16 मार्च 2015

दुष्परिणाम

एक बार शीत ऋतु में राजा श्रेणिक अपनी पत्नी चेलना के साथ भगवान महावीर के दर्शन कर वापस महल की तरफ लौट रहे थे। रास्ते में एक नदी के किनारे उन्होंने एक मुनि को ध्यान में लीन देख। उन्हें देख कर रानी ने सोचा, धन्य हैं ये मुनि जो इतनी भयंकर सर्दी में भी निर्वस्त्र ध्यान कर रहे हैं। मुझे तो इतने कम्बल ओढने के बाद भी ठण्ड के मारे कंपकंपी छुट रही है।

ऐसा चिन्तन करते हुए, रानी श्रद्धा पूर्वक उन्हें प्रणाम कर राजा के साथ अपने महल लौट आयी। रानी के मन में उन मुनि की बात घर कर गई, जब भी उनको भयंकर ठण्ड का अनुभव होता, श्रद्धा से उनका मन मुनि के प्रति नतमस्तक हो जाता। रात्रि में रानी अपने कक्ष में बहुत से कम्बल अच्छे से ओढ कर सो रही थी, नींद में उनका एक हाथ कम्बल से बाहर चला गया, जब उनकी आँख खुली तो उन्होंने देखा की उनका हाथ ठण्ड के मारे अकड़ सा गया है, उन्हे मुनि का स्मरण हो आया, सम्वेदना से वह सहज ही बोल पडी, "उनका क्या हाल हो रहा होगा"।

राजा श्रेणिक जो पास में सो रहे थे, महारानी के ये शब्द कानों में पडे। उन्होंने सोचा, हो न हो, महारानी किसी अन्य व्यक्ति से प्रेम सम्बन्ध है और अभी यह उसी के बारे में सोच रही है। इस स्थिति से उन्हें बहुत क्रोध आया। वे सोचने लगे की स्त्री जाति का कोई भरोसा नहीं, अगर मेरी पटरानी ही ऐसी है तो बाकि रानियों का क्या हाल होगा? इनके सतीत्व पर विश्वास नहीं किया जा सकता।

प्रातः काल क्रोधावेश में राजा जैसे ही कक्ष से बाहर आए, उन्हें सामने से आता महामंत्री अभयकुमार दिखाई दिया। उन्होने महामंत्री को आज्ञा दी कि तुम अंत:पुर को रानियों समेत जला कर भस्म कर दो। कहते हुए महाराज वहां से चले गए। अभयकुमार बुद्धिमान व्यक्ति था, वह जानता था कि क्रोध विवेक का नाश कर देता है। क्रोधावेश में किए गए कार्य पर बाद में पछताना भी पड़ सकता है्। अतः  उन्होंने महल के पास स्थित गजशाला को खाली करवा कर, उसमे आग लगवा दी। जिससे कोई अनर्थ भी न हो और महाराज की आज्ञा का उल्लंघन भी न हो।

आज्ञा देकर महाराज उपवन में घुमने चले गए, लेकिन उनके मन को शांति नहीं मिल रही थी। अपने मन के विषाद एवं प्रश्नों का हल जानने वे भगवान महावीर के पास पंहुचे। भगवान को वंदन कर उन्होंने पूछा की “भगवन ! वैशाली गणराज्य के राजा चेटक की पुत्री के एक पति है या अनेक पति” तब महावीर बोले “ राजन ! चेटक की एक क्या सातों ही पुत्रियों के एक ही पति है। तुम्हारे अंत:पुर की सभी रानियाँ पवित्र पतिव्रता धर्म का पालन करने वाली है।” श्रेणिक को किंकर्तव्यविमूढ़ देख कर महावीर बोले, “ राजन ! कल तुमने अपनी पत्नी चेलना के साथ नदी के तट पर एक मुनि के दर्शन किये थे?”, "हाँ प्रभु ! किये थे" श्रेणिक बोले। तब महावीर ने रात में हुई घटना को बताते हुए कहा “जिसे तुम अपनी रानी का किसी पुरुष के लिए स्नेह समझ रहे थे वो तो असल में उन मुनि की सहनशीलता के लिए सम्वेदना का अनुभव था” इतना सुनते ही श्रेणिक के पावों तले ज़मीन खिसक गई। वे उलटे पाँव भागते हुए वापस अपने महल पंहुचे, परन्तु महल की तरफ से उठती हुई लपटों को देख कर उनका दिल बैठ गया।

