25 दिसंबर 2012

दर्पोदय

English: Portrait of Akbar the Great: This por...
हिन्दी: मुग़ल चित्रकार मनोहर द्वारा बनाया गया मुग़ल बादशाह अकबर का चित्र (Photo credit: Wikipedia)
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दंभ का तीव्र उदय!!

एक बादशाह इत्र का बहुत शौकीन था। एक दिन वह दरबार में अपनी दाढ़ी में इत्र लगा रहा था। अचानक इत्र की एक बूंद नीचे गिर गई। बादशाह ने सबकी नजरें बचाकर उसे उठा लिया। लेकिन पैनी नजर वाले वजीर ने यह देख लिया। बादशाह ने भांप लिया कि वजीर ने उसे देख लिया है।

दूसरे दिन जब दरबार लगा, तो बादशाह एक मटका इत्र लेकर बैठ गया। वजीर सहित सभी दरबारियों की नजरें बादशाह पर गड़ी थीं। थोड़ी देर बाद जब बादशाह को लगा कि दरबारी चर्चा में व्यस्त हैं, तो उसने इत्र से भरे मटके को ऐसे ढुलका दिया, मानो वह अपने आप गिर गया हो। इत्र बहने लगा। बादशाह ने ऐसी मुद्रा बनाई, जैसे उसे इत्र के बह जाने की कोई परवाह न हो। इत्र बह रहा था। बादशाह उसकी अनदेखी किए जा रहा था।

वजीर ने यह देखकर कहा- जहांपनाह, गुस्ताखी माफ हो। यह आप ठीक नहीं कर रहे हैं। जब किसी इंसान के मन में चोर होता है तो वह ऐसे ही करता है। कल आपने जमीन से इत्र उठा ली तो आपको लगा कि आपसे कोई गलती हो गई है। आपने सोचा कि आप तो शहंशाह हैं, आप जमीन से भला क्यों इत्र उठाएंगे। लेकिन वह कोई गलती थी ही नहीं। एक इंसान होने के नाते आपका ऐसा करना स्वाभाविक था। लेकिन आपके भीतर शहंशाह होने का जो घमंड है, उस कारण आप बेचैन हो गए। और कल की बात की भरपाई के लिए बेवजह इत्र बर्बाद किए जा रहे हैं। सोचिए आपका घमंड आपसे क्या करवा रहा है। बादशाह लज्जित हो गया।

हमारे  निराधार और काल्पनिक अपमान के भयवश, हमारा दंभ उत्प्रेरित होता है। दर्प का उदय हमारे विवेक को हर लेता है। दंभ से मोहांध बनकर हम उससे भी बडी मूर्खता कर जाते है, जिस मूर्खता के कारण वह काल्पनिक अपमान भय हमें सताता है।

16 दिसंबर 2012

सहन-शक्ति

बात महात्मा बुद्ध के पूर्व भव की है जब वे जंगली भैंसे की योनि भोग रहे थे। तब भी वे एकदम शान्त प्रकृति के थे। जंगल में एक नटखट बन्दर उनका हमजोली था। उसे महात्मा बुद्ध को तंग करने में बड़ा आनन्द आता। वह कभी उनकी पीठ पर सवार हो जाता तो कभी पूंछ से लटक कर झूलता,  कभी कान में ऊंगली डाल देता तो कभी नथुने में। कई बार गर्दन पर बैठकर दोनों हाथों से सींग पकड़ कर झकझोरता। महात्मा बुद्ध उससे कुछ न कहते।

उनकी सहनशक्ति और वानर की धृष्टता देखकर देवताओं ने उनसे निवेदन किया, "शान्ति के अग्रदूत, इस नटखट बंदर को दंड दीजिये। यह आपको बहुत सताता है और आप चुपचाप सह लेते हैं!"

वह बोले, "मैं इसे सींग से चीर सकता हूं, माथे की टक्कर से पीस सकता हूं, परन्तु में ऐसा नहीं करता, न करुंगा। अपने से बलशाली के अत्याचार को सहने की शक्ति तो सभी जुटा लेते हैं, परन्तु सच्ची सहनशक्ति तो अपने से बलहीन की प्रताड़ना सहन करने में है।"

10 दिसंबर 2012

अहिंसा का आलोक

वे सभी व्यक्ति अहिंसा की शीतल छाया में विश्राम पाने के लिए उत्सुक रहते हैं, जो सत्य का साक्षात्कार करना चाहते हैं. अहिंसा का क्षेत्र व्यापक है. यह सूर्य के प्रकाश की भांति मानव मात्र और उससे भी आगे प्राणी मात्र के लिए अपेक्षित है. इसके बिना शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की बात केवल कल्पना बनकर रह जाती है. अहिंसा का आलोक जीवन की अक्षय संपदा है. यह संपदा जिन्हें उपलब्ध हो जाती है, वे नए इतिहास का सृजन करते हैं. वे उन बंधी-बंधाई परंपराओं से दूर हट जाते हैं, जिनकी सीमाएं हिंसा से स्पृष्ट होती हैं. परिस्थितिवाद का बहाना बनाकर वे हिंसा को प्रश्रय नहीं दे सकते.

अहिंसा की चेतना विकसित होने के अनंतर ही व्यक्ति की मनोभूमिका विशद बन जाती है. वह किसी को कष्ट नहीं पहुंचा सकता. इसके विपरीत हिंसक व्यक्ति अपने हितों को विश्व-हित से अधिक मूल्य देता है. किंतु ऐसा व्यक्ति भी किसी को सताते समय स्वयं संतप्त हो जाता है. किसी को स्वायत्त बनाते समय उसकी अपनी स्वतंत्रता अपहृत हो जाती है.

किसी पर अनुशासन थोपते समय वह स्वयं अपनी स्वाधीनता खो देता है. इसीलिए हिंसक व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में संतुष्ट और समाहित नहीं रह सकता. उसकी हर प्रवृत्ति मं एक खिंचाव-सा रहता है. वह जिन क्षणों में हिंसा से गुजरता है, एक प्रकार के आवेश से बेभान हो जाता है. आवेश का उपशम होते ही वह पछताता है, रोता है और संताप से भर जाता है.

हिंसक व्यक्ति जिस क्षण अहिंसा के अनुभाव से परिचित होता है, वह उसकी ठंडी छांह पाने के लिए मचल उठता है. उसका मन बेचैन हो जाता है. फिर भी पूर्वोपात्त संस्कारों का अस्तित्व उसे बार-बार हिंसा की ओर धकेलता है. ये संस्कार जब सर्वथा क्षीण हो जाते हैं तब ही व्यक्ति अहिंसा के अनुत्तर पथ में पदन्यास करता है और स्वयं उससे संरक्षित होता हुआ अहिंसा का संरक्षक बन जाता है.

अहिंसा के संरक्षक इस संसार के पथ-दर्शक बनते हैं और हिंसा, भय, संत्रास, अनिश्चय, संदेह तथा असंतोष की अरण्यानी में भटके हुए प्राणियों का उद्धार करते हैं.

-आचार्य तुलसी (राजपथ की खोज)

30 नवंबर 2012

मन बिगाडे हार है और मन सुधारे जीत

'मन' को जीवन का केंद्रबिंदु कहना शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी। मनुष्य की समस्त क्रियाओं, आचारों का आरंभ मन से ही होता है। मन सतत तरह-तरह के संकल्प, विकल्प, कल्पनाएं करता रहता है।मन की जिस ओर भी रूचि होती है,उसका रुझान उसी ओर बढता चला जाता है, परिणाम स्वरूप मनुष्य की सारी गतिविधियां उसी दिशा में अग्रसर होती है। जैसी कल्पना हो ठिक उसी के अनुरूप संकल्प बनते है और सारे प्रयत्न-पुरुषार्थ उसी दिशा में सक्रिय हो जाते है। अन्ततः उसी के अनुरूप परिणाम सामने आने लगते हैं.। मन जिधर या जिस किसी में रस-रूचि लेने लगे, उसमें एकाग्रचित होकर श्रमशील हो जाता है। यहाँ तक कि उसे लौकिक लाभ या हानि का भी स्मरण नहीं रह जाता। प्रायः मनुष्य प्रिय लगने वाले विषय के लिए सब कुछ खो देने तो तत्पर हो जाता है। इतना ही नहीं अपने मनोवांछित को पाने के लिए बड़े से बड़े कष्ट सहने को सदैव तैयार हो जाता है।

मन यदि अच्छी दिशा में मुड़ जाए; आत्मसुधार, आत्मनिर्माण और आत्मविकास में रुचि लेने लगे तो मानव व्यक्तित्व और उसके जीवन में एक चमत्कार का सर्जन हो सकता है। सामान्य श्रेणी का मनुष्य भी महापुरुषों की श्रेणी में सहज ही पहुंच सकता है। आवश्यकता 'मन' को अनुपयुक्त दिशा से उपयुक्त दिशा में मोड़ने की ही है। सारी कठिनाई मन के सहज प्रवाह पर नियंत्रण स्थापित करने की है। इस समस्या के हल होने पर मनुष्य सच्चे अर्थ में मानव बनता हुआ देवत्व के लक्षण तक सहजता से पहुंच सकता है।

शरीर-स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहने के समान ही हमें मन के प्रति और भी अधिक सचेत, सावधान रहने की जरूरत है। दोयम चिंतन, दुर्विचारों और दुर्भावनाओं से मन मलिन और पतित हो जाता है। उस स्थिति में मन अपनी सभी विशेषताओं और श्रेष्ठताओं से च्युत हो जाता है।

कहते है मन के प्रवाह को तो सहज ही बहने देना चाहिए। किन्तु मन के सहज बहाव पर भरोसा करना हमेशा जोखिम भरा होता है। क्योंकि प्रवाह के समान ही मन का पतन की तरफ लुढ़कना स्वभाविक है जबकि उँचाई की ओर उठना कठिन पुरूषार्थ भरा होता है। मन का स्वभाव बालक जैसा होता है, उमंग से भरकर वह कुछ न कुछ करना-बोलना चाहता है। यदि सही दिशा न दी जाए तो उसकी क्रियाशीलता तोड़-फोड़, गाली-गलौज और दुष्चरित्र के  रूप में सामने आ सकती है।

नदी के प्रवाह में बहता पत्थर सहजता से गोल स्वरूप तो पा लेता है किन्तु उसकी मोहक मूर्ति बनाने के लिए अनुशासन युक्त कठिन श्रम की आवश्यकता होती है। ठिक उसी तरह मन को उत्कृष्ट दिशा देने के लिए विशेष कठोर प्रयत्न करने आवश्यक होते है। मन के तरूवर् को उत्कृष्ट फलित करने के लिए साकात्मक सोच की भूमि, शुभचिन्तन का जल, सद्भाव की खाद और सुविचार का प्रकाश बहुत जरूरी है। मन में जब सद्विचार भरे रहेंगे तो दुर्विचार भी शमन या गलन का रास्ता लेंगे।

प्रखर चरित्र और आत्म निर्माण के लिए, मन को नियंत्रित रखना और सार्थक दिशा देना, सर्वप्रधान उपचार है। इसके लिए आत्मनिर्माण करने वाली, जीवन की समस्याओं को सही ढंग से सुलझाने वाली, उत्कृष्ट विचारधारा की पुस्तकों का पूरे ध्यान, मनन और चिंतन से स्वाध्याय करना कारगर उपाय है। यदि सुलझे हुए विचारक, जीवन विद्या के ज्ञाता, कोई संभ्रात सज्जन उपलब्ध हो सकते हों तो उनका सत्संग भी उपयोगी सिद्ध हो सकता है। जिस प्रकार शरीर की सुरक्षा और परिपुष्टि के लिए रोटी और पानी  की आवश्यकता होती हैं उसी प्रकार आत्मिक शान्ति, सन्तुष्टि, स्थिरता और प्रगति के लिए मन को सद्विचारों, सद्भावों का प्रचूर पोषण देना नितांत आवश्यक है।

