31 जुलाई 2011

छः अंधे और हाथी - अनेकान्तवाद


अनेकांतवाद के सिद्धांत को स्पष्ठ करने के पूर्व, जो दृष्टांत अनेकांतवाद के लिए दिया जाता है। यहां प्रस्तुत करता हूँ।

क गांव में जन्मजात छः अन्धे रहते थे। एक बार गांव में पहली बार हाथी आया। अंधो नें हाथी को देखने की इच्छा जतायी। उनके एक अन्य मित्र की सहायता से वे हाथी के पास पहुँचे। सभी अंधे स्पर्श से हाथी को महसुस करने लगे। वापस आकर वे चर्चा करने लगे कि हाथी कैसा होता है। पहले अंधे ने कहा हाथी अजगर जैसा होता है। दूसरे नें कहा नहीं, हाथी भाले जैसा होता है। तीसरा बोला हाथी स्तम्भ के समान होता है। चौथे नें अपना निष्कर्ष दिया हाथी पंखे समान होता है। पांचवे ने अपना अभिप्राय बताया कि हाथी दीवार जैसा होता है। छठा ने विचार व्यक्त किए कि हाथी तो रस्से समान ही होता है। अपने अनुभव के आधार पर अड़े रहते हुए, अपने अभिप्राय को ही सही बताने लगे। और आपस में बहस करने लगे। उनके मित्र नें उन्हें बहस करते देख कहा कि तुम सभी गलत हो, व्यथा बहस कर रहे हो। अंधो को विश्वास नहीं हुआ। 

पास से ही एक दृष्टिवान गुजर रहा था। वह अंधो की बहस और मित्र का निष्कर्ष सुनकर निकट आया और उस मित्र से कहने लगा, यह छहो सही है, एक भी गलत नहीं।

उन्होंने जो देखा-महसुस किया वर्णन किया है, जरा सोचो सूंढ से हाथी अजगर जैसा ही प्रतीत होता है। दांत से हाथी भाले सम महसुस होगा। पांव से खंबे समान तो कान से पंखा ही अनुभव में आएगा। पेट स्पर्श करने वाले का कथन भी सही है कि वह दीवार जैसा लगता है। और पूँछ से रस्से के समान महसुस होगा। यदि सभी अभिप्रायों का समन्वय कर दिया जाय तो हाथी का आकार उभर सकता है। जैसा कि सच में हाथी है।

प्रस्तुत दृष्टांत आपने अवश्य सुना पढा होगा, विभिन्न दर्शनों ने इसका प्रस्तुतिकरण किया है।

इस कथा का कृपया विवेचन करें……

  • प्रस्तुत दृष्टांत का ध्येय क्या है?
  • इस कथा का अन्तिम सार क्या है?
  • विभिन्न प्रतीकों के मायने क्या है?
  • क्या कोई और उदाहरण है जो इसका समानार्थी हो?
  • यह दृष्टांत किस तरह के तथ्यों पर लागू किया जा सकता है?

29 जुलाई 2011

सत्य की गवेषणा - अनेकान्तवाद



त्य पाने का मार्ग अति कठिन है। सत्यार्थी अगर सत्य पाने के लिए कटिबद्ध है, तो उसे बहुत सा त्याग चाहिए। और अटूट सावधानी भी। कईं तरह के मोह उसे मार्ग चलित कर सकते है। उसके स्वयं के दृष्टिकोण भी उसके सत्य पाने में बाधक हो सकते है।

  • मताग्रह न रखें

सत्य खोजी को चाहिए, चाहे कैसे भी उसके दृढ और स्थापित पूर्वाग्रह हो। चाहे वे कितने भी यथार्थ प्रतीत होते हो। जिस समय उसका चिंतन सत्य की शोध में सलग्न हो, उस समय मात्र के लिए तो उसे अपने पूर्वाग्रह या कदाग्रह को तत्क्षण त्याग देना चाहिए। अन्यथा वे पूर्वाग्रह, सत्य को बाधित करते रहेंगे।

सोचें कि मेरा चिंतन ,मेरी धारणाओं, मेरे आग्रहों से प्रभावित तो नहीं हो रहा? कभी कभी तो हमारी स्वयं की 'मौलिक विचारशीलता' पर ही अहं उत्पन्न हो जाता है। और अहं, यथार्थ जानने के बाद भी स्वयं में, विचार परिवर्तन के अवसर को अवरोधित करता है। सोचें कि कहीं मैं अपनी ही वैचारिकता के मोहजाल में, स्वच्छंद चिंतन में तो नहीं बह रहा? कभी कभी तो अजानते ही हमारे विश्लेषण मताग्रह के अधीन हो जाते है। प्रायः ऐसी स्थिति हमें, सत्य तथ्य से भटका देती है।