वे मन ही मन अपने आप को कोस रहे थे। यह तो घोर अनर्थ हो गया ! स्त्री हत्या वो भी निरपराध की ! महापाप हो गया। तभी राजा को सामने से आता हुआ अभयकुमार दिखाई दिया। राजा ने क्रुद्ध होकर उससे कहा “ अभय ! आज तेरी बुद्धि को क्या हो गया था। जल्दबाजी में भयंकर गलत कार्य किया। मैने निरपराध अबलाओं का अग्निदाह करवा दिया। जा मेरी नज़रों से दूर हो जा।" यह सुनते ही अभयकुमार को मानो मन मांगी मुराद मिल गई । अभयकुमार तो कब से संसार त्याग कर दीक्षित होना चाहता था, परन्तु राजा श्रेणिक उसे नहीं छोड़ रहे थे, आज राजा की आज्ञा मिलते ही वो तुरंत वहां से निकल कर भगवान महावीर की शरण में पंहुच गया। इधर जब राजा को अपने महल पंहुच कर सच्चाई का पता चला तो मन ही मन उन्हें अभय की सूझ बुझ तथा विवेक पर गर्व महसूस हुआ। साथ ही अपनी मुर्खता, वहम तथा उतावलेपन पर उन्हें बहुत लज्जा आयी। उन्होंने मन में सोचा “मेरे वहम तथा अविवेक से कितनी बड़ी दुर्घटना घट जाती, निश्चित ही क्रोध आँख वाले को भी अँधा बना देता है।"

14 मार्च 2015

सीमाएँ

एक कुएं में मेंढकों का एक समूह रहता था। समूह क्या उनका पूरा संसार ही था। एक समय की बात है जोरदार वर्षा के कारण कुआं पानी से लबालब भर गया। एक क्षमतावान मेंढक ने अपने पूरे सामर्थ्य से छलांग लगाई, परिणामस्वरूप वह कुएं से बाहर था। भीतर के मेंढक स्वयं को कुएं के सुरक्षा घेरे में सुरक्षित रखने में सफल रहे। एक जिज्ञासु बुद्धिमान मेंढक ने अपने मुखिया से प्रश्न किया, "चाचा, क्या दुनिया इतनी ही है जो हमें दिखाई देती है?"
मुखिया ने जवाब दिया, "हां, ये संसार इतना ही है जो हमें दिखायी देता है। अन्य विद्वानों से भी मैने यही जाना है, मैने अपने उम्र भर के अनुभव से भी इसे प्रमाणित किया है।"
"चाचा, दुनिया इससे बडी क्यों नहीं हो सकती?", युवा मेंढक ने फिर प्रश्न किया। चाचा ने मुस्काते हुए कहा, "उपर देख! क्या दिखाई देता है? आसमान? कितना बडा है आसमान?"
"वह तो हमारे कुएं के बराबर ही है, युवा ने जवाब दिया।
"फिर बताओ जो आसमान हमें साफ साफ सीमांत तक दिखायी देता है तो दुनिया उससे बडी कैसे हो सकती है?"
युवा के लगातार प्रश्नों से परेशान होकर बूढे मुखिया ने कहा, "जो सामने है उस पर विश्वास करना चाहिए, व्यर्थ की कल्पनाएं नहीं गढ़नी चाहिए।" युवा मैंढक भी बुद्धिमान था और जिज्ञासु भी। उसने अनुमान व्यक्त किया, "चाचा हो सकता है हमारे पास ही एक और कुंआ हो, उसका भी अपना आकाश हो? कभी कभी में निकट से हल्की सी आवाजें सुनता हूं।"
"हो सकता है, किन्तु वह सब जानना असंभव है अतः इन फालतू की बातों में सर खपाना व्यर्थ काम है। तुम्हारे पास छोटा सा जीवन है, यह हमारा संसार भी पूरी तरह नहीं देख पाए हो, अतः खाओ पिओ और मौज करो।"