29 नवंबर 2012

आसक्ति की मृगतृष्णा

हमारे गांव में एक फकीर घूमा करता था, उसकी सफेद लम्बी दाढ़ी थी और हाथ में एक मोटा डण्डा रहता था। चिथड़ों में लिपटा उसका ढीला-ढाला और झुर्रियों से भरा बुढ़ापे का शरीर। कंधे पर पेबंदों से भरा झोला लिये रहता था। वह बार-बार उस गठरी को खोलता, उसमें बड़े जतन से लपेटकर रखी, रंगीन कागज की गड्डियों को निकालता, हाथ फेरता और पुनः थेले में रख देता। जिस गली से वह निकलता और जहां भी रंगीन कागज दिखता, वह बड़ी सावधानी से उसे उठा लेता, कोने सीधे करता, तह कर हाथ फेरता और उसकी गड्डी बना कर रख लेता।

फिर वह किसी दरवाजे पर बैठ जाता और कागजों को दिखाकर कहा करता, "ये मेरे प्राण हैं।" कभी कहता, "ये रुपये हैं। इनसे गांव के गिर रहे, अपने किले का पुनर्निर्माण कराऊंगा।" फिर अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरकर स्वाभिमान से कहता, "उस किले पर हमारा झंडा फहरेगा और मैं राजा बनूंगा।"

गांव के बालक उसे घेरकर खड़े हो जाते, उस पर हँसा करते। वयस्क और वृद्ध लोग भी उसकी खिल्ली उड़ाते। कहते, "पागल है, तभी तो रंगीन रद्दी कागजों से किले बनवाने की बात कर रहा है।"

मुझे अनुभूति हुई कि हम भी तो वही करते है। उस फकीर की तरह, हम भी रंग बिरंगे कागज संग्रह करने में व्यस्त है,  उनसे किले बनाने  के दिवास्वप्न में मस्त है। पागल तो हम है, जिन सुखों के पिछे बेतहासा भाग रहे है, अन्तत: वह सुख तो हमें मिलता ही नहीं। सारे ही प्रयास निर्थक स्वप्न ही साबित होते है। यह फकीर जैसे हम संसार के प्राणियों से कहता है, "तुम सब पागल हो, जो माया में लिप्त, तरह-तरह के किले बनाते हो और सत्ता के सपने देखते रहते हो, इतना ही नही, मोहासक्त तुम अपने पागलपन को बुद्धिमत्ता समझते हो"

ऐसे फकीर हर गांव- शहर में घूमते हैं, किन्तु हमने अपनी आंखों पर आसक्ति की पट्टी बांध रखी है और कान मोह मद से बंद कर लिये हैं। इसी से न हम यथार्थ को देख पाते हैं, न समझ पाते हैं। वास्तव में पागल वह नहीं, हम हैं।

8 अक्तूबर 2012

जिजीविषा और विजिगीषा

मानव ही क्यों, प्राणीमात्र में मुख्यतः 'जिजीविषा' और 'विजिगीषा' दो वृतियाँ कार्यशील होती है। अर्थात् जीने की और जीतने की इच्छा। दीर्घकाल तक जीने की और ऐश्वर्यपूर्वक दूसरों पर अधिपत्य जमाने की स्वभाविक इच्छा मनुष्य मात्र में पाई जाती है। वस्तुतः 'जीने' की इच्छा ही 'जीतने' की इच्छा को ज्वलंत बनाए रखती है। एक छोटे से 'जीवन' के लिए, क्या प्राणी क्या मनुष्य, सभी आकाश पाताल एक कर देते है।

भौतिकवादी प्राय: इस 'जीने' और 'जीतने' के आदिम स्वभाव को, प्रकृति या स्वभाविकता के नाम पर संरक्षण और प्रोत्साहन देने में लगे रहते है। वे नहीं जानते या चाहते कि इस आदिम स्वभाव को सुसंस्कृत किया जा सकता है या किया जाय। इसीलिए प्राय: वे सुसंस्कृतियों का विरोध करते है और आदिम इच्छाओं को प्राकृतिक स्वभाव के तौर पर आलेखित/रेखांकित कर उसे बचाने का भरपूर प्रयास करते है। इसीलिए वे संस्कृति और संयम प्रोत्साहक धर्म का भी विरोध करते है। वे चाहते है मानव सदैव के लिए उसी जिजीविषा और विजिगीषा में लिप्त रहे, इसी में संघर्ष करता रहे, आक्रोशित और आन्दोलित बना रहे। जीने के अधिकार के लिए, दूसरों का जीना हराम करता रहे। और अन्ततः उसी आदिम इच्छाओं के अधीन अभिशप्त रहकर हमेशा अराजक बना रहे। 'पाखण्डी धर्मान्ध' व 'लोभार्थी धर्मद्वेषियों' ने विनाश का यही मार्ग अपनाया हुआ है।

दुर्भाग्य से "व्यक्तित्व विकास" और "व्यक्तिगत सफलता" के प्रशिक्षक भी इन्ही वृतियों को पोषित करते नजर आते है। इसीलिए प्रायः ऐसे उपाय नैतिकता के प्रति निष्ठा से गौण रह जाते है।

वस्तुतः इन आदिम स्वभावों या आदतों का संस्करण करना ही संस्कृति या सभ्यता है। धर्म-अध्यात्म यह काम बखुबी करता है। वह 'जीने' के स्वार्थी संघर्ष को, 'जीने देने' के पुरूषार्थ में बदलने की वकालत करता है। "जीओ और जीने दो" का यही राज है। बेशक! आप जीने की कामना कर सकते है, किन्तु प्रयास तो 'जीने देने' का ही किया जाना चाहिए। उस दशा में दूसरो का भी यह कर्तव्य बन जाएगा कि वे आपको भी जीने दे। अन्यथा तो गदर मचना निश्चित है। क्योंकि प्रत्येक अपने जीने की सामग्री जुटाने के खातिर, दूसरो का नामोनिशान समाप्त करने में ही लग जाएंगा। आदिम जंगली तरीको में यही तो होता है। और यही  विनाश का कारण भी है। जैसे जैसे सभ्यता में विकास आता है ‘जीने देने’ का सिद्धांत ‘जीने की इच्छा’ से अधिक प्रबल और प्रभाव से अधिक उत्कृष्ट होते चला जाता है। दूसरी 'जीतने की इच्छा' भी अधिपत्य जमाने की महत्वाकांक्षा त्याग कर, दिल जीतने की इच्छा के गुण में बदल जाती है।


(जिजीविषा-सहयोग) सभी को सहजता से जीने दो।
( हृदय-विजिगीषा) सभी के हृदय जीतो।

सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥


6 अक्तूबर 2012

स्वार्थ का बोझ

एक आदमी अपने सिर पर अपने खाने के लिए अनाज की गठरी ले कर जा रहा था। दूसरे आदमी के सिर पर उससे चार गुनी बड़ी गठरी थी। लेकिन पहला आदमी गठरी के बोझ से दबा जा रहा था, जबकि दूसरा मस्ती से गीत गाता जा रहा था।

पहले ने दूसरे से पूछा, "क्योंजी! क्या आपको बोझ नहीं लगता?"

दूसरे वाले ने कहा, "तुम्हारे सिर पर अपने खाने का बोझ है, मेरे सिर पर परिवार को खिलाकर खाने का। स्वार्थ के बोझ से स्नेह समर्पण का बोझ सदैव हल्का होता है।"

स्वार्थी मनुष्य अपनी तृष्णाओं और अपेक्षाओं के बोझ  से बोझिल रहता है। जबकि परोपकारी अपनी चिंता त्याग कर संकल्प विकल्पों से मुक्त रहता है।

2 अक्तूबर 2012

अहिंसा की सार्वभौम शक्ति

आज वैश्विक अहिंसा दिवस है, भारत के लिए यह गौरव का प्रसंग है कि विश्व को अहिंसा की इस अवधारणा का अर्पण किया। 15 जून 2007 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्मदिन को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।

भारत में आदिकाल से, कुछ अपवादों को छोड़कर अहिंसा के प्रयोग प्रायः व्यक्तिगत ही हुए है। किन्तु महात्मा गांधी ने अहिंसा का मंथन कर अनेक प्रयोग द्वारा अहिंसा को सामूहिक साध्य बनाया। अतएव विश्व को अहिंसा की सामुहिक प्रस्थापना के प्रेरक महात्मा गांधी है। निष्ठापूर्वक सामूहिक प्रयोग ही अहिंसा की गति में तीव्रता ला सकते है और उसे अधिक क्षमतावान बना सकते है। महात्मा गांधी के इस अवदान के लिए समग्र विश्व ॠणी रहेगा।

मार-काट जबरदस्ती दंड या अत्यधिक दबाव द्वारा समाज में परिवर्तन का क्षणिक आभास आ सकता है परन्तु वास्तविक या स्थायी परिवर्तन नहीं आता। स्थायी परिवर्तन के लिए अहिंसा को ही माध्यम बनाना होगा। हिंसक मानसिकता में परदुख कातरता नहीं होती परिणाम स्वरूप हिंसकता शोषक बन जाती है। हिंसा पहले अन्याय के प्रतिकार का आवरण ओढ़ती है और हिंसा से शक्ति सामर्थ्य व सत्ता मिलते ही वह स्वयं अत्याचार और शोषण में बदल जाती है। परिणाम स्वरूप नए शोषित व असंतुष्ट पैदा होते है। और हिंसा-प्रतिहिंसा का एक दुष्चक्र चलायमान होता है। परिवार समाज देश और विश्व में यदि शांति के संदर्शन हो सकते है तो वह मात्र अहिंसा से ही।

वर्तमान युग में हिंसा के साधनो की प्रचुरता और तनाव उपार्जित अधैर्य नें हिंसा की सम्भावनाओं को अनेक गुना बढ़ा दिया है। हिंसा द्वारा हिंसा का उन्मूलन कर अहिंसा की प्रतिष्ठा सम्भव ही नहीं। स्याही से सने वस्त्र को स्याही से धोना बुद्धिमत्ता नहीं, स्याही के दाग पानी से ही धोए जा सकते है, ठीक उसी प्रकार हिंसा का प्रतिकार अहिंसा से ही किया जा सकता है। यदि कोई कहे कि हम हिंसा का प्रतिकार हिंसा से ही करेंगे तो यह दुराशा मात्र है।

कुछ लोगों की ऐसी धारणा बन गई है कि अहिंसा केवल धार्मिक क्षेत्र की वस्तु है, मगर यह भ्रांति है। अहिंसा का क्षेत्र बहुत ही व्यापक है। मानव जीवन के जितने भी क्षेत्र है, सभी अहिंसा की क्रिड़ा-भूमि है। धर्म, राजनीति, समाज, अर्थनीति, व्यापार, अध्यात्म, शिक्षा, स्वास्थ्य और विज्ञान आदि सभी क्षेत्रों में अहिंसा का अप्रतिहत प्रवेश है। उसके लिए न स्थान की कोई सीमा है और न काल की किसी परिधि से आबद्ध है। अहिंसा किन्तु परन्तु के विचलन से प्रभावित होते ही स्वच्छंद बनकर विपरित परिणामी हो जाती है।

जो लोग अहिंसा को कायरता का चिन्ह कहकर अहिंसात्मक प्रतिकार को अव्यवहार्य मानते है, उन्होने जिन्दगी की पोथी को अनुभव की आंखों से नहीं पढ़ा। वे अहिंसा की असीम शक्ति से अनभिज्ञ है और अहिंसा के स्वरूप को भी शायद नहीं समझते। क्या ईंट का जवाब पत्थर से देना या पद-पद पर संघर्ष करना ही शूर-वीरता का लक्षण है? अहिंसक प्रतिकार द्वारा दूसरे के हृदय पर विजय पाना ही शूर-वीरता है। हिंसा के मार्ग पर चलने वाले आखिर ऊब जाते है, थक जाते है और उससे हटने को तैयार हो जाते है। जिन्होने बड़े जोश के साथ लड़ाईयां लड़ी और कत्ले आम किया, उन्हे भी अन्त में सुलह करने को तैयार होना पडा। अतएव हिंसा का मार्ग राजमार्ग नहीं है, अहिंसा का मार्ग ही राजमार्ग और व्यवहार्य मार्ग है।

आज अहिंसा दिवस पर यह निश्चय करें कि- धैर्य की उर्वरक हृदय भूमि पर अहिंसा निष्कंटक फले-फूले।

24 सितंबर 2012

माली : सम्यक निष्ठा

उपवन में नए सुन्दर सलौने पौधे को आया पाकर एक पुराना पौधा उदास हो जाता है। गहरा निश्वास छोड़ते हुए कहता है, “अब हमें कोई नहीं पूछेगा अब हमारे प्रेम के दिन लद गए, हमारी देखभाल भी न होगी।“