  • पक्षपात से बचें

प्रायः हमारी वैचारिकता पर किसी न किसी विचारधारा का प्रभाव होता है। तथ्यों की परीक्षा-समीक्षा करते हुए, अनायास ही हमारा पलड़ा सत्य विरूद्ध  झुक सकता है। और अक्सर हम सत्य के साथ 'वैचारिक पक्षपात' कर बैठते है। इस तरह के पक्षपात के प्रति पूर्ण सावधानी जरूरी है। पूर्व स्थापित निष्कर्षों के प्रति निर्ममता का दृढ भाव चाहिए। सम्यक दृष्टि से निरपेक्ष ध्येय आवश्यक है।

  • सत्य के प्रति निष्ठा

"यह निश्चित है कि कोई एक 'परम सत्य' अवश्य है। और सत्य 'एक' ही है। सत्य को जानना समझना और स्वीकार करना हमारे लिए नितांत ही आवश्यक है।" सत्य पर इस प्रकार की अटल श्रद्धा होना जरूरी है। सत्य के प्रति यही आस्था, सत्य जानने का दृढ मनोबल प्रदान करती है। उसी विश्वास के आधार पर हम अथक परिश्रम पूर्व सत्य मार्ग पर डटे रह सकते है। अन्यथा जरा सी प्रतिकूलता, सत्य संशोधन को विराम दे देती है।

  • परीक्षक बनें।

परीक्षा करें कि विचार, तर्कसंगत-सुसंगत है अथवा नहीं। वे न्यायोचित है या नहीं। भिन्न दृष्टिकोण होने कारण हम प्रथम दृष्टि में ही विपरित विश्लेषण पर पहुँच जाते है। जैसे सिक्के के दो पहलू होते है। दूसरे पहलू पर भी विचार जरूरी है। जल्द निर्णय का प्रलोभन त्याग कर, कम से कम एक बार तो विपरित दृष्टिकोण से चिंतन करना ही चाहिए। परिक्षक से सदैव तटस्थता की अपेक्षा की जाती है। सत्य सर्वेक्षण में तटस्थ दृष्टि तो आवश्यक ही है।

  • भेद-विज्ञान को समझें

जो वस्तु जैसी है, उसे यथारूप में ही मनन करें और उसे प्रस्तुत भी उसी यथार्थ रूप में करें। न उसका कम आंकलन करें न उसमें अतिश्योक्ति करें न अपवाद मार्ग का अनुसरण करें। तथ्यों का नीर-क्षीर विवेक करें। उसकी सार्थक समीक्षा करते हुए नीर-क्षीर विभाजन करें। और हेय, ज्ञेय, उपादेय के अनुरूप व्यवहार करें। क्योंकि जगत की सारी सूचनाएँ, हेय, ज्ञेय और उपादेय के अनुसार व्यवहार में लानी चाहिए। अर्थात् ‘हेय’ जो छोड़ने लायक है उसे छोड़ें। ‘ज्ञेय’ जो मात्र जानने लायक है उसे जाने। और ‘उपादेय’ जो अपनाने लायक है उसे अपनाएँ।

वस्तुएँ, कथन आदि को समझने के लिए, अनेकांत जैसा एक अभिन्न सिद्धांत हमें उपलब्ध है। संसार में अनेक विचारधाराएं प्रचलित है। वादी अपनी एकांत दृष्टि से वस्तु को देखते है। इससे वे वस्तु के एक अंश को ही व्यक्त करते है। प्रत्येक वस्तु को विभिन्न दृष्टियों, विभिन्न अपेक्षाओं से पूर्णरूपेण समझने के लिए अनेकांत दृष्टि चाहिए। अनेकांतवाद के नय, निक्षेप, प्रमाण और स्याद्वाद अंग है। इनके भेद-विज्ञान से सत्य का यथार्थ निरूपण सम्भव है।
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24 जुलाई 2011

धर्म अर्थात् 'आत्मा का शुद्ध स्वभाव'

न, सम्पत्ति, सुख-सुविधा और कीर्ती  प्राप्त करनें के बाद भी जीवन में असंतोष की प्यास शेष रह जाती है। कारण कि जीवन में शान्ति नहीं सधती। और आत्म का हित शान्ति में स्थित है। आत्मिक दृष्टि से सदाचरण ही शान्ति का एक मात्र उपाय है।

