30 मई 2011

दृष्टिकोण समन्वय


ब तक समन्वय का दृष्टिकोण विकसित नहीं होता तब तक विवादों से विराम नहीं मिलता। छोडना, प्राप्त करना और उपेक्षा करना इन तीनों के योग का नाम समन्वय है। मनुष्य यदि इन बातों का जीवन में समन्वय, समायोजन कर ले तो शान्तिपूर्ण जीवन जी सकता है।


यदि हम अनावश्यक विचारधारा छोड़ें, नए सम्यक् विचारों को स्वीकार करें और तथ्यहीन बातों की उपेक्षा करना सीख लें तो यथार्थ समन्वय हो जाता है उस दशा में न जाने कितने ही झगड़ों और विवादों से बचा जा सकता है।

  1.  निराग्रह विचार (अपने विचारों का आग्रह छोड दें)
  2.  सत्य तथ्य स्वीकार (श्रेष्ठ अनुकरणीय आत्मसात करें)
  3.  विवाद उपेक्षा ( विवाद पैदा करने वाली बातों की उपेक्षा करें)

    27 मई 2011

    कथ्य तो सत्य तथ्य है। बस पथ्य होना चाहिए-1


    चिंतन के चटकारे

    • साधारण मानव पगडंडी पर चलता है। असाधारण मानव जहाँ चलता है वहाँ पगडंडी बनती है।
    • पदार्थ त्याग का जितना महत्व नहीं है उससे कहीं अधिक पदार्थ के प्रति आसक्ति के त्याग का है। त्याग का सम्बंध वस्तुओं से नहीं बल्कि भावना से है।
    • इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग के समय मन में दुःस्थिति का पैदा होना सामान्य हैं। किन्तु मन बड़ा चंचल है। उस स्थिति में  चित्त स्थिर करने का चिंतन ही तो पुरूषार्थ कहलाता है।
    • मन के प्रति निर्मम बनकर ही समता की साधना सम्भव है।
    • सत्य समझ आ जाए और अहं न टूटे, यह तो हो ही नहीं सकता। यदि अहं पुष्ट हो रहा है तो निश्चित ही मानिए सत्य समझ नहीं आया।
    • किसी भी समाज के विचारों और चिंतन की ऊंचाई उस समाज की सांस्कृतिक गहराई से तय होती है।
    • विनयहीन ज्ञानी और विवेकहीन कर्ता, भले जग-विकास करले, अपने चरित्र का विकास नहीं कर पाते।
    • समाज में परिवर्तन ऊँची बातों से नहीं, किन्तु ऊँचे विचारों से आता है।
    • नैतिकता पालन में 'समय की बलिहारी' का बहाना प्रयुक्त करने वाले अन्ततः अपने चरित्र का विनाश करते है।

    25 मई 2011

    धर्म का उद्देश्य और जीवन


    र्म का उद्देश्य, केवल मानव को ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि को अक्षय सुख लब्ध करवाने का मार्ग प्रशस्त करना है। मानव के लिये जीवन के अनुकूल सुख भी एक पडाव मात्र है, लक्ष्य तो निश्चित ही शाश्वत सुख हैसभी जीना चाहते है मरना कोई नहीं चाहता। इसलिए जियो और जीने दो का सिद्धांत अस्तित्व में आया है। शान्ति से जीनें और अन्य को भी जीनें देने के उद्देश्य से ही सभ्यता और संस्कृति का विकास हासिल किया गया है। क्योंकि सभ्यता और संस्कार से हम भी आनंद पूर्वक जीते है, और अन्य सभी प्राणियों के लिए भी सहज आनंद के अवसर उपलब्ध करवाते है। यही है धर्म के उद्देश्य की सबसे सरल परिभाषा।