युवा पौधे को इस तरह बिसूरते देख पास खड़े अनुभवी प्रौढ़ पेड़ ने कहा, “इस तरह विलाप-प्रलाप उचित नहीं हैं ।और  न ही नए  पौधे से ईर्ष्या करना योग्य  है।“

युवा पौधा आहत स्वर में बोला, “तात! पहले माली हमारा कितना ध्यान रखता था, हमें कितना प्यार करता था। अब वह अपना सारा दुलार उस  नन्हे पौधे को दे रहा है। उसी के साथ मगन रहता है, हमारी तरफ तो आँख उठाकर भी नहीं देखता।“

प्रौढ़ पेड़ ने समझाते हुए कहा, “वत्स! तुम गलत सोच रहे हो, बागवान सभी को समान स्नेह करता है। वह अनुभवी है, उसे पता है कब किसे अधिक ध्यान की आवश्यकता है। वह अच्छे से जानता है, किसे देखभाल की ज्यादा जरूरत है और किसे कम।“

युवा पौधा अब भी नाराज़ था, बोला- “नहीं तात! माली के मन पक्षपात हो गया है, नन्हे की कोमल कोपलों से उसका मोह अधिक है। वह सब को एक नज़र से नहीं देखता।“

अनुभवी पेड़ ने गम्भीरता से कहा- “नहीं, वत्स! ऐसा कहकर तुम माली के असीम प्यार व अवदान का अपमान कर रहे हो। याद करो! बागवान हमारा कितना ध्यान रखता था। उसके प्यार दुलार के कारण ही आज हम पल्ल्वित, पोषित, बड़े हुए है। हरे भरे और तने खड़े है। उसी के अथक परिश्रम से आज हम इस योग्य है कि हमें विशेष तवज्जो की जरूरत नहीं रही। तुम्हें माली की नजर में वात्सल्य न दिखे, किन्तु हम लोगों को सफलता से सबल बना देने का गौरव, उसकी आँखो में महसुस कर सकते हो। वत्स! अगर माली का संरक्षण व सुरक्षा हमें न मिलती तो शायद बचपन में ही पशु-पक्षी हमारा निवाला बना चुके होते या नटखट बच्चे हमें नोंच डालते। हम तो नादान थे, पोषण पानी की हमें कहां सुध-बुध थी, होती तो भी कहां हमारे पैर थे जो भोजन पानी खोज लाते? हम तो जन्मजात मुक है, क्षुधा-तृषा बोलकर व्यक्त भी नहीं कर सकते। वह माली ही था जिसने बिना कहे ही हमारी भूख-प्यास को पहचाना और तृप्त किया। उस पालक के असीम उपकार को हम कैसे भूल सकते है।“

युवा पौधा भावुक हो उठा- “तात! आपने मेरी आँखे खोल दी। मैं सम्वेदनाशून्य हो गया था। आपने यथार्थ दृष्टि प्रदान की है। ईर्ष्या के अगन में भान भूलकर अपने ही निर्माता-पालक का अपमान कर बैठा। मुझे माफ कर दो।“

युवा पौधा प्रायश्चित का उपाय सोचने लगा, अगले ही मौसम में फल आते ही वह झुक कर माली के चरण छू लेगा। दोनो ने माली को कृतज्ञ नजरों से देखा और श्रद्धा से सिर झुका दिया।

18 सितंबर 2012

सामर्थ्य का दुरुपयोग

एक था चूहा, एक थी गिलहरी। चूहा शरारती था। दिन भर 'चीं-चीं' करता हुआ मौज उड़ाता। गिलहरी भोली थी।'टी-टी' करती हुई इधर-उधर घूमा करती।

संयोग से एक बार दोनों का आमना-सामना हो गया। अपनी प्रशंसा करते हुए चूहे ने कहा, "मुझे लोग मूषकराज कहते हैं और गणेशजी की सवारी के रुप मे रूप में खूब जानते हैं। मेरे पैने-पैने हथियार सरीखे दांत लोहे के पिंजरे तो क्या, किसी भी चीज को काट सकते हैं।"

मासूम-सी गिलहरी को यह सुनकर  बुरा सा लगा। बोली, "भाई, तुम दूसरों का नुकसान करते हो, फायदा नहीं। यदि अपने दाँतों पर तुम्हें इतना गर्व है, तो इनसे कोई नक्काशी क्यों नहीं करते? इनका उपयोग करो, तो जानू! जहां तक मेरा सवाल है, दाँत तो मेरे भी तेज है,कितना भी कठोर बीज हो तोड, साफ करके संतोष से खा लेती हूं। पर मनमर्जी दुरुपयोग नहीं करती। मुझ में कोई खाश गुण तो नहीं पर मेरे बदन पर तीन धारियां देख रहे हो न, बस ये ही मेरा संदेश है।"

चूहा बोला, "तुम्हारी तीन धारियों की विशेषता क्या है?"

गिलहरी बोली, "वाह! तुम्हें पता नहीं? दो काली धारियों के बीच एक सफेद धारी है। यह तमस के मध्य आशाओँ का प्रकाश है। दो काली अंधेरी रातों के बीच ही एक सुनहरा दिन छिपा रहता है, भरोसा रखो। यह प्रतीक है कि कठिनाइयों की परतों के बीच मेँ ही असली सुख बसता है।" संदेश सुनकर चूहा लज्जित हो गया।

सामर्थ्य का उपयोग दूसरोँ को हानि पहुँचाने मेँ नहीं, उनके मार्ग में आशा दीप जगाने मेँ होना चाहिए.

14 सितंबर 2012

हिंसा-प्रतिहिंसा से संतोषप्रद निर्णायक समाधान असंभव है।

आज जगत में हिंसा और प्रतिहिंसा का बोलबाला है। इसका प्रमुख कारण है लोगों में अधैर्य, असहनशीलता और आक्रोश की बढ़ती दर। सुखी सम्पन्न बनने की प्रतिस्पर्धा हो या सुरक्षित जीवन यापन का संघर्ष, व्यक्ति प्रतिक्षण तनाव में जीता है। यह तनाव ही उसे आवेश और अधैर्य की ओर ले जाता है। संतुष्ट और सुखी जीवन, अहिंसक जीवन मूल्यों से ही उपार्जित किया जा सकता है। किन्तु व्यक्ति के सहनशीलता और सब्र की सोच तथा भाव परित्यक्त हो चुके होते है। अन्तत: सुख के सरल मार्ग को छोड व्यक्ति अनावश्यक संघर्ष को ही जीवट मान इठलाता है।

अन्याय का जवाब हिंसा से दिया जाना सहज सामान्य प्रवृत्ति है किन्तु निराकरण पूर्णतया निष्फल ही होता है। आवेश आक्रोश से हमारे अपने मित्र तक हमसे सहमत नहीं होते तो फिर जो अन्यायी है, अवरोधक है वे हमारे आवेश, आक्रोश व प्रतिहिंसा से कैसे सुधर सकते है। अधैर्य-असहनशीलता हमेशा आक्रोश को जन्म देती है और आक्रोश हिंसा को, हिंसा प्रतिशोध को, और प्रतिशोध सहित दो तरफा आतंक को, क्योंकि व्यक्ति अपने प्रति हिंसा के भय की प्रतिक्रिया में भी आतंक फैलाता है। प्रतिशोध और आतंक पुनः हिंसा को जन्म देते है। इस प्रकार हिंसा प्रतिहिंसा एक दुश्चक्र की तरह स्थापित हो जाती है।

मानव सहित जीव मात्र का उद्देश्य है सुखी व संतुष्ट बनना। किन्तु उसे पाने का मार्ग हमने उलटा अपना रखा है। यह असफलता पर समाप्त होने वाला मिथ्या मार्ग है, दूसरों का दमन कभी भी सुखी व संतुष्ट बनने का समाधानकारी मार्ग नहीं हो सकता। आक्रोश व प्रति-अन्याय निदान नहीं है। सुखी तो सभी बनना चाहते है लेकिन सभी को संदेह है कि दूसरे उसे सुखी व संतुष्ट नहीं बनने देंगे अतः सभी दूसरों को आतंकित कर अपने सुखों को सुरक्षित करने के मिथ्या प्रयत्न में लगे हुए है। यदि दमन ही करना है तो दूसरों का दमन नहीं अपनी वृतियों दमन करना होगा, अपने क्रोध, अहंकार, कपट, और लोभ का दमन कर क्षमा, नम्रता सरलता और संतोष को अपनाना होगा। समता, सहनशीलता, धैर्य और विवेक को स्थान देना होगा।

हमें अनुभव हो सकता है कि ऐसे जीवन मूल्य कहां सफल होते है, किन्तु सफलता के निहितार्थ तुच्छ से स्वतः उत्कृष्ट हो जाते है। सभी को यही लगता है कि अपनी ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा तो अपने लिए जरूरी साधन है किन्तु दूसरों की ईर्ष्या प्रतिस्पर्धा हमारे सुखों का अतिक्रमण है। सही मार्ग तो यह है कि इस धारणा को बल प्रदान किया जाय कि दूसरे सुखी व संतुष्ट होंगे तो संतुष्ट लोग हमारे सुखों पर कभी अतिक्रमण नहीं करेंगे और सुख सभी के लिए सहज प्राप्य रहेंगे। अन्यथा जरा से सुख को लभ्य बनाने के संघर्ष में अनेक गुना प्रतिस्पर्धा अनेक गुना संघर्ष और उस सुख भोग से भी लम्बा काल संघर्ष में व्यर्थ हो जाएगा। उसके बाद सुख पाया भी (जो कि असम्भव होगा) तो उसमें आनन्द कहाँ शेष बचेगा?

इसलिए इस छोटे से जीवन को अनावश्यक संघर्ष, प्रतिस्पर्धा, उठापटक में अपव्यय होने से बचाना होगा। उसका एक ही तरीका है संतोष में व्याप्त सुख को पहचानना और उसका आस्वादन करना। हिंसा प्रतिहिंसा के दुश्चक्र को समाप्त करना और अहिंसक जीवन मूल्यों को सार्थक सफलता के रूप में पहचानना होगा।

7 सितंबर 2012

आधा किलो आटा

एक नगर का सेठ अपार धन सम्पदा का स्वामी था। एक दिन उसे अपनी सम्पत्ति के मूल्य निर्धारण की इच्छा हुई। उसने तत्काल अपने लेखा अधिकारी को बुलाया और आदेश दिया कि मेरी सम्पूर्ण सम्पत्ति का मूल्य निर्धारण कर ब्यौरा दीजिए, पता तो चले मेरे पास कुल कितनी सम्पदा है।

सप्ताह भर बाद लेखाधिकारी ब्यौरा लेकर सेठ की सेवा में उपस्थित हुआ। सेठ ने पूछा- “कुल कितनी सम्पदा है?” लेखाधिकारी नें कहा – “सेठ जी, मोटे तौर पर कहूँ तो आपकी सात पीढ़ी बिना कुछ किए धरे आनन्द से भोग सके इतनी सम्पदा है आपकी”

लेखाधिकारी के जाने के बाद सेठ चिंता में डूब गए, 'तो क्या मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मरेगी?' वे रात दिन चिंता में रहने लगे।  तनाव ग्रस्त रहते, भूख भाग चुकी थी, कुछ ही दिनों में कृशकाय हो गए। सेठानी द्वारा बार बार तनाव का कारण पूछने पर भी जवाब नहीं देते। सेठानी से हालत देखी नहीं जा रही थी। उसने मन स्थिरता व शान्त्ति के किए साधु संत के पास सत्संग में जाने को प्रेरित किया। सेठ को भी यह विचार पसंद आया। चलो अच्छा है, संत अवश्य कोई विद्या जानते होंगे जिससे मेरे दुख दूर हो जाय।

सेठ सीधा संत समागम में पहूँचा और एकांत में मिलकर अपनी समस्या का निदान जानना चाहा। सेठ नें कहा- "महाराज मेरे दुख का तो पार नहीं है, मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मर जाएगी। मेरे पास मात्र अपनी सात पीढ़ी के लिए पर्याप्त हो इतनी ही सम्पत्ति है। कृपया कोई उपाय बताएँ कि मेरे पास और सम्पत्ति आए और अगली पीढ़ियाँ भूखी न मरे। आप जो भी बताएं मैं अनुष्ठान ,विधी आदि करने को तैयार हूँ”