कुएं से बाहर गए मेंढक ने विराट संसार प्रत्यक्ष देखा, उसने रमणीय वन, विशाल सरोवर व असीम सागर देखे, आहार की प्रचूरता और स्वछंद असीमित भ्रमण देखा था। वह उसी समय अपने कुएं की मुंडेर पर था। उसने अपने मित्रों की सीमित सोच को सुना। वह यथार्थ बताना चाहता था। किन्तु उसकी आवाज खुले में फैल जाती थी और कुएं के मेंढको तक नहीं पहूंच पा रही थी। कुएं के भीतर की आवाजे, ध्वनि विस्तरण के कारण स्पष्ट सुनायी दे रही थी। एक बार तो उसने सोचा, कुएं में छलांग लगा कर, उन्हे यथार्थ बता दूं , उनके कल्याण का मार्ग बता दूं। किन्तु नीचे गिरने में नुक्सान ही नुक्सान था, या तो वह जान से जाता या फिर पुनः सीमाओं में कैद हो जाता। इसीकारण यथार्थ कभी पुनः कुए में नहीं पहूंचता, कभी पहूंच भी जाए तो उसपर विश्वास नहीं किया जाता।

ठीक उसी तरह हमारा ज्ञान कुएं जैसा क्षुद्र और हमारा अहंकार कुएं की गहराई जैसा विशाल है। जिसका ज्ञान कुएं समान सीमित और अन्धकार में डूबा हो, वह अनजाने अनन्त को कैसे समझ सकेगा? अहंकार सदा अज्ञान में ही होता है। अहंकार हटाकर अज्ञानता की सीमाओं से आगे की सोच प्रारम्भ हो तो अनंतता के समक्ष कुएं की क्षुद्रता स्वयं भंग हो जाती है। किन्तु अनंतता के दर्शन तभी संभव हैं जब कुएं की देखी भाली सीमाओं का आग्रह टूटे। जो विचार अपने को किसी आग्रह की चारदीवारी में बांध लेता है, वह कभी सत्य पा नहीं सकता।

12 मार्च 2015

भाव परिणाम

एक बार जब राजा श्रेणिक भगवान महावीर के दर्शनार्थ जा रहे थे तो रास्ते में उन्हें एक मुनि घोर तपस्या में लीन दिखाई दिए। कायोत्सर्ग की अवस्था में सूर्य की ओर मुख करके वो पर्वत के सामान स्थिर अपने ध्यान में लीन थे। राजा श्रेणिक ने उनको वंदन किया तथा प्रभु महावीर की देशना सुनने चल दिये। वितराग वानी का श्रवण करने के पश्चात राजा श्रेणिक ने पुछा “भगवन ! आज आते समय रस्ते में एक महान तेजस्वी मुनि के दर्शन हुए, उन ध्यान में लीन मुनि की तपस्या कितनी महान होगी, हे भगवन, वे मुनि किस उत्तम गति को प्राप्त होंगे?” महावीर बोले “यदि वे अभी, इसी क्षण मरण करें तो सातवीं नर्क में जाएँगे “

राजा श्रेणिक चकित होकर बोले “ इतने महान तपस्वी, इतनी उग्र साधना और सांतवी नर्क, ये कैसे संभव है भगवन ?” महावीर बोले “ यदि वह इस समय मृत्यु को प्राप्त करे तो वो छठी नर्क में जाएँगे” श्रेणिक बोले “ यह कैसे, एक क्षण में सातवीं से छठी नर्क ?” “हाँ राजन ! अभी उनके पाँचवी नर्क के कर्म बंधन हो रहे हें” श्रेणिक को बहुत आश्चर्य हुआ, वह कौतुहलवश पूछने लगा “ प्रभु ! अब ..” “अब उसके कर्म चौथी नर्क के योग्य हें” इस प्रकार श्रेणिक पूछता रहा और महावीर उत्तर देते रहे तथा कुछ ही क्षणों में वो तीसरी, दूसरी तथा पहली नर्क को पार कर ऊपर की ओर तीव्र गति से बढ़ने लगे। महावीर बोले “श्रेणिक! अब वह साधक देवभूमि तक पंहुच गया है” एक ओर जहाँ साधक का अन्दर ही अन्दर आरोहण चालू था तो दूसरी तरफ श्रेणिक के प्रश्न तथा प्रभु के उत्तर। “श्रेणिक ! अब वह सौधर्म देवलोक से भी आगे निकल गया है तथा सर्वार्थ सिद्धि की तरफ बढ़ रहा है” प्रभु का वाक्य पूरा होते होते देव दुंदुभी बज उठी और देवी देवता पृथ्वी पे जहाँ वो साधक था वहां पुष्प वर्षा करने लगे। महावीर बोले “उस साधक को केवल ज्ञान प्राप्त हो गया है”