    इस उद्देश्य को प्रमाण वाक्य मानते हुए ही धर्म शास्त्रों की व्याख्याओं पर दृष्टिपात करना चाहिए। यदि किसी धर्मोपदेश की व्याख्या सभ्यता और संस्कार के विपरित जाती है तो वह सर्वांग मिथ्या व्याख्या है। जो व्याख्या सभ्यता से पतनोमुख करने का कारण बनकर, पुनः आदिम जंगली संस्कार की ओर प्रेरित करे तो धर्मोपदेश की वह व्याख्या निश्चित ही कुमार्ग लक्षी है। हमने युगों के निरंतर,  कठिन पुरूषार्थ और दुष्कर संघर्ष के परिणाम स्वरूप ही इस उच्च सभ्यता का संधान किया है। उसका मात्र भ्रांत धार्मिक व्याख्याओं से अद्यपतन  कैसे स्वीकार किया जा सकता है।

    उदाहरण के लिए, हमनें जंगली, क्रूर, विकृत खान-पान व्यवहार को आज शुद्ध, अहिंसक, सभ्य आहार से सुसंस्कृत कर लिया है। यहाँ सभ्यता मात्र स्वच्छ और पोषक आहार से ही अपेक्षित नहीं बल्कि अन्य जीवसृष्टि के जीवन अधिकार से सापेक्ष है। उसी तरह संस्कृति समस्त दृष्टिकोण सापेक्ष होती है। सभ्यता में सर्वांग प्रकृति का संरक्षण निहित होता है। अब पुनः विकृत खान-पान की ओर लौटना धर्म सम्मत कभी नहीं हो सकता।

    सभ्यता के विकास का अर्थ आधुनिक साधन विकास नहीं बल्कि सांस्कृतिक विकास है। ऐसे विकसित आधुनिक युग में यदि कोई अपनी आवश्यकताओं को मर्यादित कर, सादा रहन सहन की शैली अपनाता है और अपने भोग उपभोग को संयमित करता हुआ, पुरातन दृष्टिगोचर होता है तब यह आदिम परंपरा की ओर लौटना नहीं, बल्कि सभ्यता के सर्वोत्तम संस्कार के शिखर को छूना है। धार्मिक व्याख्याओं की वस्तुस्थिति पर इसी तरह विवेकशील चिंतन होना नितांत आवश्यक है।

    इस तरह विकृति धर्म में नहीं होती, सारा गडबडझाला उसके स्वछंद और प्रमादी व्याख्याकारों का किया धरा होता है। यदि हम उक्त ‘धर्म उद्देश्य’ को प्रमाण लेकर, विवेक बुद्धि से, नीर क्षीर विभाजन के साथ विश्लेषण करेंगे, हेय,गेय और उपादेय का अंतर-भेद करते हुए, उपादेय को ग्रहण करेंगे तभी सत्य के निकट पहूँच सकते है। और तभी हमारे उद्देश्य सिद्ध हो सकते है.

    23 मई 2011

    समता


    समता का अर्थ है मन की चंचलता को विश्राम, समान भाव को जाग्रत और दृष्टि को विकसित करें तो ‘मैं’ के सम्पूर्ण त्याग पर समभाव स्थिरता पाता है। समभाव जाग्रत होने का आशय है कि लाभ-हानि, यश-अपयश भी हमें प्रभावित न करे, क्योंकि कर्मविधान के अनुसार इस संसार के रंगमंच के यह विभिन्न परिवर्तनशील दृश्य है। हमें एक कलाकार की भांति विभिन्न भूमिकाओं को निभाना होता है। इन पर हमारा कोई भी नियंत्रण नहीं है। कलाकार को हर भूमिका का निर्वहन तटस्थ भाव से करना होता है। संसार के प्रति इस भाव की सच्ची साधना ही समता है।

    समता का पथ कभी भी सुगम नहीं होता, हमने सदैव इसे दुर्गम ही माना है। परन्तु क्या वास्तव में धैर्य और समता का पथ दुष्कर है? हमने एक बार किसी मानसिकता को विकसित कर लिया तो उसे बदलने में वक्त और श्रम लगता है। यदि किसी अच्छी वस्तु या व्यक्ति को हमने बुरा माननें की मानसिकता बना ली तो पुनः उसे अच्छा समझने की मानसिकता तैयार करने में समय लगता है। क्योंकि मन में एक विरोधाभास पैदा होता है,और प्रयत्नपूर्वक मन के विपरित जाकर ही हम अच्छी वस्तु को अच्छी समझ पाएंगे। तब हमें यथार्थ के दर्शन होंगे।