धर्माचरण अपने शुद्ध रूप में सदाचरण ही है। धर्म की परिभाषा है ‘वत्थुसहावो धम्मो ’ अर्थात् वस्तु का 'स्वभाव' ही धर्म है। स्वभाव शब्द में भी बल ‘स्व’ पर है ‘स्व’ के भाव को स्वभाव कहते है। यदि हमारा स्वभाव ही धर्म है तो प्रश्न उठता है, हमारा स्वभाव क्या है? हम निश दिन झूठ बोलते है, कपट करते है, येन केन धन कमाने में ही लगे रहते है अथवा आपस में लड़ते रहते है, क्या यह हमारा स्वभाव है? हम क्रोध करते है, लोभ करते है, हिंसा करते है, क्या यह हमारा स्वभाव है? वास्तव में यह हमारा स्वभाव नहीं है। क्योंकि प्रायः हम सच बोलते है मात्र लोभ या भयवश झूठ बोलते है। यदि हम दिन भर क्रोध करें तो जिंदा नहीं रह सकते। थोडी देर बाद जब क्रोध शान्त हो जाता है, तब हम कहते है कि हम सामान्य हो गए। अतः हमारी सामान्य दशा क्रोध नहीं, शान्त रहना है। क्रोध विभाव दशा है और शान्त रहना स्वभाव दशा है। अशान्ति पैदा करने वाले सभी आवेग-आवेश हमारी विभाव दशा है। शान्तचित सदाचार में रत रहना ही हमारा स्वभाव है। और अपने 'स्वभाव' में रहना ही हमारा धर्म है।

धर्म की यह भी परिभाषा है "यतस्य धार्यती सः धर्मेण "  धारण करने योग्य धर्म है। यह भी स्वभाव अपेक्षा से ही है। सदाचार रूप शुद्ध 'स्वभाव' को धारण करना ही धर्म है। इसिलिए यह निर्देश है कि स्वभाव में स्थिर रहो। यही तो धर्म है। और हमारा शाश्वत स्वभाव, सदाचरण ही है। क्योंकि जीवन के लिए लक्षित शान्ति ही है।

16 जुलाई 2011

सम्मान किसे अधिक मिलता है?


क बार राजा के पुरोहित के मन में विचार आया कि राजा जो मुझे आदर भाव से देखता है, वह सम्मान मेरे ज्ञान का है या मेरे सदाचार का? अगले दिन पुरोहित ने राजकोष से एक सिक्का उठा लिया, जिसे कोष-मंत्री ने देख लिया। उसने सोचा पुरोहित जैसा महान व्यक्ति सिक्का उठाता है तो कोई विशेष प्रयोजन होगा। दूसरे दिन भी यही घटना दोहराई गई। फ़िर भी मंत्री कुछ नहीं बोला तीसरे दिन पुरोहित नें कोष से मुट्ठी भर सिक्के उठा लिए। तब मंत्री ने राजा को बता दिया। राजा नें दरबार में राज पुरोहित से पुछा- क्या मंत्री जी सच कह रहे है?

राज पुरोहित ने उत्तर दिया-‘हां महाराज’ राजा नें राज पुरोहित को तत्काल दंड सुना दिया। तब राजपुरोहित बोला-महाराज! मैने सिक्के उठाए पर मैं चोर नहीं हूँ। मैं यह जानना चाहता था कि सम्मान मेरे ज्ञान का हो रहा है या मेरे सदाचार का? वह परीक्षा हो गई। सम्मान अगर ज्ञान का होता तो आज कटघरे में खड़ा न होता। ज्ञान जितना कल था, उतना ही आज भी मेरे पास सुरक्षित है। पर मेरा केवल सदाचार खण्ड़ित हुआ और मैं सम्मान की जगह दंड योग्य अपराधी निश्चित हो गया। सच ही है चरित्र ही सम्मान पाता है।

मित्रों!! आप क्या सोचते है, सम्मान ज्ञान को अधिक मिलता है या सदाचार को?