श्रेणिक ने पुछा "भगवन ! जो साधक कुछ क्षण पहले सातवीं नर्क ये योग्य था, उसे केवल ज्ञान प्राप्त हो गया? यह कैसा रहस्य है" तब महावीर बोले “ जब तुमने सबसे पहले ये प्रश्न पुछा तब वो साधक बाहर से भले ही साधना में लीन दिखाई दे रहा था पर अपने अंतर्मन में वह एक भयंकर युद्ध लड़ रहा था| वह साधक कोई और नहीं बल्कि राजा प्रसन्नचन्द्र थे जिन्होंने अपना राज्य अपने पुत्र को सुपुर्द कर दीक्षा ग्रहण कर ली थी। आज जब वह ध्यान में लीन थे तब उनके कानों में दो सैनिकों के शब्द पड़े, "देखो एक तरफ ये राजा अपने राज्य को अनुभवहीन पुत्र को देकर यहाँ ध्यान में लीन है और दूसरी तरफ पड़ोसी राजा ने नए राजा की अनुभवहीनता का फायदा उठा कर राज्य पर आक्रमण कर दिया है। उसकी सेना ने राज्य को चारों तरफ से घेर लिया है, सेनाएं आगे बढ़ रहीं हैं और कुछ ही समय में इस राजा प्रसन्नचन्द्र का पुत्र या तो भाग जाएगा या वहीँ समाप्त हो जाएगा।"

इतना सुनते ही प्रसन्नचन्द्र का मन विचलित हो गया, वो वैराग्य के मार्ग से भटक कर राग द्वेष के रास्ते पे चला पड़ा। वह मन ही मन पड़ोसी राज्य की सेना के साथ युद्ध लड़ने चला गया और उसकी सेना से भयंकर युद्ध करने लग। जब तुमने मुझसे उसकी गति के बारे में पुछा तब वह तीव्र क्रोध में भर कर महाहिंसा में अनुरक्त था। नहाया हुआ महाकाल की तरह भयंकर युद्ध कर रहा था, वो अपने वीतराग के मार्ग से पूरी तरह हट चुका था| इसीलिए वो उस समय सातवीं नर्क के योग्य था। उसके मन के युद्ध में एक समय ऐसा आया जब उसके सारे शस्त्र समाप्त हो गए परन्तु एक शत्रु अभी भी सामने बचा था, तो राजा ने अपने मुकुट से ही उस पर वार करने का निश्चय किया। मुकुट लेने के लिए जैसे ही हाथ अपने सर पर ले गया, वहां मुकुट नहीं बल्कि संयम युक्त मुण्डित सर था। वीतराग चरित्र के लिए लुन्चित सर था, हाथ स्पर्श करते ही उसके मन की धारा ने पलटा खाया। वह सोचने लगा कौनसा पुत्र, कैसा राज्य और कौन शत्रु ? मैंने तो समस्त सांसारिकता का त्याग करके, अहिंसा-धर्म अंगीकार किया है। मैं कैसा कायर जरा से संयोग से विचलित हो संयम मार्ग से भटकने लगा। वे दुष्चिन्तन के पश्चाताप से भर उठे। आत्मग्लानी के ताप से विचारों के बुरे कर्म को जलाने लगे। अब बाहर के शत्रु से युद्ध करने के स्थान पर वे अपने अन्दर के शत्रु से युद्ध करने लगे। जैसे जैसे वे अपने अन्दर का कलुष धो रहे थे, वैसे वैसे उनके अन्तरमन का तम नष्ट होता जा रहा था। वे नर्क से स्वर्ग और अंततः साधना की परम सिद्धि के द्वार तक पंहुच गए।"

यह सुन कर श्रेणिक मन में सोचने लगे “मन कितना विचित्र है ! संकल्प कितने बलवान होते हें! विचार जब अधोमुखी हों तो सातवीं नर्क तक ले जाते हैं और जब उर्ध्वमुखी हों तो मुक्ति का द्वार खोल देते है।

मांस का मूल्य


मगध के सम्राट् श्रेणिक ने एक बार अपनी राज्य-सभा में पूछा कि - "देश की खाद्य समस्या को सुलझाने के लिए सबसे सस्ती वस्तु क्या है?"