    जीवन में कईं बार ऐसे मौके आते है जब हमें किसी कार्य की जल्दी होती है और इसी जल्दबाजी और आवेश में अक्सर कार्य बिगड़ते हुए देखे है। फिर भी क्यों हम धैर्य और समता भाव को विकसित नहीं करते। कईं ऐसे प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे सामने उपस्थित होते है जब आवेश पर नियंत्रण, सपेक्ष चिंतन और विवेक मंथन से कार्य सुनियोजित सफल होते है और प्रमाणित होता है कि समता में ही श्रेष्ठता है।

    समता रस का पान सुखद होता है। समता जीवन की तपती हुई राहों में सघन छायादार वृक्ष है। जो ‘प्राप्त को पर्याप्त’ मानने लगता है, उसके स्वभाव में समता का गुण स्वतः स्फूरित होने लगता है। समता की साधना से सारे अन्तर्द्वन्द्व खत्म हो जाते है, क्लेश समाप्त हो जाते है। उसका समग्र चिंतन समता में एकात्म हो जाता है। चित्त में समाधि भाव आ जाता है।

    19 मई 2011

    छवि परिवर्तन प्रयोग


    क प्रयोग करने जा रहा हूँ। बस बैठे बैठे एक जिज्ञासा हो आई कि लोग मेरे बारे में क्या सोचते है? वे मुझे किस तरह पहचानते है? लोगों के मानस में मेरी छवि क्या बनी है? क्या अपनी छवि जो मैं मानता रहा हूँ? ऐसी ही निर्मित है या एकदम भिन्न? कितना अलग हो सकती है, स्वयंभू धारणा  और लोकदृष्टि ?

    औरों की नज़र से स्वयं के बारे में प्रतिभाव लेने की गज़ब की सुविधा इस ब्लॉगिंग में है। तो क्यों न ब्लॉग जगत में इस सुविधा का उपयोग किया जाय? अपने पाठक मित्रों ब्लॉग-मित्रों को आमंत्रित करूँ और जानकारी लूँ कि वे मुझे किस तरह पहचानते है। उनकी दृष्टि में मेरी छवि क्या है? क्या वह यथार्थ बिंब है या आभासी दुनिया में आभासी ही व्यक्तित्व। यदि कुछ नकारात्मक पता चले तो क्यों न छवि को सकारात्मक बनाने का प्रयोग किया जाय?

    सभी ब्लॉगर, पाठक बंधु अथवा यत्र तत्र टिप्पणीयों से मुझे जानने वाले पाठक कृपा करके अपने प्रतिभाव अवश्य दें। आज बिना लाग लपेट के, प्रोत्साहन में अपने अहं को आडे लाकर, प्रसंशा में पूरी क्षमता से कंजूसी करते हुए,  निश्छल टिप्पणी करें। वे पाठक भी आज तो टिप्पणी अवश्य करे जो मात्र पढकर खिसक जाया करते है। आज आलेख को नहीं, मुझे टिप्पणियों की दरकार है। क्यों कि इसका मेरे व्यक्तित्व से सरोकार है। मेरे विचार मेरे व्यक्तित्व को कैसा आकार देते है।

    आभासी दुनिया में बना बिंब, बालू शिल्पाकृति सम होगा, जिसमें परिवर्तन सम्भव है।

    बेताल के शब्दों में कहुँ तो मेरी छवि के बारे में थोडा भी जानते हुए यदि लेख-पाठक मौन रहे तो उनका सिर मेरे ही विचारों से भारी होकर दर्दनिवारक गोली की शरण को प्राप्त होगा।

    तो फटाफट टिप्पणी करिए कि क्या है आपकी नज़र में मेरी छवि?