संत ने समस्या समझी और बोले- "इसका तो हल बड़ा आसान है। ध्यान से सुनो सेठ, बस्ती के अन्तिम छोर पर एक बुढ़िया रहती है, एक दम कंगाल और विपन्न। उसके न कोई कमानेवाला है और न वह कुछ कमा पाने में समर्थ है। उसे मात्र आधा किलो आटा दान दे दो। अगर वह यह दान स्वीकार कर ले तो इतना पुण्य उपार्जित हो जाएगा कि तुम्हारी समस्त मनोकामना पूर्ण हो जाएगी। तुम्हें अवश्य अपना वांछित प्राप्त होगा।"

सेठ को बड़ा आसान उपाय मिल गया। उसे सब्र कहां था, घर पहुंच कर सेवक के साथ क्वीन्टल भर आटा लेकर पहुँच गया बुढिया के झोपडे पर। सेठ नें कहा- “माताजी मैं आपके लिए आटा लाया हूँ इसे स्वीकार कीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा आटा तो मेरे पास है, मुझे नहीं चाहिए”

सेठ ने कहा- "फिर भी रख लीजिए"

बूढ़ी मां ने कहा- "क्या करूंगी रख के मुझे आवश्यकता नहीं है"

सेठ ने कहा- "अच्छा, कोई बात नहीं, क्विंटल नहीं तो यह आधा किलो तो रख लीजिए"

बूढ़ी मां ने कहा- "बेटा, आज खाने के लिए जरूरी, आधा किलो आटा पहले से ही  मेरे पास है, मुझे अतिरिक्त की जरूरत नहीं है"

सेठ ने कहा- "तो फिर इसे कल के लिए रख लीजिए"

बूढ़ी मां ने कहा- "बेटा, कल की चिंता मैं आज क्यों करूँ, जैसे हमेशा प्रबंध होता है कल के लिए कल प्रबंध हो जाएगा"  बूढ़ी मां ने लेने से साफ इन्कार कर दिया।

सेठ की आँख खुल चुकी थी, एक गरीब बुढ़िया कल के भोजन की चिंता नहीं कर रही और मेरे पास अथाह धन सामग्री होते हुए भी मैं आठवी पीढ़ी की चिन्ता में घुल रहा हूँ। मेरी चिंता का कारण अभाव नहीं तृष्णा है।

वाकई तृष्णा का कोई अन्त नहीं है। संग्रहखोरी तो दूषण ही है। संतोष में ही शान्ति व सुख निहित है।

अन्य सूत्र......
आसक्ति की मृगतृष्णा
मधुबिन्दु
लोभ
भोग-उपभोग

31 अगस्त 2012

ध्यान की साधना और मन की दौड़

एक व्यक्ति ने किसी साधु से कहा, "मेरी पत्नी धर्म-साधना-आराधना में बिलकुल ध्यान नहीं देती। यदि आप उसे थोड़ा बोध दें तो उसका मन भी धर्म-ध्यान में रत हो।"

 साधु बोला, "ठीक है।""

अगले दिन प्रातः ही साधु उस व्यक्ति के घर गया। वह व्यक्ति वहाँ नजर नहीं आया तो  साफ सफाई में व्यस्त उसकी पत्नी से साधु ने उसके बारे में पूछा। पत्नी ने कहा, "वे चमार की दुकान पर गए हैं।"

पति अन्दर के पूजाघर में माला फेरते हुए ध्यान कर रहा था। उसने पत्नी की बात सुनी। उससे यह झूठ सहा नहीं गया। त्वरित बाहर आकर बोला, "तुम झूठ क्यों बोल रही हो, मैं पूजाघर में था और तुम्हे पता भी था।""

साधु हैरान हो गया। पत्नी ने कहा- "आप चमार की दुकान पर ही थे, आपका शरीर पूजाघर में, माला हाथ में किन्तु मन से चमार के साथ बहस कर रहे थे।"

पति को होश आया। पत्नी ठीक कह रही थी। माला फेरते-फेरते वह सचमुच चमार की दुकान पर ही चला गया था।  कल ही खरीदे जूते क्षति वाले थे, खराब खामी वाले जूते देने के लिए, चमार को क्या क्या सुनाना है वही सोच रहा था। और उसी बात पर मन ही मन चमार से बहस कर रहा था।

पत्नी जानती थी उनका ध्यान कितना मग्न रहता है। वस्तुतः रात को ही वह नये जूतों में खामी की शिकायत कर रहा था, मन अशान्त व असन्तुष्ट था। प्रातः सबसे पहले जूते बदलवा देने की बेसब्री उनके व्यवहार से ही प्रकट हो रही थी, जो उसकी पत्नी की नजर से नहीं छुप सकी थी।

साधु समझ गया, पत्नी की साधना गजब की थी और ध्यान के महत्व को उसने आत्मसात कर लिया था। निरीक्षण में भी एकाग्र ध्यान की आवश्यकता होती है। पति की त्रृटि इंगित कर उसे एक सार्थक सीख देने का प्रयास किया था।

धर्म-ध्यान का मात्र दिखावा निर्थक है, यथार्थ में तो मन को ध्यान में पिरोना होता है। असल में वही ध्यान साधना बनता है। यदि मन के घोड़े बेलगाम हो तब मात्र शरीर को एक खूँटे से बांधे रखने का भी क्या औचित्य?

29 अगस्त 2012

उदार मानस, उदात्त दृष्टि

पुराने जमाने की बात है। ग्रीस देश के स्पार्टा राज्य में पिडार्टस नाम का एक नौजवान रहता था। वह उच्च शिक्षा प्राप्त कर विशिष्ट विद्वान बन गया था।

एक बार उसे पता चला कि राज्य में तीन सौ जगहें खाली हैं। वह नौकरी की तलाश में था ही। इसलिए उसने तुरन्त अर्जी भेज दी।लेकिन जब नतीजा निकला तो मालूम पड़ा कि पिडार्टस को नौकरी के लिए नहीं चुना गया था।

जब उसके मित्रों को इसका पता लगा तो उन्होंने सोचा कि इससे पिडार्टस बहुत दुखी हो गया होगा, इसलिए वे सब मिलकर उसे आश्वासन देने उसके घर पहुंचे।

पिडार्टस ने मित्रों की बात सुनी और हंसते-हंसते कहने लगा, "मित्रों, इसमें दुखी होने की क्या बात है? मुझे तो यह जानकर आनन्द हुआ है कि अपने राज्य में मुझसे अधिक योग्यता वाले तीन सौ युवा हैं।"

उदात्त दृष्टि जीवन में प्रसन्नता की कुँजी है। 
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हिन्दी ब्लॉगजगत की उन्नति एक दूसरे के विकास में सहभागिता से ही सम्भव है। " together we progress " सूत्र ही सार्थ है। यश-कीर्ती की उपलब्धि भले न्यायसंगत न हो, 'टांग खींचाई' तो निर्थक और स्वयं अपने ही पांवो पर कुल्हाड़ी के समान है। सभी की सफलता के प्रति उदात्त भावना ही सामुहिक रूप से सभी की सफलता है। विकास सदैव सहयोग में ही निहित है।


'परिकल्पना सम्मान' से सम्मानित सभी ब्लॉगर/चिट्ठाकारों को बधाई!!

हिन्दी ब्लॉगजगत की विकास भावना के लिए आयोजकों को भी बधाई!!



28 अगस्त 2012

सीख के उपहार

प्राचीन मिथिला देश में नरहन (सरसा) राज्य का भी बड़ा महत्व था। वहां का राजा बड़ा उदार और विद्वान् था। अपनी प्रजा के प्रति सदैव वात्सल्य भाव रखता था। प्रजा को वह सन्तान की तरह चाहता था, प्रजा भी उसे पिता की तरह मानती थी। किन्तु उसकी राजधानी में एक गरीब आदमी था, जो हर घड़ी राजा की आलोचना किया करता। राजा को इस बात की जानकरी थी किन्तु वे इस आलोचना के प्रति उपेक्षा भाव ही रखते।

एक दिन राजा ने इस बारे में गम्भीरता से सोचा। फिर अपने सेवक को 'गेहूं के आटे के बडे मटके', 'वस्त्र धोने का क्षार', 'गुड़ की ढेलियां'   बैलगाड़ी पर लाद कर उसके यहां भेजा।

राजा से उपहार में इन वस्तुओं को पाकर वह आदमी गर्व से फूल उठा। हो न हो, राजा ने ये वस्तुएँ उससे डर कर भेजी हैं। सामान को घर में रखकर वह अभिमान के साथ राजगुरु के पास पहुँचा। सारी बात बताकर बोला, "गुरुदेव! आप मुझसे हमेशा चुप रहने को कहा करते थे। यह देखिये, राजा मुझसे डरता है।"

राजगुरु बोले, "बलिहारी है तुम्हारी समझ की! अरे! राजा को अपने अपयश का डर नहीं है उसे मात्र यह चिंता है कि तुम्हारी आलोचनाओं पर विश्वास करके कोई अभिलाषी याचना से ही वंचित न रह जाय। राजा ने इन उपहारों द्वारा तुम्हे सार्थक सीख देने का प्रयास किया है। वह यह कि हर समय मात्र निंदा में ही रत न रहो, संतुष्ट रहो, शुभ-चिंतन करो और मधुर संभाषण भी कर लिया करो। आटे के यह मटके तुम्हारे पेट पुष्टि के साथ तुम्हारे संतुष्ट भाव के लिए हैं, क्षार तुम्हारे वस्त्रो के मैल दूर करने के साथ ही मन का मैल दूर करने के लिए है और गुड़ की ये ढेलियां तुम्हारी कड़ुवी जबान को मीठी बनाने के लिए हैं।"

25 अगस्त 2012

हिंसा का बीज़

कस्बे में एक महात्मा थे। सत्संग करते और लोगों को धैर्य, अहिंसा, सहनशीलता, सन्तोष आदि के सदुपदेश देते। उनके पास सत्संग मे बहुत बड़ी संख्या में भक्त आने लगे। एक बार भक्तों ने कहा महात्मा जी आप कस्बे में अस्पताल, स्कूल आदि भी बनवाने की प्रेरणा दीजिए। महात्मा जी ने ऐसा ही किया। भक्तों के अवदान और परिश्रम से योजनाएं भी बन गई। योजनाओं में सुविधा के लिए भक्तों नें, कस्बे के नेता को सत्संग में बुलाने का निर्णय किया।

नेताजी सत्संग में पधारे और जनसुविधा के कार्यों की जी भरकर सराहना  की और दानदाताओं की प्रशंसा भी। किन्तु महात्मा जी की विशाल जनप्रियता देखकर, अन्दर ही अन्दर जल-भुन गए। महात्मा जी के संतोष और सहनशीलता के उपदेशों के कारण कस्बे में समस्याएं भी बहुत कम थी। परिणाम स्वरूप नेता जी के पास भीड कम ही लगती थी।

घर आकर नेताजी सोच में डूब गए। इतनी अधिक जनप्रियता मुझे कभी भी प्राप्त नहीं होगी, अगर यह महात्मा अहिंसा आदि सदाचारों का प्रसार करता रहा। महात्मा की कीर्ती भी इतनी सुदृढ थी कि उसे बदनाम भी नहीं किया जा सकता था। नेता जी अपने भविष्य को लेकर चिंतित थे।आचानक उसके दिमाग में एक जोरदार विचार कौंधा और निश्चिंत होकर आराम से सो गए।

प्रातः काल ही नेता जी पहूँच गए महात्मा जी के पास। थोडी ज्ञान ध्यान की बात करके नेताजी नें महात्मा जी से कहा आप एक रिवाल्वर का लायसंस ले लीजिए। एक हथियार आपके पास हमेशा रहना चाहिए। इतनी पब्लिक आती है पता नहीं कौन आपका शत्रु हो? आत्मरक्षा के लिए हथियार का पास होना बेहद जरूरी है।