मंत्रि-परिषद्  तथा अन्य सदस्य सोच में पड़ गये। चावल, गेहूं, आदि पदार्थ तो बहुत श्रम बाद मिलते हैं और वह भी तब, जबकि प्रकृति का प्रकोप न हो। ऐसी हालत में अन्न तो सस्ता हो नहीं सकता। शिकार का शौक पालने वाले एक अधिकारी ने सोचा कि मांस ही ऐसी चीज है, जिसे बिना कुछ खर्च किये प्राप्त किया जा सकता है।

उसने मुस्कराते हुए कहा, "राजन्! सबसे सस्ता खाद्य पदार्थ तो मांस है। इसे पाने में पैसा नहीं लगता और पौष्टिक वस्तु खाने को मिल जाती है।"

सबने इसका समर्थन किया, लेकिन मगध का प्रधान मंत्री अभय कुमार चुप रहा।

श्रेणिक ने उससे कहा, "तुम चुप क्यों हो? बोलो, तुम्हारा इस बारे में क्या मत है?"

प्रधान मंत्री ने कहा, "यह कथन कि मांस सबसे सस्ता है, एकदम गलत है। मैं अपने विचार आपके समक्ष कल रखूंगा।"

रात होने पर प्रधानमंत्री सीधे उस सामन्त के महल पर पहुंचे, जिसने सबसे पहले अपना प्रस्ताव रखा था। अभय ने द्वार खटखटाया।

सामन्त ने द्वार खोला। इतनी रात गये प्रधान मंत्री को देखकर वह घबरा गया। उनका स्वागत करते हुए उसने आने का कारण पूछा।

प्रधान मंत्री ने कहा,- "संध्या को महाराज श्रेणिक बीमार हो गए हैं। उनकी हालत खराब है। राजवैद्य ने उपाय बताया है कि किसी बड़े आदमी के हृदय का दो तोला मांस मिल जाय तो राजा के प्राण बच सकते हैं। आप महाराज के विश्ववास-पात्र सामन्त हैं। इसलिए मैं आपके पास आपके हृदय का दो तोला मांस लेने आया हूं। इसके लिए आप जो भी मूल्य लेना चाहें, ले सकते हैं। कहें तो लाख स्वर्ण मुद्राएं दे सकता हूं।"

यह सुनते ही सामान्त के चेहरे का रंग फीका पड़ गया। वह सोचने लगा कि जब जीवन ही नहीं रहेगा, तब लाख स्वर्ण मुद्राएं भी किस काम आएगी!

उसने प्रधान मंत्री के पैर पकड़ कर माफी चाही और अपनी तिजौरी से एक लाख स्वर्ण मुद्राएं देकर कहा कि इस धन से वह किसी और सामन्त के हृदय का मांस खरीद लें।

मुद्राएं लेकर प्रधानमंत्री बारी-बारी से सभी सामन्तों के द्वार पर पहुंचे और सबसे राजा के लिए हृदय का दो तोला मांस मांगा, लेकिन कोई भी राजी न हुआ। सबने अपने बचाव के लिए प्रधानमंत्री को एक लाख, दो लाख और किसी ने पांच लाख स्वर्ण मुद्राएं दे दी। इस प्रकार एक करोड़ से ऊपर स्वर्ण मुद्राओं का संग्रह कर प्रधान मंत्री सवेरा होने से पहले अपने महल पहुंच गए और समय पर राजसभा में प्रधान मंत्री ने राजा के समक्ष एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएं रख दीं।

श्रेणिक ने पूछा, "ये मुद्राएं किसलिए हैं?"

प्रधानमंत्री ने सारा हाल कह सुनाया और बो्ले,- " दो तोला मांस खरीदने के लिए इतनी धनराशी इक्कट्ठी हो गई किन्तु फिर भी दो तोला मांस नहीं मिला। अपनी जान बचाने के लिए सामन्तों ने ये मुद्राएं दी हैं। अब आप सोच सकते हैं कि मांस कितना सस्ता है?"

जीवन का मूल्य अनन्त है। हम यह न भूलें कि जिस तरह हमें अपनी जान प्यारी होती है, उसी तरह सबको अपनी जान प्यारी होती है।
निरामिष पर
(Price Versus Cost of Meat - English translation of this article is available at Niramish English)

10 मार्च 2015

परिमार्जन ऋजुता

किसी समय वाणिज्य नामक शहर में आनंद नामक व्यापारी रहता था। वह अपार धन संपदा का स्वामी था तथा राजा भी उसका सम्मान करता था| एक बार उस शहर में भगवान महावीर स्वामी पधारे। आनंद भी उनके प्रवचन को सुनने पहुंचा। भगवान के प्रवचन को सुनकर उसने श्रावक धर्म स्वीकार कर लिया।

