हमारे में सभी सद्गुण भय से ही स्थायित्व पाते है। भय प्रत्येक जीव की प्राकृतिक संज्ञा है। 'ईश्वर-आस्तिक' को ईश्वर के नाराज़ होनें का भय होता है तो 'कर्म-फल-आस्तिक' को बुरे प्रतिफल मिलने का भय रहता है। 'नास्तिक' को बुरा व्यक्तित्व कहलाने का भय रहता है। भय के कारण ही सभी सदाचारी रहना उचित मानते है, और कदाचारों से दूर रहने का प्रयास करते है। आस्तिको को विशेष रूप से ईश्वर और कर्म-फल के प्रति श्रद्धा व सबूरी का आधार रहता है। अगर आस्तिक को सदाचार के एवज मे प्रशंसा और प्रतिफल त्वरित न भी मिले तो वह सब्र कर लेता है, और निर्णायक दिन या अगले जन्म तक का भी इन्तजार कर लेता है। और आस्था के कारण अपने विश्वास से विचलित नहीं होता।
वहाँ भौतिकवादी नास्तिक, सदाचार के प्रतिफल में विपरित परिणामों का अनुमान मात्र लगाकर विचलित जाता है। अनुकूल परिणाम न आते देखकर निराश हो जाता है्। क्योंकि धैर्य का उसके पास कोई औचित्य ही नहीं होता। वह शीघ्र ही सदाचार से पल्ला झाड़ लेता है। वह जरा सी प्रतिकूलता देखते ही अपने अनास्थक मानसिकता पर और भी मजबूत हो जाता है। इसप्रकार सदाचार पर टिके रहने के लिए न तो उसके पास पर्याप्त मनोबल होता है, और न ही प्रतिफल का पूर्ण विश्वास। पर्याप्त आधार के बिना भला वह क्यों सब्र करेगा? 'अच्छे का नतीजा अच्छा', या 'भले का परिणाम भला' वाला नीतिबल तो कब का नष्ट हो चुका होता है। नैतिकता पर 'चलने' का आधार समाप्त ही हो जाता है। विश्वास स्वरूप 'पैर' ही न हो तो कदम क्या खाक उठा पाएगा? इसी आशय से मैने कहा था, “नास्तिकी-सदाचार के तो पैर ही नहीं होते” उसके पास दृढ़ता से खडे रहने का नैतिक बल ही नहीं होता। किस भरोसे खडा रहेगा? भला वह क्यों मोल लेगा भावी के भरोसे, निश्चित कष्ट, प्रतीक्षा और अनावश्यक तनाव? तत्क्षण प्रतिशोध ही उनके लिए न्यायमार्ग होता है। और प्रतिशोध किसी भी दृष्टि से सदाचार नहीं है।
सदाचरण सदैव, घोर परिश्रम, सहनशीलता और धैर्य की मांग करते है। अधिकांश बार उपकार का बदला अपकार से भी मिलता है। कईं बार सदाचारियों की गणना कायरों में गिनी जाती है। सामान्यतया तो उसे डरपोक ही मान लिया जाता है। सदाचारी के शत्रुओं की भी संख्या बढ जाती है। उसे पाखण्डी ही समझा जाता है। कभी कभी तो उसे शान्ति के बदले मिलती कीर्ती का भी हनन कर दिया जाता है। इतना सब होने के बाद, अनास्थावान् का सदाचारों पर टिके रहना तलवार की धार पर चलनें के समान होता है। सदाचारों का लाभ तो मिले या न मिले, जीवन को क्यों लोहे के चने चबाने जैसे दुष्कर कार्य में व्यर्थ करना।
जबकि कर्म-फल पर विश्वास करता हुआ आस्तिक, श्रद्धा के साथ प्रतिफल धारणा पर अटल रहता है और विश्वास के प्रति सजग भी. उसे भरोसा होता है कि देर-सबेर अच्छे कर्मों का प्रतिफल अच्छा ही मिलना है। आज नहीं तो कल, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में, वह सोचता है मै अपने सब्र की डोर क्यो छोडूं। वह सदाचरण दृढता से निभाता चला जाता है। इसी आत्मबल के कारण सदाचार निभ भी जाते है।
जबकि प्रतिकूल परिस्थिति में नास्तिक के सब्र का बांध टूट जाता है। भलाई का बदला बुराई से मिलते ही उसके भौतिक नियमों में खलबली मच जाती है। वह सोचता है, आजकल तो सदाचार का बदला बुरा ही मिलता है। कोई आवश्यक नहीं अच्छे कार्यों का नतीजा अच्छा ही हो। ऐसा कोई भौतिक नियम तो है नहीं कि नियमानुसार भले का परिणाम भला ही मिले। फिर क्यों किसी उलजलूल कर्म-सिद्धांतो की पग-चंपी की जाय,और अनावश्यक सदाचार निभाकर क्यों दुख पीड़ा और प्रतीक्षा मोल ले।
इसप्रकार धर्मग्रंथों से मिलने वाले नीतिबल के अभाव में, व प्रतिफल की धारणा के अभाव में, अपनी नैतिक उर्ज़ा दांव पर नहीं लगाना चाहता। इसीलिए पैरविहिन नास्तिक, सदाचार की 'लम्बी दौड' दौडने मे अक्षम होता है। नास्तिक-सदाचार की श्रद्धाविहीन धारणाओं को पैर रहित ही कहा जाएगा। बिना दृढ़ आस्था के वे 'आचार' आखिर किसके पैरों पर खड़े होंगे? इसलिए नास्तिक सदाचार के खडे रहने के लिए पैर ही नहीं होते।
(प्रस्तुत लेख में 'नास्तिक' शब्द से अभिप्राय 'धर्मद्वेषी' या 'धर्महंता नास्तिक' से है)