    18 मई 2011

    आप क्या कहते हैं, धर्म लड़वाता है?


    यदि धर्म नहीं होता तो ये झगडे नहीं होते और मनुष्य शान्ति और प्रेम पूर्वक रहते। सारे झगड़ों की जड़ यह धर्म ही है और कोई नहीं। इसे ही पोषित करने में सारे संसाधन व्यय होते है, अन्यथा इन्सान आनंद और मौज में जीवन बिताए। लोग अक्सर ऐसा कहते पाए जाते है।

    जबकि धर्म तो शान्ति, समता, सरलता और सहनशीलता आदि सद्गुणों की शिक्षा देता है। धर्म लड़ाई झगडे करना नहीं सिखाता। फ़िर धार्मिकजनों में यह लड़ाई झगड़े और ईर्ष्या द्वेष क्यो? वास्तव में जो सच्चा धर्म होगा वह कभी भी लड़ाई-झगड़े नहीं कराएगा। जो मनुष्य मनुष्य में वैर-विरोध कराए, वह धर्म नहीं हो सकता। यह स्वीकार करते हुए भी उपरोक्त विचार समुचित नहीं लगता। कुछ ऐसे ‘धर्म’ नामधारी मत है जो विपक्षी से लड़ना, युद्ध करना, पशु-हत्या करना, ईश्वर की राह में लड़ने को प्रेरित करना आदि का विधान करते है किन्तु यहाँ हम उन पंथो की बात नहीं करते। क्योंकि उनका आत्म विशुद्धि से कुछ भी लेना देना नहीं है, उनका लक्ष्य भौतिकवाद है। वे तो राज्य, सम्पत्ति, अधिकार, अहंपूर्ति, भोगसाधन की प्राप्ति, उसकी रक्षा एवं वृद्धि की कामना लिए हुए है। मिथ्या मतों में अज्ञान ही प्रमुख कारण है। ऐसे मत दूसरे संयत धर्मानुयायीओं में भी विद्वेष फैलाने का कार्य करते है।

    फिर आत्म शुद्धि और सद्भाव धर्म वाले अनुयायी आपस में लड़ते झगड़ते क्यों है प्रश्न उठना स्वाभाविक है। यदि चिंतन किया जाय, तो स्पष्ठ ज्ञात होता है कि सभी झगड़े धर्म के कारण नहीं, बल्कि स्वयं मानव मन में रहे हुए कषाय कलुष एवं अहंकार के निमित होते है। वे धर्म को तो मात्र अपनी अहं-तुष्टि में हथियार बनाते है। उन्हें तो बस कारण बनाना है। यदि धर्म न होता तो वे और किसी अन्य पहचान प्रतिष्ठा को कारण बना देते। वैसे भी राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक कारण से झगडे होते ही है। पर उन्हें संज्ञावाची बदनामी नहीं मिलती। संसार में करोड़ों कम्युनिस्ट, धर्म-निरपेक्ष, नास्तिक आदि हैं। क्या उनमें झगड़े नहीं होते? धर्म की अनुपस्थिति में भी वहां झगड़े क्यों? अधर्मी कम्युनिस्टों की ध्येय प्राप्ति का तो साधन ही हिंसा है। यदि उनके जीवन में धर्म का स्थान होता, तो वे हिंसा को आवश्यक साधन न मानते। यही कलुषित इरादों वाले अधर्मी-त्रय, धर्म को निशाना बनाकर अपना हित साधते है। क्योंकि उनके लिए निज स्वार्थ सर्वोपरी है, नीतिमान बने रहना उनके लिए धार्मिक बंधन है, रास्ते का कांटा है। ऐसे में जब इन्हें दिखावटी धार्मिक अहंकारी मिल जाते है, धर्म को निंदित कर उसे रास्ते से हटाने का इनका प्रयोजन सफल हो जाता है।