चौदह वर्ष तक श्रावक धर्म का पालन करने के पश्चात, उसने सारे सांसारिक कार्यों से विरक्त होने का निश्चय किया। उसने अपने पुत्रों को अपने व्यापार तथा परिवार की ज़िम्मेदारी सुपुर्द करते हुए कहा, "अब उसके धर्मध्यान में किसी तरह का व्यवधान न डाला जाए।" इस प्रकार वो अपना शेष जीवन धर्मध्यान में व्यतीत करने लगा।

धर्म का आचरण करते हुए उसे 'अवधिज्ञान' की प्राप्ति हो गई। कुछ समय पश्चात् वहाँ, भगवान महावीर का पुन: पधारना हुआ। जब उनके शिष्य गौतम स्वामी गोचरी के लिए शहर में भ्रमण कर रहे थे,  उन्होंने आनंद के गिरते हुए स्वास्थ्य एवं उसके 'अवधिज्ञान' प्राप्ति के बारे में सुना तो उनसे मिलने का निश्चय किया। स्वयं गौतम स्वामी को अपने घर आया देख आनंद बड़ा प्रसन्न हुआ। उन्होने विवशता में बिस्तर पर लेटे लेटे ही गौतमस्वामी का वंदन किया। चर्चा के मध्य आनंद ने अपने अवधिज्ञान उपार्जन के बारे में गौतम स्वामी को बताते हुए कहा कि वह बारहवे देवलोक तक देख सकता है्।

अवधिज्ञान का विस्तार जान गौतमस्वामी को संशय हुआ। गौतम स्वामी बोले, गृहस्थ को अवधिज्ञान होना तो संभव है, किन्तु वह इतनी दूर तक नहीं देख सकता। तुम्हारा यह कहना असत्य संभाषण है। तुम्हें सत्य व्रत को खण्डित करने के लिए, अर्थात् असत्य बोलने के लिए प्रायश्चित लेना चाहिए। यह सुनकर आनंद अचम्भित हो गए, वे जानते थे, वे सत्य बोल रहे हैं। उन्होने भगवान महावीर के प्रधान गणधर गौतम स्वामी से निवेदन किया,  “हे भगवन ! क्या सत्य बोलने पर भी प्रायश्चित किया जाना आवश्यक है?”

यह सुनते ही गौतम स्वामी त्वरित सचेत हुए। अपना संदेह दूर करने के लिए वे प्रभु महावीर स्वामी के समीप पंहुचे और अपने व आनंद के सम्वाद का वृतांत कह सुनाया। तब महावीर स्वामी बोले, "गौतम!! आनंद सत्य कह रहा हैं। आप जैसा ज्ञानी व्यक्ति, ऐसी भूल कैसे कर सकता है?" यह सुनते ही गौतम स्वामी उलटे पैर वापस आनंद के पास पंहुचे तथा अपनी भूल के लिए क्षमा मांगी। साथ ही कहा, "प्रायश्चित का भागी मैं हूँ आनन्द!!" आनंद को योग्य समाधान से संतोष उपजा।

उसे धर्म-मूल्यों के संरक्षण का साक्षात अनुभव हुआ,  भगवान के प्रथम गणधर स्वयं गौतम स्वामी जैसे महाज्ञानी, महात्मा भी भूल होने पर एक साधारण गृहस्थ से भी क्षमायाचना करने में नहीं हिचकिचाते, अपने ज्ञान का उनको किंचित भी अहंकार नहीं था। उसने सोचा, ऐसा धर्म तथा ऐसे ज्ञानी की संगति मिलने से वह धन्य हो गया।
आर्जव, ऋजुता या सरलता ही आपके चरित्र को विमल करती है। ये गुण-साधना, चरित्र व व्रतों का परिमार्जन कर, उन्हे परिशुद्ध करते रहते है।

8 मार्च 2015

अधूरप

भादो की काली अंधियारी रात में घने काले बादल गरज गरज कर बरस रहे थे, चारों ओर अंधकार छाया था और अत्यंत तीव्र बारिश हो रही थी, बिजलियाँ रह रह कर कौंध रही थ। महाराज श्रेणिक और महारानी चेलना अपने झरोखे से वर्षा का आनंद ले रहे थे। तभी रात्रि के गहन अंधकार को चीरते हुए, दूर एक बिजली चमकी, राजा व रानी ने बिजली की रौशनी में देखा की एक वृद्ध व्यक्ति, बारिश में उफनती नदी के तट से लकड़ियाँ बीन रहा है।