महात्मा जी नें कहा, "बंधु! मेरा कौन शत्रु?  शान्ति और सदाचार की शिक्षा देते हुए भला  मेरा कौन अहित करना चाहेगा। मै स्वयं अहिंसा का उपदेश देता हूँ और अहिंसा में मानता भी हूँ।" नेता जी नें कहा, "इसमें कहाँ आपको कोई हिंसा करनी है। इसे तो आत्मरक्षा के लिए अपने पास रखना भर है। हथियार पास हो तो शत्रु को भय रहता है, यह तो केवल सावधानी भर है।" नेताजी ने छूटते ही कहा, "महात्मा जी, मैं आपकी अब एक नहीं सुनूंगा। आपको भले आपकी जान प्यारी न हो, हमें तो है। कल ही मैं आपको लायसंस शुदा हथियार भैंट करता हूँ।"

दूसरे ही दिन महात्मा जी के लिए चमकदार हथियार आ गया। महात्मा जी भी अब उसे सदैव अपने पास रखने लगे। सत्संग सभा में भी वह हथियार, महात्मा जी के दायी तरफ रखे ग्रंथ पर शान से सजा रहता। किन्तु अब पता नहीं, महाराज जब भी अहिंसा पर प्रवचन देते, शब्द तो वही थे किन्तु श्रोताओं पर प्रभाव नहीं छोडते थे। वे सदाचार पर चर्चा करते किन्तु लोग आपसी बातचित में ही रत रहते। दिन प्रतिदिन श्रोता कम होने लगे।

एक दिन तांत्रिकों का सताया, एक विक्षिप्त सा  युवक सभा में हो-हल्ला करने लगा। महाराज नें उसे शान्त रहने के लिए कहा। किन्तु टोकने पर उस युवक का आवेश और भी बढ़ गया और वह चीखा, “चुप तो तूँ रह पाखण्डी” इतना सुनना था कि महात्मा जी घोर अपमान से क्षुब्ध हो उठे। तत्क्षण क्रोधावेश में निकट रखा हथियार उठाया और हवाई फायर कर दिया। लोगों की जान हलक में अटक कर रह गई।

उसके बाद कस्बे में महात्मा जी का सत्संग वीरान हो गया और नेताजी की जनप्रियता दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी।

23 अगस्त 2012

बहादुरी का अतिशय दंभ व्यक्ति को मूढ़ बना देता है।

पुराने समय की बात है जब ठाकुरों में आन बान शान और उसका दंभ हमेशा सिर चढ़ा रहता था। गांव में एक ठाकुर और एक बनिए का घर आमने सामने था। प्रातः काल दोनो ही अपनी दातुन विधी, घर के बाहरी चौकी पर सम्पन्न किया करते थे। प्रायः ठाकुर दातुन के पश्चात भीगी मूँछों पर ताव दिया करते, और सामने बैठा बनिया भी मुंह धोने के बाद सहज ही मूँछों पर दोनों हाथ फेरा करता था। ठाकुर को अपने सामने ही एक भीरू बनिए का यूँ मूँछों पर ताव देना हमेशा नागवार गुजरता था। मन तो करता था उसी समय बनिए को सबक सिखा दे लेकिन घर परिवार की उपस्थित में  ठीक न मानकर मन मसोस कर रह जाते। प्रतिदिन की यह क्रिया उनके रोष की ज्वाला को और भी तीव्र किए जाती थी।

संयोगवश एक दिन गांव के बाहर मार्ग में दोनो का आमना सामना हो ही गया। ठाकुर ने बनिए को देखते ही गर्जना की- “क्यों बे बनिए, शूरवीरता बढ़ गई है जो हमेशा मेरे सामने ही अपनी मूँछो पर ताव देता है?” बनिया भांप गया, आज तो गए काम से। किन्तु फिर भी अपने आप को सम्हालते हुए बोला, “वीरता और बहादुरी किसी की बपौती थोडे ही है”

ठाकुर फिर गरजा- “ अच्छा!? तो निकाल अपनी तलवार, आज बहादुरी और बल का फैसला हो ही जाय”

तत्काल बनिया नम्र होते हुए बोला- "देखिए ठाकुर साहब, अगर लड़ाई होगी तो हम में से किसी एक का वीरगति को प्राप्त होना निश्चित है। मरने के बाद निश्चित ही हमारा परिवार अनाथ हो जाएगा। उन्हें पिछे देखने वाला कौन? अतः क्यों न हम पहले पिछे की झंझट का सफाया कर दें, फिर निश्चिंत होकर बलाबल की परीक्षा करें?"

ठाकुर साहब मान गए। घर जाकर, सफाया करके पुनः निर्णय स्थल पर आ गए। थोडी ही देर में बनिया जी भी आ गए। ठाकुर ने कहा- “ले अब आ जा मैदान में”

बनिए नें कहा- “ठहरीए ठाकुर साहब! क्या है कि मैं जब सफाया करने घर गया तो सेठानी नें कहा कि- यह सब करने की जरूरत नहीं आप अपनी मूँछ नीचे कर देना और कभी ताव न देने का वादा कर देना, अनावश्यक लडाई का क्या फायदा?”

"इसलिए लीजिए मैं अपनी मूँछ नीचे करता हूँ और आपके सामने कभी उन पर ताव नहीं दूँगा।"

"चल फुट्ट बे डरपोक कहीं का!!" कहते हुए दूसरे ही क्षण ठाकुर साहब, दोनो हाथों से अपना सर पकडते हुए वहीं पस्त होकर बैठ गए।

बहादुरी का अतिशय दंभ व्यक्ति को मूढ़ बना देता है।
(यह एक दंत कथा है)

21 अगस्त 2012

अलिप्त

मिथिला में एक बड़े ही धर्मात्मा एवं ज्ञानी राजा थे। राजकाज के विभिन्न कार्य और राजमहल के भारी ठाट-बाट के उपरांत भी वे उसमें लिप्त नहीं थे। राजॠषि की यह ख्याति सुनकर एक साधु उनसे मिलने आया। राजा ने साधु का हृदय से स्वागत सम्मान किया और दरबार में आने का कारण पूछा।

साधु ने कहा, "राजन्! सुना है कि इतने बड़े महल में आमोद प्रमोद के साधनों के बीच रहते हुए भी आप इनके सुखोपभोग से अलिप्त रहते हैं, ऐसा कैसे कर पाते है? मैंने वर्षों हिमालय में तपस्या की, अनेक तीर्थों की यात्राएं कीं, फिर भी मन को इतना नहीं साध सका। जबकि संसार के श्रेष्ठतम सुख साधन व समृद्धि के सहज उपलब्ध रहते यह बात आपने कैसे साध ली?"

राजा ने उत्तर दिया, "महात्माजी! आप असमय में आए हैं। यह मेरे काम का समय है। आपके सवाल का जवाब मैं थोड़ी देर बाद ही दे पाउँगा। तब तक आप इस राजमहल का भ्रमण क्यों नहीं कर लेते? आप इस दीये को लेकर पूरा महल देख आईए। एक बात का विशेष ध्यान रखें कि दीया बुझने न पाए, अन्यथा आप रास्ता भटक जाएंगे।"

साधु दीया लेकर राजमहल को देखने चल दिए। कईं घन्टे बाद जब वे लौटे तो राजा ने मुस्करा कर पूछा, "कहिए, महात्मन् ! मेरा महल कैसा लगा?"

साधु बोला, "राजन्! मैं आपके महल के हर भाग में गया। सब कुछ देखा, किन्तु फिर भी वह अनदेखा रह गया।"

राजा ने पूछा, "क्यों?"

साधु ने कहा, "राजन्! मेरा सारा ध्यान इस दीये पर लगा रहा कि कहीं यह बुझ न जाय!"

राजा ने उत्तर दिया, "महात्माजी! इतना बड़ा राज चलाते हुए मेरे साथ भी यही होता है। मेरा सारा ध्यान अपनी आत्मा पर लगा रहता है। कहीं मेरे आत्मज्ञान की ज्योति मंद न हो जाय। किसी अनुचित कर्म की तमस मुझे घेर न ले, अन्यथा मैं मार्ग से भटक जाउंगा। चलते-फिरते, उठते-बैठते, कार्य करते यह बात स्मृति में रहती है। मेरा ध्यान चेतन रहता है कि सुखोपभोग के प्रलोभन में कहीं मै अपने आत्म को मलीन न कर दूँ। इसलिए साक्षी भाव से सारे कर्तव्य निभाते हुए भी संसार के मोहजाल से अलिप्त रह पाता हूँ।

साधु राजा के चरणों में नत मस्तक हो गया। आज उसे नया ज्ञान प्राप्त हुआ था, आत्मा की सतत जागृति, प्रतिपल स्मृति ही अलिप्त रहने में सहायक है।

17 अगस्त 2012

आत्मरक्षा में की गई हिंसा, हिंसा नहीं होती ????

‘हिंसा’ चाहे कितने ही उचित कारणों से की जाय कहलाती ‘हिंसा’ ही है। उसका किसी भी काल, कारण, स्थिति, के कारण ‘अहिंसा’ में परिवर्तन नहीं हो जाता। वैसे तो प्रतिकार या आत्मरक्षा में हिंसा का हो जाना सम्भव है,  तब भी वह विवशता में की गई ‘हिंसा’ ही कहलाएगी। ऐसी हिंसा के लाख अवश्यंभावी कारण जता कर भी उसे ‘अहिंसा’ रूप में स्थापित नहीं जा सकता। प्रतिरक्षात्मक हिंसा को भी सर्वसामान्य सहज बनाया भी नहीं जाना चाहिए, अन्यथा अनियंत्रित अराजकाता ही फैल जाएगी। इस तरह तो प्रतिरक्षा या प्रतिशोध को आगे कर प्रत्येक व्यक्ति हिंसा में रत रहने लगेगा और उसे अभिमान पूर्वक 'अहिंसा' कहने लगेगा।

विधि-नियमानुसार भी अभियोग में, आत्मरक्षार्थ हिंसा हो जाने पर मात्र अपराध की तीव्रता कम होती है, समूचा अपराध ही सुकृत्य में नहीं बदल जाता न ही उस कृत्य को अहिंसा स्वरूप स्वीकार किया जाता है। कानून किसी को भी दंडित कर देने की जनसामान्य को  अनुमति नहीं देता, चाहे दंड देना कितना भी न्यायसंगत हो। अदालती भाषा में इसे ‘कानून हाथ में लेना’ कहते है। अन्यथा लोग स्वयं न्यायाधीश बन, प्रतिरक्षार्थ एक दूसरे को दंडित ही करते ही रहेंगे। और बाकी जो बच जाय उन्हें प्रतिशोध में दंडित करेंगे। इस तरह तो हिंसा का ही राज स्थापित हो जाएगा। इसीलिए अत्याचार और अन्याय के बाद भी प्रतिशोध में दंडित करने का अधिकार अत्याचार भोगी को भी नहीं दिया गया है। हिंसक विचारधारा और हिंसा की यह व्यवस्था सभ्य समाज में स्वीकृत नहीं होती।

इसका भी कारण है सभी तरह के कारणों कारकों पर समुचित विचार करने के बाद ही अपराध निश्चित किया जाता है। प्रतिरक्षा में हिंसा अपवाद स्वरूप है प्रतिरक्षात्मक हिंसा से पहले भी अन्य सभी विकल्पों पर विचार किया जाता है। यह सुनिश्चित करने के लिए ही  न्यायालय व्यवस्था होती है। अन्यथा सामन्य जन द्वारा तो जल्दबाजी आवेश क्रोध आदि वश निरपराधी की हिंसा हो सकती है। धैर्य, सहनशीलता या समता हमेशा विवेक को सक्रिय करने के उद्देश्य से ही होती है।

पालतू नेवले और माँ की वह बोध-कथा है जिसमें सोए बच्चे को बचाने के लिए नेवला सांप से लडता है और उसको मार देता है, घड़ा भरकर घर आते ही द्वार पर मां नेवले के मुँह में रक्त देखकर निर्णय कर लेती है कि इसने बच्चे को काट खाया है। आवेश में नेवले पर घड़ा गिराकर मार देती है किन्तु जब भीतर जाकर देखती है कि बच्चा तो सुख की निंद सो रहा है और पास ही साँप मरा पड़ा है। उसे होश आता है, नेवला अपराधी नहीं रक्षक था। अब पश्चाताप ही शेष था। हिंसा तो हो चुकी। नेवला जान से जा चुका।

इसीलिए न्यायालयों का अलिखित नियम होता है कि भले 100 अपराधी बच जाय, एक निरपराधी को सजा नहीं होनी चाहिए। क्योंकि सुसंस्कृत मानव जानता है जीवन अमूल्य है। एक बार जान जाने के बाद किसी को जीवित नहीं किया जा सकता।

गौतम बुद्ध का एक दृष्टांत है सहनशीलता में निडरता के लिए भी और जीवन के मूल्य (अहिंसा) के लिए भी।

अंगुलिमाल नाम का एक बहुत बड़ा डाकू था। वह लोगों को मारकर उनकी उंगलियां काट लेता था और उनकी माला पहनता था। इसी से उसका यह नाम पड़ा था। आदमियों को लूट लेना, उनकी जान ले लेना, उसके बाएं हाथ का खेल था। लोग उससे डरते थे। उसका नाम सुनते ही उनके प्राण सूख जाते थे।

संयोग से एक बार भगवान बुद्ध उपदेश देते हुए उधर आ निकले। लोगों ने उनसे प्रार्थना की कि वह वहां से चले जायं। अंगुलिमाल ऐसा डाकू है, जो किसी के आगे नहीं झुकता।

बुद्ध ने लोगों की बात सुनी,पर उन्होंने अपना इरादा नहीं बदला। वह बेधड़क वहां घूमने लगे।जब अंगुलिमाल को इसका पता चला तो वह झुंझलाकर बुद्ध के पास आया। वह उन्हें मार डालना चाहता था, लेकिन जब उसने बुद्ध को मुस्कराकर प्यार से उसका स्वागत करते देखा तो उसका पत्थर का दिल कुछ मुलायम हो गया।

बुद्ध ने उससे कहा, "क्यों भाई, सामने के पेड़ से चार पत्ते तोड़ लाओगे?"