    अतः इन सभी झगड़ों का मूल कारण मनुष्यों की अपनी मलीन वृति है। कोई किसी को नीचा दिखाने के लिए तो कोई अपनी इज्जत बचाने के लिए। कोई किसी की प्रतिष्ठा से जलकर जाल बुनता है तो कोई इस जालसाज़ी का आक्रमक प्रत्युत्तर देता है। कोई किसी का हक़ हड़पने को तत्पर होता है तो कोई उसे सबक़ सिखाने को आवेशित। अपने इन्ही दुर्गुणों के कारण लड़ता मानव, सद्गुणों की सीख देने वाले धर्म को ही आरोपित करता है। और अन्य साधारण से करवाता भी है।

    धर्म एक ज्ञान है, कोई चेतन नहीं कि मानव को जबदस्ती पकड कर उनके दुर्गुणों, कषाय-कलुषिता को दूर कर दे और उनमें सद्गुण भर दे। या फिर आकर सफाई दे कि मानवीय लड़ाई में मेरा किंचित भी दोष नहीं।

    आप क्या कहते हैं, धर्म लड़वाता है?

    16 मई 2011

    विनम्रता


    विनम्रता आपके आंतरिक प्रेम की शक्ति से आती है। दूसरों को सहयोग व सहायता का भाव ही आपको विनम्र बनाता है। यह कहना गलत है कि यदि आप विनम्र बनेंगे तो दूसरे आपका अनुचित लाभ उठाएँगे। जबकि यथार्थ स्वरूप में विनम्रता आपमें गज़ब का धैर्य पैदा करती है। आपमे सोचने समझने की क्षमता का विकास करती है। विनम्र व्यक्तित्व का एक प्रचंड आभामंडल होता है। धूर्तो के मनोबल उस आभा से स्वयं परास्त हो जाते है। उल्टे जो विमम्र नहीं होते वे आसानी से प्रभावित हो जाते है क्योंकि धूर्त को तो मात्र मीठी बातों से उसका अहं सहलाना भर होता है। अहंकार यहाँ परास्त हो जाता है। किन्तु जहाँ विनम्रता होती है वहाँ तो सत्य की अथाह शक्ति भी होती है, जो मनोबल प्रदान करती है।

    विनम्रता के प्रति समर्पित आस्था जरूरी है। मात्र दिखावे की विनम्रता असफ़ल ही होती है। ‘पहले विन्रमता से निवेदन करूंगा यदि काम न हुआ तो भृकुटि टेढी करूंगा’ यह चतुरता विनम्रता के प्रति अनास्था है, छिपा हुआ अहं भी है। कार्य पूर्व ही अविश्वास व अहं का मिश्रण असफलता ही न्योतता है। सम्यक् विनम्र व्यक्ति, विनम्रता को झुकने के भावार्थ में नहीं लेता। सच्चाई उसका पथप्रदर्शन करती है। निश्छलता उसे दृढ व्यक्तित्व प्रदान करती है।

    अहंकार आपसे दूसरों की आलोचना करवाता है। वह आपको आलोचना-प्रतिआलोचना के एक प्रतिशोध जाल में फंसाता है। अहंकार आपकी बुद्धि को कुंठित कर देता है। आपके जिम्मेदार व्यक्तित्व को संदेहयुक्त बना देता है। अहंकारी दूसरों की मुश्किलों के लिए उन्हें ही जिम्मेवार कहता है और उनकी गलतियों पर हंसता है। अपनी मुश्किलो के लिए सदैव दूसरों को जवाबदार ठहराता है और लोगों से द्वेष रखता है।

    विनम्रता हृदय को विशाल, स्वच्छ और ईमानदार बनाती है। यह आपको सहज सम्बंध स्थापित करने के योग्य बनाती है। विनम्रता न केवल दूसरों का दिल जीतने में कामयाब होती है अपितु आपको अपना ही दिल जीतने के योग्य बना देती है। आपके आत्म-गौरव और आत्म-बल में उर्ज़ा का अनवरत संचार करती है। आपकी भावनाओं के द्वन्द समाप्त हो जाते है, साथ ही व्याकुलता और कठिनाइयां स्वतः दूर होती चली जाती है। एक मात्र विनम्रता से सन्तुष्टि, प्रेम, और साकारात्मकता आपके व्यक्तित्व के स्थायी गुण बन जाते है।

