2 फ़रवरी 2015

सहिष्णुता सद्भाव

एक नगर में एक जुलाहा रहता था। वह स्वाभाव से अत्यंत शांत, नम्र एवं निष्ठावान था। क्रोध उसके स्वभाव में ही नहीं था। एक बार कुछ लड़कों को शरारत सूझी वे सब उस जुलाहे के पास यह सोचकर पहुँचे कि देखें इसे गुस्सा कैसे नहीं आता ?
उन में एक लड़का धनवान माता-पिता का पुत्र था। वहाँ पहुँचकर वह बोला - "यह साड़ी कितने की दोगे ?"
जुलाहे ने कहा - "दस रुपये की।"
उस लडके ने उसे चिढ़ाने के उद्देश्य से साड़ी के दो टुकड़े कर दिये और एक टुकड़ा हाथ में लेकर बोला - "मुझे पूरी साड़ी नहीं चाहिए, आधी चाहिए। इसका क्या दाम लोगे ?"
जुलाहे ने बड़ी शान्ति से कहा, "पाँच रुपये।"
लडके ने उस टुकड़े के भी दो भागों में विभक्त किया और दाम पूछा।जुलाहा अब भी शांत था। उसने बताया - "ढाई रुपये।"
लड़का इसी प्रकार साड़ी के टुकड़े करता गया। अंत में बोला - "अब मुझे यह साड़ी नहीं चाहिए। यह टुकड़े अब मेरे किस काम के?"
जुलाहे ने शांत भाव से कहा - "बेटे ! अब यह टुकड़े तुम्हारे ही क्या, किसी के भी काम के नहीं रहे।"
अब लडका बड़ा लज्जित हुआ, कहने लगा - "मैंने आपका नुकसान किया है। अतः मैं आपकी पूरी साड़ी का मूल्य चुका देता हूँ।"
जुलाहे ने स्नेह भाव से कहा,  "जब अपने साड़ी ली ही नहीं तो मैं आपसे पैसे कैसे ले सकता हूँ ?"
लडके के धन दर्प ने सिर उठाया, "मैं बहुत धनिक व्यक्ति हूँ और आप बहुत ही गरीब इन्सान है। यदि मैं रुपये दे दूँगा तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, किन्तु आप यह घाटा कैसे सहोगे ? और नुकसान मैंने किया है, अतः घाटे की भरपाई भी मुझे ही करनी चाहिए।"
जुलाहे ने मुस्कुराते हुए कहा, - "तुम यह घाटा पूरा नहीं कर सकते। जरा सोचो, किसान का कितना श्रम लगा तब कपास पैदा हुई। फिर मेरी पत्नी ने कठिन परिश्रम से उस कपास को बीना और सूत काता। फिर मैंने उसे  बुना, स्वच्छ किया और रंगा भी।"
"इसमें बहुत से लोगों की महनत लगती है। यह श्रम तभी सफल होता जब इसे कोई पहनता, इसका उपयोग करता, इससे लाभ उठाता। किन्तु तुमने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। श्रम व सदुपयोग का घाटा रुपयों से कैसे पूरा हो सकता है ?" - जुलाहे की वाणी में आक्रोश के स्थान पर धैर्य समता और करूणा थी।
लड़का शर्म से पानी-पानी हो गया। पश्चाताप से उसकी आँखे भर आयी। वह विनत होकर उन जुलाहे संत के पैरो में गिर पड़ा।
जुलाहे ने स्नेह से उसे उठाकर, उसकी पीठ सहलाते हुए कहा - "बेटा, यदि मैं तुम्हारे रुपये ले लेता तो निशचित ही मेरा काम निकल जाता। किन्तु तुम्हारे जीवन का वही हाल होता जो उस साड़ी का हुआ। वह किसी के लिए भी लाभाकारी नहीं होता। साड़ी एक गई, मैं दूसरी बना दूँगा। पर तुम्हारी गढती ज़िन्दगी इस अहंकार से विखण्डित हो जाती तो दूसरी कहाँ से आती ?"
तुम्हारा पश्चाताप और यह शिक्षा ही महत्वपूर्ण है  मेरे लिए यही अत्यन्त कीमती है।

संत तिरुवल्लुवर की इस उँची सोच-समझ भरी सीख ने लडके का जीवन ही बदल दिया।

7 टिप्‍पणियां:

  1. .......खूबसूरती से समझाया गया विनम्रताका पाठ

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  2. धैर्य और सहनशीलता की सुन्दर सीख

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  3. सार्थक प्रस्तुति।
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (04-02-2015) को रहे विपक्षी खीज, रात दिन बढ़ता चंदा ; चर्चा मंच 1879 पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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