10 जून 2011

दुर्गम पथ सदाचार


युग चाहे कोई भी हो, सदैव जीवन-मूल्य ही इन्सान को सभ्य और सुसंस्कृत बनाते है।  जीवन मूल्य ही हमें प्राणी से इन्सान बनाते है। नैतिक जीवन मूल्य ही शान्त और संतुष्ट से जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त करते है। किन्तु हमारे जीवन में बरसों के जमे जमाए उटपटांग आचार विचार के कारण, जीवन में सार्थक जीवन मूल्यो को स्थापित करना अत्यंत कष्टकर होता है।

हमारे आचार विचार इतने सुविधाभोगी हो चले है कि आचारों में विकार भी सहज सामान्य ग्राह्य हो गए है। सदाचार धारण करना कठिन ही नहीं, दुष्कर प्रतीत होता है। तब हम घोषणा ही कर देते है कि साधारण से जीवन में ऐसे सत्कर्मों को अपनाना असम्भव है। और फिर शुरू हो जाते है हमारे बहाने
आज के कलयुग में भला यह सम्भव है?’ या तब तो फिर जीना ही छोड दें?’आज कौन है जो यह सब निभा सकता है?’, ऐसे आदर्श सदाचारों को अंगीकार कर कोई जिन्दा ही नहीं रह सकता। वगैरह …

ऐसी दशा में कोई सदाचारी मिल भी जाय तो हमारे मन में संशय ही उत्पन्न होता है, आज के जमाने में ऐसा कोई हो ही नहीं सकता, शायद यह दिखावा मात्र है। यदि उस संशय का समाधान भी हो जाय, और किसी सदाचारी से मिलना भी हो जाय तब भी उसे संदिग्ध साबित करने का हमारा प्रयास और भी प्रबल हो जाता है। हम अपनी बुराईयों को सदैव ढककर ही रखना चाहते है। जो थोड़ी सी अच्छाईयां हो तो उसे तिल का ताड़ बनाकर प्रस्तुत करते है। किसी अन्य में हमें हमसे अधिक अच्छाईयां बर्दास्त नहीं होती और हम उसे झूठा करार दे देते है।

बुराईयां ढलान का मार्ग होती है जबकि अच्छाईयां चढाई का कठिन मार्ग। इसलिए बुराई की तरफ ढल जाना सहज, सरल और आसान होता है जबकि अच्छाई की तरफ बढना अति कठिन और श्रमयुक्त पुरूषार्थ

मुश्किल यह है कि अच्छा कहलाने का यश सभी लेना चाहते है, पर जब कठिन श्रम और बलिदान की बात आती है तो हम मुफ्त श्रेय का शोर्ट-कट ढूँढते है। किन्तु सदाचार और गुणवर्धन के श्रम व त्याग का कोई शोर्ट-कट विकल्प नहीं होता। यही वह कारण हैं जब हमारे सम्मुख सद्विचार आते है तो अतिशय लुभावने प्रतीत होने के उपरान्त भी सहसा मुंह से निकल पडता है इस पर चलना बड़ा कठिन है

यह हमारे सुविधाभोगी मानस की ही प्रतिक्रिया होती है। हम कठिन, कष्टकर, त्यागमय प्रक्रिया से गुजरना नहीं चाहते। भले मानव में आत्मविश्वास और मनोबल  की अनंत शक्तियां विद्यमान होती है। प्रमाद वश हम उसका उपयोग नहीं करते। जबकि जरूरत मात्र जीवन-मूल्यों को स्वीकार करने के लि इस मन को सजग रखने भर की होती है। मनोबल यदि एकबार जग गया तो कैसे भी दुष्कर गुण हो अंगीकार करना सरल ही नहीं, मजेदार भी बनता चला जाता है। 

यदि एक बार सदाचारों उपजे शान्त जीवन का चस्का लग जाय, सारी कठिनाईयां परिवर्तित होकर हमारे ज्वलंत मनोरथ में तब्दिल हो जाती है। फिर तो यह शान्ति और संतुष्टि, उत्तरोत्तर उत्कृष्ट उँचाई सर करने की मानसिक उर्ज़ा देती रहती है। जैसे एड्वेन्चर का रोमांच हमें दुर्गम रास्ते और शिखर तक सर करवा देता है, यह मनोवृति हमें प्रतिकूलता में भी अपार आनन्द प्रदान करती है। जब ऐसे मनोरथ इष्ट बन जाए तो सद्गुण अंगीकार कर जीवन को मूल्यवान बनाना कोई असम्भव कार्य नहीं है। 

36 टिप्‍पणियां:

  1. सच है .....पूरे मन से प्रयास किया जाय तो ......