    4 मई 2011

    जीवन का लक्ष्य


    जो मनुष्य, 'जीव' (आत्मा) के अस्तित्व को मानता है, उसी के लिए जीवन के लक्ष्य को खोजने की बात पैदा होती है। जो मनुष्य जीव के अस्तित्व को नहीं मानता या मात्र इस भव (मनुष्य जीवन) जितना ही इस जीवन को मानता है तो उसके लिए कमाना, खाना और मज़े करना ( जैसे : Eat, Drink and be merry) यह बाह्य बातें ही जीवन लक्ष्य होती है। अगर चिंतक नास्तिक हुआ तो कला, साहित्य, संगीत, सिनेमा आदि को भी अपने जीवन का लक्ष्य मान सकता है। किन्तु यह उच्च श्रेणी के नैतिकता सम्पन्न नास्तिक के विषय में ही समझना चाहिए।
     
    इसी प्रकार जिन जीवों को कुछ भी तत्व जिज्ञासा नहीं है, वे जीव भी बाहर के लक्ष्य में ही खो जाते है। ऐसे जीव बहिरात्मा है। वे स्थूल लक्ष्यों को ही अपने जीवन का लक्ष्य समझते है। परन्तु जिसे जीव के त्रैकालिक अस्तित्व में विश्वास है, वह तो चिंतन के माध्यम से ही अपने जीवन लक्ष्य का निर्धारण करता है।

    वह सोचता है कि सामान्य मनुष्य जैसे- खाने,पीने और मज़े करने में अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं, क्या मुझे भी वैसे ही जीवन व्यतीत कर देना है? – ऐसा जीवन तो मात्र मृत्यु के लक्ष्य से ही जीया जाता है। 'जन्म लेना और भोग-भाग कर मर जाना' तो मेरे जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता। अथवा मात्र मरने के बाद नाम अमर रखने की इच्छा तो जीवन- लक्ष्य नहीं हो सकता, क्योंकि उस नाम-अमरता का मरने के बाद आत्मा को कोई फर्क पड़ना नहीं है। कोई लाभ मिलना नहीं है।

    सोचना पडेगा कि जन्म और मृत्यु के मध्य की अवधि, किसी विशिष्ठ पुरूषार्थ के प्रयोजनार्थ है। इसलिए मेरे जीवन का कोई ऐसा उत्तम लक्ष्य अवश्य होना चाहिए, जिससे मेरा जीवन सार्थक हो। इस चिंतन के साथ, जब वह ज्ञानियों के वचनों के बल से, अपने जीवन लक्ष्य को खोजता है, तो वह निर्णय करता है कि मेरी आत्मा की शक्तियों का चरम और परम विकास ही मेरे जीवन का लक्ष्य है

    हमारे इस विकास में मुख्य बाधक है- हमारे विकार। अतः हमें दो उपचार साधनो को अपनाना होगा। पहला साधन है- विकारों का विराम। और दूसरा साधन है- आत्मगुणों के समरूप भावों का आराधन। विकारों पर विराम हेतू 'व्रत-नियम-संयम' है और आत्मा के सद्गुणों में उत्थान हेतू 'ज्ञान-दर्शन-चरित्र' का आराधन है। इसी से मोक्ष रूप लक्ष्य की सिद्धि होती है। वही सत्-चित-आनंद अवस्था होगी। यही परम लक्ष्य है।