अंगुलिमाल के लिएयह काम क्या मुश्किल था! वह दौड़ कर गया और जरा-सी देर में पत्ते तोड़कर ले आया।

"बुद्ध ने कहा, अब एक काम करो। जहां से इन पत्तों को तोड़कर लाये हो, वहीं इन्हें लगा आओ।"

अंगुलिमाल बोला, "यह कैसे हो सकता?"

बुद्ध ने कहा, "भैया! जब जानते हो कि टूटा जुड़ता नहीं तो फिर तोड़ने का काम क्यों करते हो?"

इतना सुनते ही अंगुलिमाल को बोध हो गया और उसने सदैव के लिए उस हिंसा और आतंक को त्याग दिया।

सही भी है किसी को पुनः जीवन देने का सामर्थ्य नहीं तो आपको किसी का जीवन हरने का कोई अधिकार नहीं। आज फांसी की न्यायिक सजा का भी विरोध हो रहा है। कारण वही है एक तो सजा सुधार के वांछित परिणाम नहीं देती और दूसरा जीवन ले लेने के बाद तो कुछ भी शेष नहीं रहता न सजा न सुधार।

एक सामान्य सी सजा के भी असंख्य विपरित परिणाम होते है। ऐसे में चुकवश सजा यदि निरपराधी को दे दी जाय तो परिणाम और भी भयंकर हो सकते है। सम्भावित दुष्परिणामों के कारण अहिंसा का महत्व अनेक गुना बढ़ जाता है। किसी भी तरह की हिंसा के पिछे कितने ही उचित कारणों हो, हिंसा प्रतिशोध के एक अंतहीन चक्र को जन्म देती है। प्रतिरक्षा में भी जो सुरक्षा भाव निहित है उसका मूल उद्देश्य तो शान्तिपूर्ण जीवन ही है। जिस अंतहीन चक्र से अशान्ति और संताप  उत्पन्न हो और समाधान स्थिर न हो तो क्या लाभ?

प्रतिरक्षा में हिंसा हमेशा एक ‘विवशता’ होती है, यह विवशता भी गर्भित ही रहनी भी चाहिए। इस प्रकार की हिंसा का सामान्ययीकरण व सार्वजनिक करना हिंसा को प्रोत्साहन देना है। ऐसी हिंसा की संभावना एक अपवाद होती है। सभ्य मानवों में अन्य उपाय के न होने पर ही सम्भावनाएं बनती है। अतः विवशता की हिंसा को अनावश्यक रूप से जरूरी नियम की तरह प्रचारित नहीं किया जाना चाहिए। और न ही इसे ‘अहिंसा’ नाम देकर भ्रम मण्डित किया जाना चाहिए। यदि इस प्रकार की हिंसा का सेवन हो भी जाय तो निष्ठापूर्वक हिंसा को हिंसा ही कहना/मानना चाहिए उसे वक्रता से अहिंसा में नहीं खपाया जाना चाहिए।
  • हिंसा नाम भवेद् धर्मो न भूतो न भविष्यति।  (पूर्व मीमांसा) 
    अर्थात् :- हिंसा में धर्म माना जाए, ऐसा न कभी भूतकाल में था, न कभी भविष्य में होगा।


अन्य अहिंसा सूत्र......
हिंसा-प्रतिहिंसा से संतोषप्रद निर्णायक समाधान असंभव है।
हिंसा का बीज़
धुंध में उगता अहिंसा का सूरज
अहिंसा का आलोक
अहिंसा की सार्वभौम शक्ति
सहिष्णुता

15 अगस्त 2012

बुराई और भलाई

उभरती बुराई ने दबती-सी अच्छाई से कहा, "कुछ भी हो, लाख मतभेद हों, है तो तू मेरी सहेली हो। मुझे अपने सामने तेरा दबना अच्छा नहीं लगता। आ, अलग खड़ी न हो, मुझ में मिल जा, मैं तुझे भी अपने साथ बढ़ा लूंगी, समाज में फैला लूंगी।"

भलाई ने शांति से उत्तर दिया, "तुम्हारी हमदर्दी के लिए धन्यवाद, पर रहना मुझे तुमसे अलग ही है।"

"क्यों?" आश्चर्यभरी अप्रसन्नता से बुराई ने पूछा।

"बात यह है कि मैं तुमसे मिल जाऊं तो फिर मैं कहां रहूंगी, तब तो तुम-ही-तुम होगी सब जगह।" अच्छाई ने और भी शान्त होकर उत्तर दिया।

गुस्से से उफन कर बुराई ने अपनी झाड़ी अच्छाई के चारों ओर जकड़ कर फैला दी और फुंकार कर कहा, "ले, भोग मेरे निमन्त्रण को ठुकराने का नतीजा! अब पड़ी रह मिट्टी में मुंह दुबकाये! दुनिया में तेरे फैलने का अब कोई मार्ग नहीं।"

अच्छाई ने अपने नन्हे अंकुर की आंख से जहाँ भी झांका, उसे बुराई की जकड़बंध झाड़ी के तेज कांटे, भाले के समान तने हुए दिखाई दिए। सचमुच आगे कदम भर सरकाने की भी जगह न थी।

बुराई का अट्टहास चारों ओर गूंज गया। परिस्थितियां निश्चय ही प्रतिकूल थीं। फिर भी पूरे आत्म्-विश्वास से अच्छाई ने कहा, "तुम्हारा फैलाव आजकल बहुत व्यापक है, बहन! जानती हूं इस फैलाव से अपने अस्तित्व को बचाकर मुझे वृद्धि और प्रसार पाने में पूरा संघर्ष करना पड़ेगा, पर तुम यह न भूलना कि कांटे-कांटे के बीच से गुजर कर जब मैं तुम्हारी झाड़ी के ऊपर पहुंचूंगी तो मेरे कोमल फूलों की महक चारों ओर फैल जायगी और सभी की दृष्टि मोहक फूलों पर जमेगी, तब तेरा अस्तित्व ओझल ही रहेगा। अन्ततः यह जानना भी कठिन होगा कि तुम हो कहाँ।"

व्यंग्य की शेखी से इठलाकर बुराई ने कहा, "दिल के बहलाने को यह ख्याल अच्छा है।"

गहन सन्तुलन में अपने को समेटकर अच्छाई ने कहा, "तुम हंसना चाहो, तो जरुर हंसो, मुझे आपत्ति नहीं, पर जीवन के इस सत्य को कृत्रिम हंसी में झुठलाया नहीं जा सकता कि तुम्हारे प्रसार और प्रशंसकों की भी एक सीमा है, क्योंकि उस अति की सीमा तक तुम्हारे पहुंचते-न-पहुंचते तुम्हारे सहायकों और अंगरक्षकों का ही दम घुटने लगता है। जबकि इसके विपरित मेरे फैलाव की कोई सीमा ही प्रकृति ने नहीं बांधी, बुराई बहन!!"

बुराई गंभीर हो गई और उसे लगा कि उसके काँटों की शक्ति स्वयंमेव पहले से कम होती जा रही है और अच्छाई का अंकुर तेजी से वृद्धि पा रहा है।

9 अगस्त 2012

समता की धोबी पछाड़

एक नदी तट पर स्थित बड़ी सी शिला पर एक महात्मा बैठे हुए थे। वहाँ एक धोबी आता है किनारे पर वही मात्र शिला थी जहां वह रोज कपड़े धोता था। उसने शिला पर महात्मा जी को बैठे देखा तो सोचा- अभी उठ जाएंगे, थोड़ा इन्तजार कर लेता हूँ अपना काम बाद में कर लूंगा। एक घंटा हुआ, दो घंटे हुए फिर भी महात्मा उठे नहीं अतः धोबी नें हाथ जोड़कर विनय पूर्वक निवेदन किया कि – महात्मन् यह मेरे कपड़े धोने का स्थान है आप कहीं अन्यत्र बिराजें तो मै अपना कार्य निपटा लूं। महात्मा जी वहाँ से उठकर थोड़ी दूर जाकर बैठ गए।

धोबी नें कपड़े धोने शुरू किए, पछाड़ पछाड़ कर कपड़े धोने की क्रिया में कुछ छींटे उछल कर महात्मा जी पर गिरने लगे। महात्मा जी को क्रोध आया, वे धोबी को गालियाँ देने लगे। उससे भी शान्ति न मिली तो पास रखा धोबी का डंडा उठाकर उसे ही मारने लगे। सांप उपर से कोमल मुलायम दिखता है किन्तु पूंछ दबने पर ही असलियत की पहचान होती है। महात्मा को क्रोधित देख धोबी ने सोचा अवश्य ही मुझ से कोई अपराध हुआ है। अतः वह हाथ जोड़ कर महात्मा से माफी मांगने लगा। महात्मा ने कहा - दुष्ट तुझ में शिष्टाचार तो है ही नहीं, देखता नहीं तूं गंदे छींटे मुझ पर उड़ा रहा है? धोबी ने कहा - महाराज शान्त हो जाएं, मुझ गंवार से चुक हो गई, लोगों के गंदे कपड़े धोते धोते मेरा ध्यान ही न रहा, क्षमा कर दें। धोबी का काम पूर्ण हो चुका था, साफ कपडे समेटे और महात्मा जी से पुनः क्षमा मांगते हुए लौट गया। महात्मा नें देखा धोबी वाली उस शिला से निकला गंदला पानी मिट्टी के सम्पर्क से स्वच्छ और निर्मल होकर पुनः सरिता के शुभ्र प्रवाह में लुप्त हो रहा था, लेकिन महात्मा के अपने शुभ्र वस्त्रों में तीव्र उमस और सीलन भरी बदबू बस गई थी।

कौन धोबी कौन महात्मा?

यथार्थ में धोबी ही असली महात्मा था, संयत रह कर समता भाव से वह लोगों के दाग़ दूर करता था।

15 जुलाई 2012

शान्ति की खोज

हम क्यों लिखते है?

- ताकि पाठक हमें ज्यादा से ज्यादा पढ़ें।

 

पाठक हमें क्यों पढ़े? 

- ताकि पाठको को नवतर चिंतन दृष्टि मिले।

 

पाठको को नई चिंतन दृष्टि का क्या फायदा?

- एक निष्कर्ष युक्त सफलतापेक्षी दृष्टिकोण से अपना मार्ग चयन कर सके।

 

सही मार्ग का चयन क्यों करे?