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  2. बहुत ही बढ़िया लेख है |जीवन की दिशा हमारे ही हाथ में है ..!!जैसा चाहें मोड़ लें...!!
    आपका आभार इस लेख के लिए ...!!

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  3. मंजिल के लघु पथ कटान में
    जीवन के सब सार बह गये

    हम नदिया की धार बह गये

    ...सुंदर आलेख।

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  4. क्या बात है, आपका एक एक शब्द सार्थक होता है और बड़ी उच्च दर्जे की सीख देता है. यदि हम थोड़ा भी ग्रहण कर सकें तो जीवन में आनन्द आ जाये..

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  5. I agree with you
    there is no doubt that a human can come out of any situation, or can do any thing if he/she wants.

    but due to excessive dependence on machines we have become lazy and bag of excuses. True.

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  6. वर्तमान परिवेश में नैतिक मूल्यों की ही आवश्यकता है. आपकी कलम से उपजी फसल हर किसी तक पहुंचना ही चाहिए. नव -युग निर्माण के लिए ऐसे लेख अनिवार्य हैं .

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  7. बहुत ही बढ़िया शिक्षाप्रद आलेख है,
    साभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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  8. बुराईयां ढलान का मार्ग होती है जबकि अच्छाईयां चढाई का कठिन मार्ग।
    bahut sahi bat kahi hai.

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  9. बहुत ही सार्थक आलेख है। एक एक शब्द हीरे-मोती के समान बहुमूल्य हैं । व्यक्ति ढलान की ओर शीघ्रता से बढ़ जाता है। अच्छाई का मार्ग कठिन है। सत्य वचन । हमें इसी कोशिश में रहना चाहिए की हम अच्छाइयों को ग्रहण कर सकें और ढलान की ओर ले जाने वाले वाले मार्ग का लोभ संवरण कर सकें।

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  10. सुज्ञ जी, बुरा न मानें तो कहूं कि जैसा आपने लिखा, जीवन उंच-नीच से बना हुआ है एक दम सत्य है... यह हम सब अपने निजी जीवन में हुए अनुभवों के आधार पर भी जानते हैं... और जल के माध्यम से भी हम देखते हैं/ देख सकते हैं कैसे एक फव्वारे से दबाव के कारण निकलती जल की अनंत बूँदें पहले अनेक धाराओं में ऊपर जाती है, एक उच्चतम स्तर पर पहुँच, पलट कर, चारों ओर से नीचे आने लग पड़ती है, जैसे ऊपर फेंका गया मिटटी का बना ठोस पत्थर भी करता है और क्रिकेट की गेंद भी - हमारी पृथ्वी के अनदेखे गुरुत्वाकर्षण के कारण!...
    प्रश्न उठता है प्राचीन ज्ञानी क्यूँ मानव को मिटटी का पुतला कह गए, केवल पृथ्वी से ही नहीं बना किन्तु, शायद प्रकृति में व्याप्त विविधता दर्शाने के कारण, नौ ग्रहों के सार से बना ?
    द्वैतवाद के कारण और अज्ञानता वश ' हम' सत्य क्या है नहीं जानते, नहीं जानते मानव जीवन का अर्थ क्या है और क्या हम यहाँ किसी अन्य (अदृश्य) जीव के स्वार्थ में आये हैं, या निज स्वार्थ में (अधिक से अधिक 'रोटी, कपड़ा, मकान आदि' पाने, और 'काला धन' पाने के चक्कर में) ?
    किन्तु ' हम' सब जानते हैं कि कितना भी जोर लगालें इस लगभग साढ़े चार अरब वर्ष जवान पृथ्वी पर हम रो रो कर भी १०० +/- वर्ष ही जी पायेंगे...और सोचने वाली बात (आज प्रकृति द्वारा किये गए संकेतों के आधार पर) है कि क्या हम काल-चक्र पर आधारित हिमयुग को रोक पायेंगे?
    तुलसीदास जी जीवन का सार इन शब्दों में क्यूँ कह गए, "जाकी रही भावना जैसी/ प्रभु मूरत तिन देखि तैसी" ?