    2 मई 2011

    ईश्वर सबके अपने अपने रहने दो


    ब सभा भवन में ईश्वर पर परिचर्चा हो रही थी। बाहर से तेज नारों की आवाजें आ रही थी। ‘धर्म के नाम लडना बंद करो’ 'भगवान के नाम पर खून बहाना बँद करो' आदि। सभा खत्म होने पर बाहर देखा काफ़ी लोग थे। ‘दुर्बोध दासा’ सहित ‘निर्बोध नास्ति’, ‘मनमौजी राम’, ‘उच्छ्रंखला देवी’, 'आजादख्याली', 'मस्तमलंग खान' आदि आग बरसा रहे थी। उन्हें प्यार से समझाया कि यहां मात्र ईश्वर पर बात परिचर्चा हो रही है, कोई लडाई-झगडा नहीं है। किन्तु वे सब आरोप के मूड मेँ थे शीघ्र ही बहस पर उतर आए। अपने आप को सेक्यूलर कह रहे थे, कह रहे थे, यद्पि हमें किसी के धर्म से कोई मतलब नहीं है। तथापि जहाँ धर्म की बात होगी हमारी टांग बीच में स्थापित रहेगी ही, यह समझ बना के चलो। हम सभी धर्मों में आपसी शान्ति लानेवाले लोग है। श्रमजीवियोँ के सलाहकार है अपने लिए श्रम की सम्भावनाएँ भी हम ही पैदा करते है हम अपने ही प्रयासों से अपने लिए काम तैयार कर ही लेते है। और उसके बाद हमारा काम होता है समाधान समझे?

    कहीं सभा फ़्लॉप होने की न्यूज न फैल जाय, मैने उन्हें आदर से अन्दर बुलाया और अपनी बात रखने को कहा।

    पहले से ही बिफरा दुर्बोध दासा फट पड़ा- ‘ईश्वर है ही नहीं, क्यों तुम लोगो को अन्धविश्वासी बनाने पर तुले हो?’

    मै- मैं कहाँ ईश्वर थोप रहा हूँ, यहां पहले से ही सभी ईश्वर मानने वाले लोग है। यह उनकी अपनी मर्जी, अपने ईश्वर पर बात करे, आपको क्या?

    मस्तमलंग खान- तुमनें जरूर दूसरो के रहन-सहन, खान-पान पर व्यंग्य किया होगा, मुझे मालूम है।

    मैं- किन्तु, रहन-सहन, खान-पान हमारा आज का विषय नहीं था, खान!

    निर्बोध नास्ति बोला- सबके अपने अपने ईश्वर है, उन्हें अपने अपने सेपरेट ही रहने दो…, आप क्योँ मिक्सअप करते हो

    मैं- नहीं! कुल मिलाकर सभी के एक 'ईश्वर' है।

    मनमौजी चिल्लाया- नही हमारे पूर्वजो ने बडी महनत से विभाजित किया था तुमने शोषको के ईश्वर को श्रेष्ठ बताया होगा, और किसी बेचारे गरीब के ईश्वर को तुच्छ कहा होगा।

    मैं- जब वह एक है, तो उसका एकत्व अपने आप मेँ श्रेष्ठ है।

    मनमौजी कुछ याद करते हुए पुनः भडका- तो उनकी किताबों को छोटा बड़ा बताया होगा?

    मैं- किताबें तो सबके अपनी क्षमता अनुसार् बालबोध से लेकर डॉक्टरेट (पाण्डित्य) तक अलग अलग श्रेणी की होती ही है, उसमें निम्न उच्च कहने मेँ बुरा क्या है?

    मनमौजी को जैसे लू प्वॉईंट मिल गया- तुम लोग कुछ तो उँच-नीच करोगे ही, सीधे बैठ ही नहीं सकते। किसनें तुम्हें हक दिया कि किसी की निम्न छोटी बताओ?, जरा बतलाओ तो आपने किसकी निम्न बतायी। उस ग्रुप को सहानुभुति देना जरूरी है, उन बेचारो को भड़काना निताँत ही आवश्यक है।

    मैने देखा इसतरह तो ये लोग किसी भी हद तक जाकर बात बिगाड लेंगे। अब जवाब की जगह, इन्हें ही प्रश्न में घेरते हैं।

    मैनें कहा- आप लोग सेक्यूलर है, अधर्मी है धर्म से आपहा क्या वास्ता? धर्म को मानने वाले उसका चाहे जो करे, आप क्योँ दुखी होते है?