उस वृद्ध का श्रम देख दोनों चिंतित हो गए। हमारे राज्य में ऐसा भी कोई दरिद्र है जो दिन भर के कठिन परिश्रम के उपरांत भी दो वक्त की रोटी का जुगाड नहीं कर पा रहा, तभी तो इतनी भीषण वर्षा में, अपने प्राणों की परवाह न करते हुए, ये वृद्ध लकड़ियाँ इक्कठी कर रहा है। सम्पन्न मगध राज्य में इतनी दरिद्रत? ऐसी बारिश व अंधेरे में तो जानवर भी बाहर नहीं निकलते और यहाँ तो आदमी को अपने पेट की आग बुझाने के लिए मौत से खेलना पड़ता हैै!! सोचकर राजा का हृदय दुखी हो गया, उन्हे उस वृद्ध पर दया आ गई। राजा श्रेणीक ने तुरंत अपने सेवकों को बुलाकर निर्देश दिया कि जाओ और नदी पर जो वृद्ध व्यक्ति लकड़ियाँ इक्कठी कर रहा है, उसका पता लगाओ और प्रातःकाल उसे राज दरबार में उपस्थित करो। वृद्ध की दरिद्रता के बारे में सोच सोच कर राजा को रात भर नींद नहीं आई, तूफानी बारिश में ठंड से काँपता वह वृद्ध काय शरीर बार बार स्मृति को झंझोड़ रहा था।

प्रात: सेवकों ने एक व्यक्ति को महल में पेश करते हुए राजा से कहा, “महाराज यही वह व्यक्ति है जो कल रात नदी से बह आई लकड़ियाँ इक्कठी कर रहा था।” राजा ने उस व्यक्ति का अवलोकन किया। शरीर पर बेशकीमती रेश्मी वस्त्र, कानों में मणि जड़ित कुंडल तथा हाथों में हीरों की अंगूठियाँ देख, राजा को लगा कि सेवक गलती से किसी अन्य व्यक्ति को पकड़ लाए हैं। उसने सेवकों को क्रोध में कहा “ये किन्हें पकड़ कर लाए हो, तुम लोगों से कुछ भूल हुई है” सेवक बोले “ नहीं महाराज! यही वो व्यक्ति है जो कल रात बारिश में नदी के किनारे पर लकड़ियाँ इक्कठी कर रहा था, हमसे कोई भूल नहीं हुई है|” राजा ने आश्चर्यचकित होकर उस व्यक्ति से उसका परिचय पुछा।

वह व्यक्ति बोला “ महाराज ! मैं आपके ही राज्य का एक व्यापारी हूँ, मुझे लोग "मम्मण सेठ" के नाम से जानते हैं।” राजा बोले “आप दिखने में तो समृद्ध व सुखी लगते हैं, फिर इतनी बारिश में नदी के किनारे जाकर अपने प्राणों को दांव पे लगाने की क्या ज़रूरत थी।” इस पर मम्मण सेठ बोला “महाराज! दिखने में तो मैं बड़ा ही सम्पन्न व सुखी हूँ पर मेरे मन की पीड़ा को बस मैं ही जनता हूं। मैं एक बहुत बड़े अभाव से ग्रस्त हूँ, जिसकी पूर्ती के लिए मैंने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया है, ये सुन्दर वस्त्र एवं आभूषण तो मात्र, कहीं आने जाने के लिए रखे हैं, अन्यथा मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। सब कुछ लगाकर भी मेरी कमी पूरी नहीं हो रही है। इसी कारण में रात्री श्रम से नदी पर लकड़ियाँ इक्कठी करने में लगा रहता हूं। जब तक वह अभाव, वह कमी पूरी नहीं हो जाती, मुझे कठोर परिश्रम करते रहना होगा” राजा बोले, “ऐसी कौनसी कमी है आपको? मुझे बताइए, हो सकता है मैं आपकी कुछ सहायता कर सकूँ।”