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  11. मानव जीवन की मूर्खताओं का अच्छा उल्लेख किया है आपने ! मगर अपनी भूल या बेवकूफियां हम मानते क्यों नहीं ...यह प्रश्न अनुत्तरित है...
    एक बढ़िया लेख के लिए आपका आभार !

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  12. सार्थक चिन्तन। हम अनजाने ही ढलान की ओर लुढक जाते हैं अगर कुछ पल किनारे पर रह कर सोचें तो शायद ऊँचाइयों को भी देख सकें\ शुभकामनायें।

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  13. आभार
    आभार आपका
    सत्य, मानव जीवन का अर्थ

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  14. जो लोग यह कहते हैं कि आज के युग में सम्‍भव नहीं है, वे असत्‍य बोलकर खुद को ही धोखा दे रहे हैं। हमारा जीवन आज के पचास वर्ष की तुलना में अधिक सहज और आसान हुआ है। पहले हम गुलाम थे, कभी राजाशाही थी, परिवार और समाज के प्रतिबंध थे इसलिए कुछ मजबूरी हो सकती थी लेकिन आज हम चाहे जो निर्णय अपने बारे में ले सकते हैं। ऐसे लोगों को यह कहना चाहिए कि हम सुविधा भोगी हो गए हैं इसलिए इन्‍हें पाने के लिए हम सब कुछ करेंगे। आपने अच्‍छा आलेख लिखा है इसके लिए बधाई।

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  15. सार्थक चिंतन ... धैर्य और सतत प्रयाससे बहुत कुछ होता है ....
    आपको बात से सहमत हूँ ....

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  16. ‘इस पर चलना बड़ा कठिन है’। - यह हमारे सुविधाभोगी मानस की ही प्रतिक्रिया है। - सूक्ति सम
    @ एक-एक वाक्य सूत्रवाक्य बन पड़ा है. पूरे का पूरा आलेख एक उत्तम प्रवचन भी है.

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  17. बेहद सार्थक चिन्तन्।

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  18. अरे वाह भाई...बेहद सुन्दर शब्दों के साथ प्रस्तुति...
    आपसे पूर्णत: सहमती...
    बुराईयां ढलान का मार्ग होती है जबकि अच्छाईयां चढाई का कठिन मार्ग। इसलिए बुराई की तरफ ढल जाना सहज सरल आसान होता है जबकि अच्छाई की तरफ बढना अति कठिन श्रमयुक्त पुरूषार्थ।
    उपरोक्त पंक्ति आलेख का श्रेष्ठ भाग है...

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  19. @ Er. Diwas Dinesh Gaur जी, क्षमा प्रार्थी हूँ कहते कि बुराई कहें या भलाई अनुमान कीजिये क्या होता यदि सागर जल ऊपर 'भलाई के मार्ग में' जा, बादल बन, 'बुराई के मार्ग' पर यानि नीचे आता ही नहीं, (जैसे अंतरिक्ष यान पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र को पार कर जाता है), त्रिशंकु समान शून्य में ही लटक जाता ?