13 जुलाई 2011

चार अक्षय मुक्ता




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  •  प्रशंसा

प्रशंसा मानव स्वभाव की एक ऐसी कमजोरी है कि जिससे बड़े बड़े ज्ञानी भी नहीं बच पाते। निंदा की आंच भी जिसे पिघला नहीं पाती, प्रशंसा की ठंड़क उसे छार-छार कर देती है।

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  • कषाय

ब तक क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी कषाय से छूटकारा नहीं होता, तब तक दुखों से मुक्ति सम्भव ही नहीं।
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  • सदभावना

दभावना, विषय-कषाय से विरक्त और समभाव में अनुरक्त रखती है। विपत्तियों में समता और सम्पत्तियों में विनम्रता प्रदान करती है।
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  •  समाधि

पूर्ण विवेक से निर्णय करने के उपरांत भी यदि परिणाम प्रतिकूल आ जाय ऐसी विपरित परिस्थिति में भी उसका विरोध करने के बजाय यदि मन को समझाना आ जाय तो समाधि सम्भव है।
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10 जुलाई 2011

जीवन की सार्थकता






प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने तरीके से जीवन को सार्थक बनाना चाहता है। यह बात अलग है कि उसका जो भी तरीका है, उससे जीवन सार्थक होता है या नहीं?

प्रायः बहिर्मुख-मानव भोग-उपभोग की विपुलता में ऐन्द्रियिक विषयों के सेवन में ही मानव-जीवन की सार्थकता देखता है, किन्तु अन्तर्मुख मानव इन भोगोपभोग में जीवन का दुरूपयोग देखता है और उदारता, दान, दया, परोपकार आदि उदात्त भावों के सेवन में जीवन का सदुपयोग अनुभव करता है।

वस्तुतः मनुष्य जीवन की सार्थकता अपने जीवन को सु-संस्कृत, परिष्कृत, विशुद्ध और परिमार्जित करने में है। इन्ही प्रयत्नो की परम्परा में मन वचन और काया से ज्ञान दर्शन चरित्र की आराधना ही प्रमुख है। मानव जीवन की सार्थकता-सफलता जीवन मूल्यों को उन्नत और उत्तम बनाने में है।

1 जुलाई 2011

नीर क्षीर विवेक


प्रायः लोग कहते है कि हमें किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए। किसी को भला, और किसी को बुरा कहना राग-द्वेष है। सही भी है किसी से अतिशय राग अन्याय को न्योता देता है। और किसी की निंदा विद्वेष ही पैदा करती है।

दूसरों की निंदा बुरी बात है किन्तु, भले और बुरे सभी को एक ही तराजु पर, समतोल में तोलना मूर्खता है। उचित अनुचित में सम्यक भेद करना विवेकबुद्धि है।  भला-बुरा, हित-अहित और सत्यासत्य का विवेक रखकर,  बुरे, अहितकारी और असत्य का त्याग करना। भले, हितकारी और सत्य का आदर करना एक उपादेय आवश्यक गुण है। जो जैसा है, उसे वैसा ही, बिना किसी अतिश्योक्ति के निरूपित करना, कहीं से भी बुरा कर्म नहीं है।

एक व्यापारी को एक अपरिचित व्यक्ति के साथ लेन-देन व्यवहार करना था। रेफरन्स के लिए उसने,  अपने एक मित्र जो उसका भी परिचित था, को पूछा- “यह व्यक्ति कैसा है? इसके साथ लेन देन व्यवहार करनें में कोई हानि तो न होगी”

उस व्यापारी का मित्र सोचने लगा- मैं किसी के दोष क्यों बताऊँ? दोष दर्शाना तो निंदा है। मुझे तो उसकी प्रसंशा करनी चाहिए। इस प्रकार विचार करते हुए मित्र नें उस रेफर धूर्त की प्रशंसा ही कर दी। सच्चाई और ईमानदारी गुण, जो कि उसमें तनिक भी नही थे, व्यापारी के मित्र नें उस धूर्त के लिए गढ दिए। मित्र की बात पर विश्वास करके व्यापारी ने उस धूर्त व्यक्ति के साथ व्यवहार कर दिया और कुछ ही समय में धूर्त सब कुछ समेट कर गायब हो गया। ठगा सा व्यापारी अपने मित्र के पास जाकर कहनें लगा- “मैने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था, तुमनें तो मुझे बरबाद ही कर दिया। तुम्हारे द्वारा की गई धूर्त की अनावश्यक प्रसंशा नें मुझे तो डूबा ही दिया। कहिए आपने मुझ निरपराध को क्यों धोखा दिया? तुम तो मेरे मित्र-परिचित थे, तुमनें उसकी यथार्थ वास्तविकता का गोपन कर, झूठी प्रसंशा क्यों की?”

