा संस्कृति और विकास सुधार को सोच समझकर संतुलित कर चलने वाला व्यक्तित्व।
  • जडसुधारी: रूढि विकृति और संस्कृति को एक भाव नष्ट कर प्रगतिशील बनने वाला व्यक्तित्व।
  • अलाव: सभ्यता,विकास।
  • गीली लकडी: सुसंस्कृति, आस्थाएं।
  • सूखी लकडी: रूढियां, अंधविश्वास।
  • धुंआ : अपसंस्कृति का अंधकार

22 फ़रवरी 2011

जैसा अन्न वैसा मन, जैसा पाणी वैसी वाणी

एक साधु ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए जा रहे थे और एक गांव में प्रवेश करते ही शाम हो गई। ग्रामसीमा पर स्थित पहले ही घर में आश्रय मांगा,वहां एक पुरुष था जिसने रात्री विश्राम की अनुमति दे दी। और भोजन के लिये भी कहा। साधु भोजन कर बरामदे में पडी खाट पर सो गया। चौगान में गृहस्वामी का सुन्दर हृष्ट पुष्ट घोडा बंधा था। साधु सोते हुए उसे निहारने लगा। साधु के मन में दुर्विचार नें डेरा जमाया, ‘यदि यह घोडा मेरा हो जाय तो मेरा ग्रामानुग्राम विचरण सरल हो जाय’। वह सोचने लगा, जब गृहस्वामी सो जायेगा आधी रात को मैं घोडा लेकर चुपके से चल पडुंगा। गृहस्वामी को सोया जानकर साधु घोडा ले उडा।

कोई एक कोस जा कर पेड से घोडा बांधकर सो गया। प्रातः उठकर नित्यकर्म निपटाया और घोडे के पास आकर फ़िर उसके विचारों ने गति पकडी। ‘अरे! मैने यह क्या किया? एक साधु होकर मैने चोरी की? यह कुबुद्धि मुझे क्योंकर सुझी?’ उसने घोडा गृहस्वामी को वापस लौटाने का निश्चय किया और उल्टी दिशा में चल पडा।

उसी घर में पहूँच कर गृहस्वामी से क्षमा मांगी और घोडा लौटा दिया। साधु नें सोचा कल मैने इसके घर का अन्न खाया था, कहीं मेरी कुबुद्धि का कारण इस घर का अन्न तो नहीं, जिज्ञासा से उस गृहस्वामी को पूछा- 'आप काम क्या करते है,आपकी आजिविका क्या है?' अचकाते हुए गृहस्वामी नें, साधु जानकर सच्चाई बता दी- ‘महात्मा मैं चोर हूँ,और चोरी करके अपना जीवनयापन करता हूँ’। साधु का समाधान हो गया, चोरी से उपार्जित अन्न का आहार पेट में जाते ही उस के मन में कुबुद्धि पैदा हो गई थी। जो प्रातः नित्यकर्म में उस अन्न के निहार हो जाने पर ही सद्बुद्धि वापस लौटी।

नीति-अनीति से उपार्जित आहार का प्रभाव प्रत्यक्ष था।

जैसा अन्न वैसा मन!

10 फ़रवरी 2011

ब्लॉगिंग अनियमितता की सूचना


आदरणीय पाठक, ब्लॉगर बंधुओं और मित्रों,

पूरा फरवरी माह मैं अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों में व्यस्त हूँ। इस लिये पूरा माह मैं अपने ब्लॉग और ब्लॉग जगत को समय नहीं दे पाउंगा। इस बीच व्यवसाय से भी दूर ही रहूंगा।

इन व्यस्तताओं के चलते यदि आपके ब्लॉग पर मेरी अनुपस्थिति पाएँ तो अन्यथा न लें। यदि कुछ विशेष मेरे संज्ञान में लाना चाहें तो कृपया यहाँ टिप्पणी के माध्यम से लिंक दे दें। अवसर मिलते ही मैं उसे अवश्य पढना चाहूंगा।

यदि सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे मेल कर दें।

इतना अथाह प्रेम यहाँ मिलता है कि इतने न्यून समय के लिये भी ब्लॉगिंग से दूर रहना कष्टप्रद है। पर सामाजिक निर्वाह भी इतने ही आवश्यक है।

-हंसराज 'सुज्ञ'

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