    यह हर 'आधुनिक सत्यान्वेषी' अर्थात 'वैज्ञानिक'/ 'विज्ञानं का विद्यार्थी' आज जानता है कि जहां तक भारत का प्रश्न है, पंचतत्वों के मिले-जुले प्रयास से सूर्य (देवताओं के राजा इन्द्र !) यानि अग्नि अथवा ऊर्जा के स्रोत द्वारा अरब सागर का जल, (मूल रूप से सातों महासागर का मानव के लिए 'विषैला', किन्तु अनंत जलचरों के लिए प्राणदायी जल, जो हिन्दू मान्यतानुसार 'वरुण देवता', यानि 'विष्णु'? के नियंत्रण में है), वाष्प में परिवर्तित हो, और गर्म/ ठन्डी वायु की प्रकृति के कारण, प्रतिवर्ष दक्षिण-पश्चिमी मॉनसून के रूप में उत्तर में स्थित पृथ्वी के एक ऊंचे बाँध समान हिमालयी श्रंखला की ओर अग्रसर हो जाता है... और पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के कारण शुद्ध जल 'भारत' भूमि पर उस पर आधारित प्राणियों के जीवन-दायी वर्षा जल के रूप में प्रति वर्ष टपकता आ रहा है, यद्यपि अंततोगत्वा फिर से सागर जल में मिलने के उद्देश्य से नीचे की ओर बह,,,
    यह जल-चक्र अनादि काल से हिमालय की, भूमि की कोख से ही जन्म ले, 'जम्बुद्वीप' के उत्तर में स्थित सागर को दक्षिण दिशा में स्थित सागर की ओर धकेल...

    प्राचीन ज्ञानियों ने जाना की 'पंचतत्व' अथवा 'पंचभूत' आवश्यक हैं किसी भी साकार रूप की बनावट में, और किसी भी साकार पिंड के मध्य में केन्द्रित गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर निर्भर करता है उस पिंड का जीवन काल... और सीमित काल तक चलने वाले अस्थायी मानव शरीर की संरचना में हमारे लगभग साढ़े चार अरब वर्षीय सौर-मंडल के नौ सदस्यों (नवग्रह) के सार का उपयोग किया गया है...मानव को इस कारण ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप कहा गया...

    और यह भी मान्यता है कि जो अनंत प्रतीत होता बाहरी ब्रह्माण्ड है उसका सार मानव शरीर के अन्दर भी है... किन्तु हर मानव शरीर, यानि भीतर कैद आत्मा को अपने सीमित जीवन-काल में ही 'परम सत्य' अजन्मे और अनंत शिव, परमात्मा की अनूभूति होनी आवश्यक है 'काल-चक्र से मुक्ति पाने' हेतु... हम मानें या ना मानें... जो काल की प्रकृति के कारण कलियुग में सबसे कठिन है क्यूंकि आज एक सोलह वर्षीय जवान भी पश्चिम की नक़ल कर गर्व से कहता है, "मैं भगवान् को नहीं मानता" ! (यानि मैं शैतान को ही मानता हूँ? और शनि को पश्चिम दिशा का राजा माना जाता आ रहा है...)

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  20. बेनामी13 जून, 2011 15:19

    बिल्‍कुल सही कहा है आपने ।

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  21. @जीवन मूल्य ही हमें प्राणी से इन्सान बनाते है। जीवन मूल्य ही हमें शान्ति और संतुष्टि से जीवन जीने का आधार प्रदान करते है

    सही कहा...............पोस्ट पढ़ के आनंद आ गया :)

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  22. @ "...जैसे एड्वेन्चर का रोमांच हमें दुर्गम रास्ते और शिखर सर करवा देता है। यदि यही तीव्रेच्छा सद्गुण अंगीकार करने में प्रयुक्त की जाय तो जीवन को मूल्यवान बनाना कोई असम्भव भी नहीं।..."