प्रशंसक कहने लगा- “मैं आपका शत्रु नहीं, मित्र ही हूँ। और पक्का सज्जन भी हूँ। कोई भी भला व्यक्ति, कभी भी, किसी के दोष नहीं देखता, आलोचना नहीं करता। निंदा करना तो पाप है। मैनें तुम्हें हानि पहूँचाने के उद्देश्य से उसकी प्रशंसा नहीं की, बल्कि यह सोचकर कि, सज्ज्न व्यक्ति सदैव सभी में गुण ही देखता है, मैं भी क्यों बुरा देखन में जाउँ, इसलिए मैने सद्भाव से प्रशंसा की”

“तो क्या उसमें ईमानदारी और सच्चाई के गुण थे?”

-“हाँ, थे न! वह प्रथम ईमानदारी प्रदर्शीत करके ही तो अपनी प्रतिष्ठा जमाता था। वह  सच्चाई व ईमानदारी से साख जमा कर प्रभाव पैदा करता था। धौखा तो उसने मात्र अन्तिम दिन ही दिया जबकि लम्बी अवधी तक वह नैतिक ही तो बना रहा। अधिक काल के गुणों की उपेक्षा करके थोड़े व न्यूनकाल के दोषों को दिखाकर, निंदा करना पाप है। भला मैं ऐसा पाप क्यों करूँ?” उसने सफाई दी।

-“वाह! भाई वाह!, कमाल है तुम्हारा चिंतन और उत्कृष्ट है तुम्हारी गुणग्राहकता!! तुम्हारी इस सज्जनता नें, मेरी तो लुटिया ही डुबो दी। तुम्हारी गुणग्राहकता उस ठग का हथियार ही बन गई। उसकी ईमानदारी और सच्चाई जो प्रदर्शन मात्र थी, धूर्तता छुपाने का आवरण मात्र थी, और जिसे तुम अच्छे से जानते भी थे कि धूर्तता ही उसका मूल गुण था। मैने आज यह समझा कि धूर्तो से भी तुम्हारे जैसे सदभावी शुभचिंतक तो अधिक खतरनाक होते है”। उस पर अविश्वास करता तो शायद बच जाता, पर तुम्हारे पर आस्था नें तो मुझे कहीं का न रखा। व्यापारी अपने भाग्य को कोसता हुआ चला गया।

कोई वैद्य या डॉक्टर, यदि रोग को ही उजागर करना बुरा मानते हुए, रोग लक्षण जानते हुए भी रोग  उजागर न करे। रोग प्रकटन को हीन कृत्य माने, रोग से बचने के उपाय को सेहत की श्रेष्ठता का बखान माने, या फिर सेहत और रोग के लक्षणों को सम्भाव से ग्रहण करते हुए, स्वास्थय व रूग्णता दोनो को समान रूप से अच्छे है कहकर, रोग विश्लेषण ही न करे, तो निदान व ईलाज कैसे होगा? और आगे चलकर वह रोग कारकों से बचने का परामर्श न दे। कुपथ्य से परहेज का निर्देश न करे। उपचार हेतू कड़वी दवा न दे तो रोगी का रोग से पिंड छूटेगा कैसे? ऐसा करता हुआ डॉक्टर कर्तव्यनिष्ट सज्जन या मौत का सौदागर?

कोई भी समझदार कांटों को फूल नहीं कहता, विष को अमृत समझकर ग्रहण नहीं करता। गोबर और हलवे के प्रति समभाव रखकर कौन समाचरण करेगा? छोटा बालक यदि गोद में मल विसर्जन कर कपडे खराब कर दे तो कहना ही पडता है कि ‘उसने गंदा कर दिया’। न कि बच्चे के प्रति राग होते हुए भी यह कहेंगे कि- ‘उसने अच्छा किया’। इस प्रकार गंदा या बुरा कहना, बच्चे के प्रति द्वेष नहीं है। जिस प्रकार गंदे को गंदा और साफ को साफ व्यक्त करना ही व्यवहार है उसी प्रकार बुरे को बुरा कहना सम्यक् आचरण है। निंदा नहीं।

संसार में अनेक मत-मतान्तर है। उसमें से जो हमें अच्छा, उत्तम और सत्य लगे, उसे  अगर मानें, तो यह हमारा अन्य के साथ द्वेष नहीं है बल्कि विवेक है। विवेकपूर्वक हितकारी को अंगीकार करना और अहितकारी को छोडना ही चेतन के लिए कल्याणकारी है।

अनुकरणीय और अकरणीय में विवेक करना ही तो नीर क्षीर विवेक है।

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