- यदि अनुभव और मंथन युक्त दिशा निर्देश उपलब्ध हो जाय तो शान्तिमय संतोषप्रद जीवन लक्ष्य को सिद्ध कर सके।

 

कोई भी जो दार्शनिक, लेखक, वक्ता हो उनके लेख, कथा, कविता, सूचना, जानकारी या मनोरंजन सभी का एक ही चरम लक्ष्य है। अपना अनुभवजन्य ज्ञान बांटकर लोगों को खुशी, संतोष, सुख-शान्ति के प्रयास की सहज दृष्टि देना। बेशक सभी अपने अपने स्तर पर बुद्धिमान ही होते है। तब भी कोई कितना भी विद्वान हो, किन्तु सर्वाधिक सहज सफल मार्ग के दिशानिर्देश की सभी को आकांक्षा होती है।

 

यह लेखन की अघोषित जिम्मेदारी होती है। ब्लॉगिंग में लेखन खुशी हर्ष व आनन्द फैलाने के उद्देश्य से होता है और होना भी चाहिए। अधिकांश पाठक अपने रोजमर्रा के तनावों से मुक्त होने और प्रसन्नता के उपाय करने आते है। लेकिन हो क्या रहा हैं? जिनके पास दिशानिर्देश की जिम्मेदारी है वे ही दिशाहीन दृष्टिकोण रखते है। शान्ति और संतुष्टि की चाह लेकर आए लेखक-पाठक, उलट हताशा में डूब जाते है। घुटन से मुक्ति के आकांक्षी, विवादों में घिर कर विषादग्रस्त हो जाते है। अभी पिछले दिनों एक शोध से जानकारी हुई कि ब्लॉग सोशल साईट आदि लोगो में अधैर्य और हताशा को जन्म दे रहे है।

 

यह सही है कि जगत में अत्याचार, अनाचार, अन्याय का बोलबाला है किन्तु विरोध स्वरूप भी लोगों में द्वेष आक्रोश और प्रतिशोध के भाव भरना उस अन्याय का निराकरण नहीं है। आक्रोश सदाचारियों में तो दुष्कृत्यों के प्रति अरूचि घृणा आदि  पैदा कर सकते है पर अनाचारियों में किंचित भी आतंक उत्पन्न नहीं कर पाते। द्वेष, हिंसा, आक्रोश और बदला समस्या का समाधान नहीं देते, उलट हमारे मन मस्तिष्क में इन बुरे भावों के अवशेष अंकित कर ढ़ेर सारा विषाद छोड जाते है।

 

 

मैं समझता हूँ मशीनी जीवन यात्रा और प्रतिस्पर्द्धात्मक जीवन के तमाम तनाव झेलते पाठकों के मन में द्वेष, धृणा, विवाद, हिंसा, आक्रोश, प्रतिशोध, और अन्ततः विषाद पैदा करे ऐसी सामग्री से भरपूर बचा जाना चाहिए।

12 जुलाई 2012

सद्बुद्धि

पुराने समय की बात है एक सेठ नें न्याति-भोज का आयोजन किया। सभी गणमान्य और आमन्त्रित अतिथि आ चुके थे, रसोई तैयार हो रही थी इतने में सेठ नें देखा कि भोजन पंडाल में एक तरफ एक बिल्ली मरी पडी थी। सेठ नें सोचा यह बात सभी को पता चली तो कोई भोजन ही ग्रहण नहीं कर पाएगा। अब इस समय उसे बाहर फिकवाने की व्यवस्था करना भी सम्भव न था। अतः सेठ नें पास पडी कड़ाई उठा कर उस बिल्ली को ढ़क दिया। सेठ की इस प्रक्रिया को निकट खडे उनके पुत्र के अलावा किसी ने नहीं देखा। समारम्भ सफल रहा।
 
कालान्तर में सेठ स्वर्ग सिधारे, उन्ही के पुण्यार्थ उनके पुत्र ने मृत्यु भोज का आयोजन किया। जब सब तैयारियों के साथ भोजन तैयार हो गया तो वह युवक इधर उधर कुछ खोजने लगा। लोगों ने पूछा कि क्या खोज रहे हो? तो उस युवक नें कहा – बाकी सभी नेग तो पूरे हो गए है बस एक मरी हुई बिल्ली मिल जाय तो कड़ाई से ढक दूँ। लोगों ने कहा - यहाँ मरी बिल्ली का क्या काम? युवक नें कहा – मेरे पिताजी नें अमुक जीमनवार में मरी बिल्ली को कड़ाई से ढ़क रखा था। वह व्यवस्था हो जाय तो भोज समस्त रीति-नीति से सम्पन्न हो। 
 
लोगों को बात समझ आ गई, उन्होंने कहा – 'तुम्हारे पिता तो समझदार थे उन्होने अवसर के अनुकूल जो उचित था किया पर तुम तो निरे बेवकूफ हो जो बिना सोचे समझे उसे दोहराना चाहते हो।' 
 
कईं रूढियों और परम्पराओं का कुछ ऐसा ही है। बडों द्वारा परिस्थिति विशेष में समझदारी पूर्वक किए गए कार्यों को अगली पीढ़ी मूढ़ता से परम्परा के नाम निर्वाह करने लगती है और बिना सोचे समझे अविवेक पूर्वक प्रतीको का अंधानुकरण करने लग जाती है। मात्र इसलिए - “क्योंकि मेरे बाप-दादा ने ऐसा किया था” कुरितियाँ इसी प्रकार जन्म लेती है। कालन्तर से अंधानुकरण की मूर्खता ढ़कने के उद्देश्य से कारण और वैज्ञानिकता के कुतर्क गढ़े जाते है। फटे पर पैबंद की तरह, अन्ततः पैबंद स्वयं अपनी विचित्रता की कहानी कहते है।

17 जून 2012

ब्लॉग-जगत और पात्र का आधारभूत तल्ला

एक राजकुमार बहुत ही चंचल और नट्खट था। दासियों से चुहलबाजी करना और कर्मचारियों से गाली गलोच और तुच्छकार भरा वाणीव्यवहार उसका प्रिय शगल था। राजा नें उसे युवराज बनाया तब भी उसकी चंचलता कम न हुई। राजा ने सोचा – कल को जब यह राजा बनेगा, निश्चित ही यह प्रजापालन निति-नियम से नहीं करेगा। सोचने लगा युवराज की इन बुरी आदतों से छुटकारा कैसे हो? उसने एक निर्णय किया और उसकी सेवा में रत एक दासी को आदेश दिया कि युवराज दिन भर में जो भी वचन बोले दुर्व्यवहार करे उसे लिखकर शाम को मेरे सामने प्रस्तुत किया जाय। अब राजकुमार जो भी बोलता, पूर्व में ही विचार करता कि मेरे वचन रिकार्ड किए जा रहे हैं, परिणाम स्वरूप वह वाणी-व्यवहार में अतिरिक्त सावधान हो गया। कुछ ही दिनों में उसकी वाणी और व्यवहार दोनों शालीन और कुलीन हो गए। 

आज ब्लॉग-जगत में लेख व टिप्पणियों के माध्यम से जो भी हम अभिव्यक्त हो रहे है। सब कुछ रिकार्ड पर जा रहा है जो हमारे एक व्यक्तित्व का निरन्तर निर्माण कर रहा है। जिसका प्रभाव हमारे जीवन पर पडना ही है। पर हम इस रिकार्ड से सजग नहीं है। हम समझते है यह मनमौज का मनोरंजन माध्यम है। दो घडी मौज ली, अपने मान-अभिमान को पोषा और खेल खत्म!! किन्तु इसके जीवन पर पडते असर से हम बेदरकार है। अपने व्यक्तित्व पर जरा से आरोप पर हमारा इगो चित्कार कर उठता है और प्रतिक्रियात्मक तंज के साथ साथ, अपना मान बचाने के लिए हम हर अच्छा बुरा उपाय कर गुजरते है। किन्तु हमारे ही कटु-शब्दों से, ओछी वाणी से स्वयं हमारा 'मान' ही घायल और क्षत-विक्षित हो जाता है, हम नहीं देखते कि व्यक्तित्व के मान को अखण्ड रखने के मिथ्या प्रयासों में, हमारा वही व्यक्तित्व विकृत प्रतिबिम्बित होता जा रहा है जिसका मद के कारण हमें रत्तिभर भी भान नहीं रहता। मान-मद में चूर हम जिस डिब्बे में 'सम्मान' इक्कट्ठा करने का भ्रमित प्रयास कर रहे है, यह भी नहीं देखते कि उस डिब्बे का तो तल्ला है ही नहीं है। सारा का सारा, स्वमान, सरे राह बिखर कर धूल में मिल रहा है। जिस पात्र के आधारभूत तल्ला नहीं होता, उस पात्र में सम्मान भला कैसे ठहरेगा? चरित्र के प्रति सजग वाणी-व्यवहार भरा व्यक्तित्व ही पात्र का आधारभूत तल्ला है।

8 जून 2012

एक चिट्ठा-चर्चा ऐसी भी… :)


'ब्लॉगशीर्षक' और उसकी वर्तमान 'पोस्ट शीर्षक' में गजब की तुक जम रही है। लिंक पोस्ट पर जाने से पहले एक नज़र अवलोकन करके तो देखिए………………………………














कडुवा सच : इत्तफाकन ...

न यह व्यंग्य है न परिहास,  बस पठन-पाठन के बीच कुछ क्षण आनन्द के जुटा लेना मक़सद है।

18 मई 2012

लेखकीय स्वाभिमान के निहितार्थ


हम प्रायः सोचते है विचार या मुद्दे पर चर्चा करते हुए विवाद अक्सर व्यक्तिगत क्यों हो जाता है। किन्तु हम भूल जाते है कि जिसे हम लेखन का स्वाभिमान कहते है वह व्यक्तिगत अहंकार ही होता है। इसी कारण स्वाभिमान की ओट में छिपा व्यक्तिगत अहंकार पहचान लिया जाता है और उस पर होती चर्चा स्वतः व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप का रूप ग्रहण कर लेती है। अभिमानी व्यक्ति निरर्थक और उपेक्षणीय बातों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर अनावश्यक परिश्रम से भी अन्तत: कलह व झगड़ा ही उत्पन्न करता हैं। प्रायः ब्लॉगर/लेखक भी अपने लेखकीय स्वाभीमान की ओट में अहंकार का सेवन और पोषण ही करते है।

बल का दम्भ बुरा है, धन का दम्भ बहुत बुरा किन्तु ज्ञान का दम्भ तो अक्षम्य अपराध है।

हमारी व्यक्तिगत ‘मान’ महत्वाकांशाएँ विचार भिन्नता सहन नहीं कर पाती। विचार विरोध को हम अपना मानमर्दन समझते है। इसी से चर्चा अक्सर विवाद का रूप ले लेती है। इतना ही नहीं लेखन पर प्रतिक्रिया करते हुए टिप्पणीकार भी अपनी ‘मान’ महत्वाकांशा के अधीन होकर विचार विरोध की ओट में लेखक के मानखण्डन का ही प्रयास करते देखे जाते है। स्वाभिमान के नाम पर अपना सम्मान बचानें में अनुरक्त सज्जन चिंतन ही नहीं कर पाते कि जिस सम्मान के संरक्षण के लिए वे यह उहापोह कर रहे है उलट इन विवादों के कारण वही सम्मान नष्ट हो जाएगा। सम्मानजनक स्थिति को देखें तो हिंदी ब्लॉग जगत के विवादित मित्रों का प्रत्यक्ष उदाहरण हमारे सामने है।

जितना भी सम्मान सुरक्षा की ललक में हम उठापटक करेंगे सम्मान उतना ही छिटक कर हमसे दूर चला जाएगा।

मैं यह नहीं कह सकता कि मैं अहंकार से सर्वथा अलिप्त हूँ। यह दंभी दुर्गुण ही महाजिद्दी व हठी है। इसलिए सामान्यतया कम या ज्यादा सभी में पाया जाता है। इतना आसान भी नहीं कि संकल्प लेते ही जादू की तरह यह हमारे चरित्र से गायब हो जाय। किन्तु यह भी इतना ही सही है कि पुरूषार्थ से इस अहंकार का शनै शनै क्षय किया जा सकता है। निरन्तर जागृत अभ्यास आवश्यक है। अभिमान का शमन आपके सम्मान को अक्षय अजर बना सकता है।

निराभिमान गुण, सम्मानजनक चरित्र का एक ऐसा आधार स्तम्भ है जो सुदृढ़ तो होता ही है लम्बे काल तक साथ निभाता है।