    द्वैतवाद अथवा अनंतवाद को ध्यान में रख जीवन का सत्य हमारे पूर्वज भी "हरी अनंत / हरी कथा अनंता... " द्वारा दर्शा गए... और उदाहरणतया, (' योगी' के दृष्टिकोण से ८४ लाख में से एक आत्मा और शरीर के योग द्वारा बने साकार रूप) परवाने के दीपक की लौ पर जल जाने द्वारा भी यदि सभी ' कवि' इसे दोनों के बीच अनंत काल से चले आ रहे प्रेम का द्योतक मानते हैं तो दूसरी ओर वैज्ञानिक इसे ' प्रकृति' का संकेत भी मान सकते हैं... यानि भौतिक संसार में सूर्य, ' अग्नि' अथवा ऊर्जा का स्रोत, जो लगभग स्थिर सूर्य और धरती की विभिन्न चालों से जनित काल के अनुसार लगभग साढ़े चार अरब वर्षों से उनके केंद्र में रह अन्य ग्रहों के अतिरिक्त ' हमारी' पृथ्वी को भी घुमाती प्रतीत होती है यदि किसी पल उसमें उबलब्ध हाईड्रोजन समाप्त होने पर सूर्य की शक्ति शिथिल हो जाए तो क्या होगा?
    (वैज्ञानिकों के अनुसार एक ग्रह की 'मृत्यु' या तो उसके सूर्य अथवा गैलेक्सी के केंद्र में गिर हो सकती है अथवा उसके किसी अन्य ग्रह आदि से टकराकर कई टुकड़े होकर. जैसा संभवतः नन्हे- नन्हे ग्रहों का समूह ऐस्टेरौयड भी दर्शाते हैं)...

    प्राचीन ' भारत' में किसी सत्यान्वेषी ने "सत्यम शिवम् सुन्दरम" कहा और किसी ने "जाकी कृपा पंगु गिरी लंघई..." कह किसी अदृश्य शक्ति रुपी जीव का हाथ देखा...

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  23. पुनश्च - यहाँ पर याद दिलाना होगा कि वो अमेरिकेन भारतीय वैज्ञानिक एस चंद्रशेखर थे, जिन्होंने ऐसे तारों की, जो ' रेड स्टेज' पर पहुँच चुके थे, उन पर अध्ययन कर पाया कि अपनी ' मृत्यु' के कगार पर जो पहुँच चुके होते हैं, उनका आकार बढ़ जाता है और वो ' रेड जाएंट ' कहलाते हैं और एक दिन उनकी गुरुत्वकार्शन शक्ति के बाहरी दबाव की तुलना में कम हो जाने से वो फट जाते हैं...

    सारा ' कूड़ा' शून्य में ही निकट में ही फ़ैल जाता है, किन्तु तभी गुरुत्वाकर्षण शक्ति भी काम करना आरम्भ कर देती है और कूड़े को उसके केंद्र की ओर दबाती ही चली जाती है, जब तक लगभग सारे भौतिक द्रव्य के गुरुत्वाकर्षण शक्ति में परिवर्तित हो जाने से वो आकार में शून्य अथवा लगभग शून्य रह जाता है और तीन में से एक, ' व्हाइट ड्वार्फ', ' पल्सर' अथवा ब्लाक होल, किसी एक नए रूप में उपस्थित हो जाता है...

    यदि उसका मूल भार हमारे सूर्य की तुलना में पांच गुना या उससे अधिक हो तभी वो ' ब्लैक होल' बन पाता है, जैसा एक अत्यंत शक्तिशाली ' कृष्ण' हमारी बीच में मोटी (लम्बोदर) और किनारे की ओर पतली तश्तरीनुमा ' मिल्की वे गैलेक्सी' के केंद्र में भी उपस्थित माना जाता है... और हमारा सौ-मंडल केंद्र से दूर इसकी बाहरी ओर विद्यमान पाया जाता है, वैसे ही जैसे दूध के मंथन से मक्खन बाहरी ओर चला जाता है...

    प्राचीन किन्तु ज्ञानी योगियों ने गैलेक्सी को सुदर्शन-चक्र समान दर्शाया, और इसकी उत्पत्ति को ' क्षीर-सागर मंथन' की मनोरंजक कहानी द्वारा दर्शाया, जिसका उद्देश्य देवताओं, यानि हमारे सौर-मंडल के सदस्यों की अमरत्व प्राप्ति दर्शाया और मानव शरीर को सर्वश्रेष्ट कृति, इन में से ९ सदस्यों के सार से बना पाया - जिसके १०० वर्ष +/- तक चलने को संभव दिखाया उसके प्रति रात्री निद्रावस्था में चले जाने से खोई शक्ति दुबारा प्रप्त करने से... और उसी प्रकार हमारी पृथ्वी पर हिमयुग आ जाने से...