    आजादख्याली टपका- 'अधर्मी क्यों? धर्म हमारा व्यक्तिगत मामला है, हमारी एक टांग व्यक्तिगत मेँ भी,और एक ऐसी सामाजिक धार्मिक भीड मेँ भी रहेगी। समाज की 'सामुहिक सज्जनता' से हमें कुछ भी लेना देना नहीं है। किंतु निरपेक्ष होने का यह मतलब थोडे ही है कि कोने में जाकर मौन खडे रहेंगे? टांग अडाने का हमारा कर्तव्य है हमारी अभिलाषा रहती है। हमारी नल-नाली सँस्कृति है. अन्याय महसुस करवाना हमारा फर्ज है हमेँ बताना होता है कि 'देख! उसने, तेरे धर्म को उन्नीस कहा।' वर्ना वे बेचारे भोले लोग, कहां उँच-नीच को समझ पाते है। उन्हें हम ही सिखाते-पढाते है तब जाकर उन्हे समझ मेँ आता है कि "धर्म आपस में लड़ाता है"।'

    मैने पुछा- आपको धर्मों से किस जन्म की दुश्मनी है?

    अब मनमौजी ने कमान सम्हाली- 'यह धर्म नामक अफीम वास्तव मेँ हमारा दमन करता है, हमें अपने मन की करने ही नहीं  देता। क्या क्या सपने संजोते है हम कि बस निरंकुश आंधी की तरह बहे, जब जो मन में आया करे, बिन्दास। धर्म तो अक्सर, सज्जनता सभ्यता और संस्कृति का ढोल पीटता रहता है। जरा देखो!- जंगल में पशु कैसे स्वेच्छा विचरण करते है। कोई बंधन नहीं, कोई अनुशासन नहीं। हम भी ऐसे ही स्वछंद विचरना चाहते है। तुम धर्म के चोखिले लोग सफाई ठोकने लगते हो। जब तब धर्म आदर्श जीवन के गुणगान शुरू कर देते हो। इन उपदेशोँ से हमेँ ग्लानी होती है, हमारी तो सारी मन ही मन में रह जाती है। यहाँ कोई भी व्यक्ति आदर्श नहीं होना चाहिए, सभी का समान अध्यःपतन होना चाहिए। साम्य-पतन। जब सभी पतन के निम्न धरातल पर एकसम होंगे तो किसी को भी अपराध-बोध न होगा, यही हमारा लक्ष्य है। 'यह मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे संयत रहना है', ऐसी अनुशासन की बेडियां, यह धर्म ही डालता है। हमें नफरत है संयम से। हमें तो सुनामी की तरह आजादी चाहिए। पता नहीं किसके लिये खाद्य बचाना है, व्रत का महिमामंडन कर कर के, धर्म हमें भूखा मारता है। हमें अनवरत और अबाध चरना है। हमें तो इच्छा के आगे उदर पूर्णता का अवरोध भी मंजूर नहीं'

    आजादख्याली नें हां में हां मिलायी- यह धर्म तो हमारे आवेगों और हमारी तृष्णाओं पर लगाम कसता है यह हमारे लोभ लालच का शोषण है।

    भय से मैं अन्दर तक कांप उठा, क्या आनेवाली पीढी, श्रेष्ठ सुविधाओं के बीच भी जंगली समान जीवन जिएगी?

    इतने में सभागार में रिपोर्टर धुस आए, मनमौजी उसे इंटरव्यूह दे रहे थे- हमनें सभी पक्षों को बडे परिश्रम से मना लिया है, हम पर पूर्ण विश्वास के साथ, सभी नें अपने हथियार डाल दिए है। और यहाँ हमनें शान्ति और सौहार्द कायम कर दिया है।

    टीवी का कैमरा हमारे पर केन्द्रित हो, उसके पूर्व ही हमारा खिसक जाना ही बेहतर था, हम तो सटक लिए।

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