28 मार्च 2012

“क्रोध पर नियंत्रण” प्रोग्राम को चलाईए अपने सिस्टम पर तेज - कुछ ट्रिक और टिप्स

पिछले अध्याय में पाठकों नें कहा कि क्रोध बुरी बला है किन्तु इस पर नियंत्रण नही चलता। ‘क्रोध पर नियंत्रण’ एक जटिल और हैवी सॉफ्ट्वेयर है जिसे आपके सिस्टम पर सक्षम होना अनिवार्य है। अगर यह आपके सिस्टम पर स्थापित है तो निश्चित रूप से यह आपकी प्रोफाइल को उत्कृष्ट और अद्यतन बना देता है। किन्तु इस भारी और प्रयोग-कठिन प्रोग्राम को हेंडल करने में वाकई बहुत ही समस्या आती है।

पाठकों की इस समस्या के निवारण हेतु कुछ ‘ट्रिक और टिप्स’ यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे है  आसान सी प्रक्रिया है, अपनी प्रोफाइल में सावधानी व सजगता के साथ मामूली से परिवर्तन कीजिए फिर देखिए ‘क्रोध पर नियंत्रण’ नामक यह प्रोग्राम कैसे तेज काम करता है।

यह मात्र 7 के.बी. का टूल है, आपको अपने HTML (मानवीय सोच व मानसिकता लेखा) में कुछ परिवर्तन करने है। उसे करने के लिए निम्न स्टेप्स को फोलो करें……

1- सर्वप्रथम अपनी प्रोफाइल को स्कैन करें और स्व-निरपेक्ष होकर गुण-दोषों का अध्ययन समीक्षा कर लें। जो आपको आगे चल कर परिवर्तन विकल्प के चुनाव में सहायक सिद्ध होगा। समीक्षा के बाद वर्तमान प्रोफाइल को सुरक्षित सेव करलें ताकि परिवर्तनों में कुछ गड़बड़ या त्रृटि आने की दशा में पुनः अपनी पुरानी प्रोफ़ाइल पर लौटा जा सके।

2- अब अपने प्रोफाइल के HTML कोड-लेख में <शीर्ष>  कोड को ढ़ूंढ़े और उसके ठीक नीचे इस कोड़ को पेस्ट करलें…

<   href="समता”> <प्रतिक्रिया=”0”> <तत्क्षण उबाल गति= “0”> <आवेश अवरोध अवधि= 10 सैकण्ड> <त्वरित विवेक सजगता= सक्रिय> <परिणामो पर चिन्तन=100%> <दृष्टिकोण=समस्त>

3- ध्यान रहे इस कोड को कहीं भी /> बंद नहीं करना है।

4- यह बताना रह गया कि - आपके सिस्टम पर “मिथ्या धारणा ध्वंशक” एंटीवायरस प्रोग्राम सक्षम होना चाहिए। यदि अभी तक यह इन्सटॉल नहीं है तो कर लीजिए, बेहतरीन फायदेमंद यह छोटा सा उपकरण बिलकुल मुफ्त है। इस “मिथ्या धारणा ध्वंशक” एंटीवायरस प्रोग्राम की सहायता से प्रोफाइल HTML में <स्वाभिमान> कोड ढ़ूंढ़े आपको सर्च रिजल्ट में <अहंकार> दिखाई देगा, चौंक गए न? वस्तुतः यह ‘मिथ्या धारणा’ नामक वायरस का कमाल है यह वायरस गुणों के छ्द्म नाम के पिछे दूषणों को स्थापित कर अपना काम करता है। अब यहाँ <अहंकार> हो या <स्वाभिमान> जो भी हो, इसे तत्काल <ॠजुता> कोड से बदल दीजिए, साथ ही इसके ठीक आगे देखिए- उस <स्वाभिमान> को < href=" श्रेष्ठता, दर्प, घमंड”> से लिंक किया गया होगा,और <target="_ ईष्या द्वेष और हिंसा”> होगा। यह वायरस इसी तरह के कुपाथ निर्देशित छद्म लिंक बना देता है। इस कुपाथ की जगह आप  <ॠजुता> कोड को < href=" सहजता सरलता और न्याय”> से  लिंक कर दीजिए वस्तुतः यही इसका प्रमाणिक सुपाथ है। यह परिवर्तन शुरू शुरू में ‘निस्तेज’ से लगने वाले परिणाम दे सकता है पर घबराएं नहीं, <सरलता=__> कोड के तीन स्तर होते है यथा 1<सरलता=समझदारी>2 <सरलता=अबोध>3<सरलता=मूर्खता> यदि वहाँ अबोध या मूर्खता है तो इसे 'समझदारी' पर सैट कर लीजिए। प्रारंभिक आउटपुट अस्पष्ट और विभ्रमदर्शी हो सकते है, तात्कालिक प्रभावो से निश्चल रहते हुए, लगातार दृढ़ संकल्प से प्रयोग करने पर यह सब भी सुगम और 'लोकप्रिय' हो जाते है।

5- अब ठीक उसी तरह <सफल_क्रोध> कोड को ढ़ूंढ़े आपको वहाँ भी फाईंड रिजल्ट में छद्म कोड का असल रूप <अहंकारी_जीत> लिखा मिलेगा इसे भी < href="त्वरित-आवेश, प्रतिशोध-प्रेरित-आक्रोश”> और target="_ क्षणिक दर्पसंतोष और शेष पश्चाताप”> से क्रमशः लिंक व टार्गेट किया मिलेगा। तत्काल <अहंकारी_जीत> को <सफल_क्षमा> कोड से बदल दीजिए और < href="समता,क्षमत्व,धीर-गम्भीर> से लिंक करते हुए  टार्गेट - target="_  शान्ति,सुख व आमोद-प्रमोद भरा जीवन, ”> कर दीजिए।

6- अगला कदम प्रोफाइल छायाचित्र में परिवर्तन करना है। वर्तमान इमेज-< “रक्तिम_नयन.gif को <“सुधारस_झरना.gif इमेज से बदल डालिए। ध्यान रहे हमेशा (.gif) इमेज का ही प्रयोग करें यह किसी भी तरह के बैकग्राउण्ड पर स्थापित हो सकती है

7- अब सारे परिवर्तनों को सेव कर दीजिए, आपका सिस्टम ‘क्रोध पर नियंत्रण” प्रोग्राम के 'मित्रवत उपयोग' के लिए तैयार है।

निश्चित ही इस विरल प्रयोग से आपकी प्रोफाइल उन्नत व उत्कृष्ट हो जाएगी। सभी नियमों का सावधानी से प्रयोग करने के बाद भी यदि आप के साथ कोई त्रृटि होती है, और आपको लगे कि उलट यह तो दुविधाग्रस्त हो गया, पहले जो कार्य रक्तिम नयन से सहज ही समपन्न हो जाते थे, अब कोई घास भी नहीं डालता और सुधारस तो लोग झपट झपट उठा ले जाते है और आभार तक व्यक्त नहीं करते!! जैसे ‘धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का!!’ किन्तु इस स्तरीय विचार को निकाल फैकिए। घबराकर जल्दबाज़ी में पुरानी प्रोफाइल पर लौटने की कोई आवश्यकता नहीं है। दृढता से परिवर्तन स्थापित होने की प्रतीक्षा कीजिए। टिके रहिए और अभ्यास जारी रखिए। ‘क्रोध पर नियंत्रण’ प्रोग्राम पर जब एक बार हाथ जमा कि फिर आप भी इसके बिना नहीं चला पाएंगे। इसके उपरांत भी यदि समस्याएँ आती है तो हमें लिख भेजिए, आपके समाधान का पूर्ण प्रयास किया जाएगा।
तकनीकी शब्दावली का प्रयोग लेख को रोचक बनाने के उद्देश्य से किया गया है। लेख में वर्णित प्रोफ़ाइल का आपके फ़ेसबुक, ब्लॉगर, प्लस आदि के प्रोफ़ाइल से कोई लेना-देना नहीं है कृपया वहाँ का कोड न बदलें :)

पिछला सूत्र
 क्रोध

26 मार्च 2012

क्रोध विकार


पांचों विकारों में से क्रोध ही एक ऐसा विकार है……


जिसका दुष्प्रभाव क्रोध करने वाले और जिस पर क्रोध किया जा रहा है उभय पक्षों पर पड़ता है इसके अलावा क्रोध सार्वजनिक रूप से दिखाई भी देता है। अर्थात उस क्रोध की प्रक्रिया को उन दोनों के अलावा अन्य लोगो द्वारा भी देखा जाता है। साथ ही क्रोध के दूसरे लोगों में संक्रमित होने की सम्भावनाएँ प्रबल होती है।


  • क्रोध आने से लेकर इसकी समाप्ति तक इसको चार भागों में बांटा जा सकता है-
1 -क्रोध उत्पन्न होने का कारण ।
मामूली सा अहं, ईष्या, या भय। (कभी-कभी तो बहुत ही छोटा कारण होता है)

2 -क्रोध आने पर उसका रूप।
अहित करना। (स्वयं का, किसी दूसरे का और कभी निर्जीव चीजो को तोड़-फोड़ कर नुक्सान करता है)

3 -क्रोध के बाद उसके परिणाम
पश्चाताप। ( क्रोध हमेशा पछतावे पर ख़त्म होता है)

4 -क्रोध के परिणाम के बाद उसका निवारण
क्षमा। (जो कि हमेशा समझदार लोगो द्वारा किया जाता है)

बात-बेबात क्रोध करने वालों से लोग प्रायः दूरी बना लेते है। क्रोध करने वाले कभी भी दूसरों के साथ न्याय नहीं कर सकते। क्रोध वह आग है जो अपने निर्माता को पहले जला देती है।

विचार करें, क्या चाहते है आप? अपना व दूसरों का अहित या आनन्द अवस्था?

जब आपका अहं स्वयं को स्वाभिमानी कहकर करवट बदलने लगे, सावधान होकर मौन मंथन स्वीकार कर लेना श्रेयस्कर हो सकता है। साधारणतया मौन को भयजनित प्रतिक्रिया कहकर कमजोरी समझा जाता है पर सच्चाई यह है कि उस समय मौन धारण कर पाना वीरों के लिए भी आसान नहीं होता। वस्तुतः मौन के लिए विवेक को सुदृढ़ करना होता है और इसके लिए उच्चतम साहस चाहिए। क्रोध उदय के संकेत मिलते ही व्यक्ति जब मौन द्वारा अनावश्यक अहंकार पर विवेक पूर्वक सोच लेता है तो बुरे विचार, कटु वाणी और बुरे भावों के सही पहलू जानने, समझने, विचारने और हल करने का अवसर भी मिल जाता है।जो निश्चित ही क्रोध, ईर्ष्या और भय को दूर करने में सहायक सिद्ध होता है। क्रोध के उस क्षण में स्वानुशासित विवेक और आत्मावलोकन के लिए मौन हो जाना क्रोध मुक्ति का श्रेष्ठ उपाय है।

दृष्टव्य  सूत्र:-
बर्ग-वार्ता- क्रोध पाप का मूल है ...
सुज्ञ: क्षमा-सूत्र

11 जनवरी 2012

धर्म विकार


धर्म के नाम पर……

या धार्मिक विधानो के तौर पर

कितने ही………


  • अच्छे अच्छे जीवन तरीके अपनालो,

  • सुन्दर वेश, परिवेश, गणवेश धारण कर लो,

  • पुरानी रिति, निति, परम्पराएं और प्रतीक अपना लो,

  • आधा दिन भूखे रहो, और आधा दिन डट कर पेट भरो,

  • या कुछ दिन भूखे रहो और अन्य सभी दिन खाद्य व्यर्थ करो,

  • हिंसा करके दान करो, या बुरी कमाई से पुण्य करो,

  • यात्रा करो, पहाड़ चढ़ो, नदी, पोख़रों,सोतों में नहाओ,
  • भोगवाद को धर्मानुष्ठान बनालो


यदि आपका यह सारा उपक्रम मानवता के हित में अंश भर भी योगदान नहीं करता,


समस्त प्रकृति के जीवन हित में कुछ भी सहयोग नहीं करता,


तो व्यर्थ है, निर्थक है। वह निश्चित ही धर्म नहीं है। मोहांध विकार है, पाखण्ड है।

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