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  24. क्षमा प्रार्थी हूँ कि ' अंदरूनी' के स्थान पर ' बाहरी' दबाव लिखा गया (ऊपर से चौथी पंक्ति में)...

    गुरुत्वाकर्षण शक्ति पिंड को भीतर की ओर खींचती है जबकि अंदरूनी पदार्थ बाहर की ओर दबाव डालता है, पृथ्वी समान पिंडों का साकार रूप इन दो मुख्य शक्तियों द्वारा बना रहता है... इसे साधारणतया देखा/ दर्शाया जाता है बाल्टी में भरे पानी को हवा में जोर से घुमाने पर भी पानी बाहर नहीं गिरने से...

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  25. बेहद सार्थक ....बहुत संवेदनशील चिंतन ..

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  26. आदरणीय हंसराज भाई आप मेरे ब्लॉग को Follow कर रहे हैं...मैंने अपने ब्लॉग के लिए Domain खरीद लिया है...पहले ब्लॉग का लिंक pndiwasgaur.blogspot.com था जो अब www.diwasgaur.com हो गया है...अब आपको मेरी नयी पोस्ट का Notification नहीं मिलेगा| यदि आप Notification चाहते हैं तो कृपया मेरे ब्लॉग को Unfollow कर के पुन: Follow करें...
    असुविधा के लिए खेद है...
    धन्यवाद....

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  27. बहुत प्रेरक विचार हैं,सुज्ञ जी

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  28. सुंदर विचार। पर पता नहीं क्‍यों यथार्थ में आते ही ये विचार हवा हो जाते हैं।

    ---------
    ये शानदार मौका...
    यहाँ खुदा है, वहाँ खुदा है...

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  29. जैसे प्राचीन योगियों ने जाना, हर पढ़ा-लिखा भारतीय आज जानता ही होगा कि गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र (चीन में सांग्पो) आदि भारत की मुख्य नदियों के प्राणदायी जल का स्रोत (वायु के बाद दो नंबर पर) प्राचीन भारत, अथवा ' जम्बूद्वीप', के उत्तर में स्थित सागर के कोख से उत्पन्न हुई हिमालयी श्रंखला, (यानि जल के ठोस रूप ' हिम के घर') में वर्तमान चीन में स्थित कैलाश पर्वत/ मानसरोवर झील है... उसी प्रकार, उसके प्रतिरूप समान, प्राचीन योगियों ने किसी भी देश, धर्म आदि से सम्बंधित मानव शरीर में सर्वोच्च स्थान पर स्थित मन-रुपी मानसरोवर को (' सहस्त्रधारा' अथवा ' सहस्रार चक्र' को), अनंत बूंदों समान ' मूलाधार' अथवा ' मूलधारा' (सागर) से लेकर मस्तिष्क (आकाश) तक आठ चक्रों में भंडारित अनंत विचारों के स्रोत समान जाना...

    मानव मस्तिष्क की अद्भुत कार्यविधि, जैसे एक शब्द द्वारा ही मन को किसी भी समय किसी अन्य स्थान और काल में पहुंचा देने को ध्यान में रख 'मेरे' अन्य विषय द्वारा प्रेरित कुछ अन्य सम्बंधित विचार जानने के इच्छुक कुछ अन्य निम्नलिखित ब्लॉग भी देख सकते हैं -

    http://ghughutibasuti.blogspot.com/
    http://mallar.wordpress.com/

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  30. बहुत सुन्दर शब्दों में उत्तम दर्शन व्यक्त हुआ है.

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  31. सुज्ञ जी आपके सुन्दर विचारों से पूर्ण सहमत हूँ.वास्तव में ज्ञान के अर्जन से और अज्ञान के निवारण से स्वाभाविक रूप से मनोबल बढ़ता है
    और सद मार्ग पर चलने की प्रेरणा व साहस भी अर्जित होता जाता है.

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  32. यह हमारे सुविधाभोगी मानस की ही प्रतिक्रिया होती है। हम कठिन प्रक्रिया से गुजरना ही नहीं चाहते। जबकि मानव में आत्मविश्वास और मनोबल की अनंत शक्तियां विद्यमान होती है।

    सटीक और सार्थक लेख ..

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