सेठ बोला “महाराज मेरे पास एक परम सुन्दर बैल है, उसी की जोड़ी का दूसरा बैल मुझे चाहिए। इसीलिए ये कठोर परिश्रम कर रहा हूँ।” राजा बोले “ अगर इतनी सी बड़ी बात ह तो आप हमारी वृषभशाला में जाइये और जो भी बैल पसंद आए ले जाइये “ सेठ बोला “ महाराज! आपकी इस कृपा के लिए धन्यवाद, किन्तु मेरे बैल की जोड़ी का एक भी बैल आपकी वृषभशाला में नहीं है।” यह सुनकर महाराज सोच में पड़ गए कि ऐसा कैसा बैल है जिसकी जोड़ का कोई बैल हमारी विशाल वृषभशाला में भी नहीं है। राजा बोले “ऐसा कैसा बैल है आपके पास, उसे लेकर आइये, हम उस अद्वितीय बैल को देखना चाहेंगे।” सेठ बोला “महाराज ! मेरा बैल यहाँ नहीं आ सकता, उसे देखने के लिए तो आपको मेरा घर ही पवित्र करना पड़ेगा”

राजा की उत्सुकता और बढ़ गई। उन्होंने अपने मंत्री अभयकुमार से मंत्रणा कर, अगले दिन ही सेठ के घर जाना निश्चित किया। जब रानी ने राजदरबार में घटा पूरा वृत्तांत सुना तो वह भी उत्सुक हुई और साथ चलने के लिए तत्पर हुई। अगले दिन महाराज श्रेणिक अपने मंत्री अभयकुमार तथा पत्नी चेलना के साथ सेठ के घर पहूँचे। मम्मण सेठ ने महाराज का यथायोग्य स्वागत किया। उत्सु्क राजा ने कहा  “सेठ ! सीधे ही अपनी गौशाला में ले चलो, हमें केवल तुम्हारा बैल देखना है।” तब सेठ ने कहा कि उसका बैल गौशाला में नहीं बल्कि घर में है। राजा ने मन ही मन सोचा, कैसा मूर्ख है ये सेठ जो बैल को घर में रखता है।

सेठ तीनों को लेकर अपने मकान के तहखाने में गया, आगे बढ़कर जैसे ही एक कक्ष का पर्दा हटाया की चारों और रंग बिरंगा प्रकाश फ़ैल गया। सामने  हीरे, मोती तथा रत्नों से जड़ित एक सोने के बैल की मूर्ति थी। जिसकी चमक चारों और आभा फैला रही थी। बैल की आँखों में अत्यंत दुर्लभ मणियाँ थीं। सिंग तथा पूँछ पर नीलम और पन्ने जड़े थे। राजा, रानी एवं मंत्री उस बैल को देखकर आवाक रह गए। उन्होंने ऐसा दुर्लभ बैल आजतक नहीं देखा था। राजा को चकित देखकर सेठ बोला “महाराज ! कई वर्षों पहले मैंने अपने व्यापार से कमाए धन को एक स्थान पर सुरक्षित रखने के लिए यह बैल बनवाया था, परन्तु उस समय मुझे भी नहीं मालूम था की यह इतना सुन्दर बन जाएगा। मैं दिन रात बस इसी के बारे में सोचता रहता। एक दिन मेरे मन से प्रेरणा हुई कि अगर  ऐसा ही दूसरा बैल होता तो इसकी जोड़ी कितनी सुन्दर होती, दोनों साथ में खड़े होते तो इनका सौंदर्य तथा वैभव अद्भुत होता!! बस फिर क्या था,  मैंने  ऐसा ही एक और बैल बनाने की ठानी, परन्तु मेरे पास इतना धन अब शेष नहीं बचा था कि इस अजोड़ की जोड़ का एक और बैल बनाया जा सके। धन इक्कठा करने के लिए मैंने व्यापार में जोरदार परिश्रम करना प्रारम्भ किया, अपने सभी खर्चों को कम कर दिया, रुखी सुखी खाता, फटे पुराने कपड़े पहनता, किसी तरह के सुख-वैभव का नहीं उपभोग करता, परन्तु फिर भी उतना धन इक्कठा नहीं हो पाया। अपनी इस आकांक्षा को पूरण करने के लिए अब में दिन भर व्यापार करता हूँ तथा रात में नदी से लकड़ियाँ लाकर बेचता हूँ ताकि अधिक से अधिक धन इक्कठा हो पाए। यह कहते हुए, व्यापारी तीनों को एक दुसरे कक्ष में ले गया। कक्ष का पर्दा जैसे ही हटा, वहां भी पहले के समान एक हीरे, मोतियों से जड़ा सोने का सुन्दर बैल था।

उसे दिखा कर सेठ बोला “ महाराज ! ये उसकी जोड़ी का बैल है। ये लगभग पूरा बन चुका है, केवल दाहिने सिंग का कुछ हिस्सा बनाना बाकि है, बस उसी के लिए मैं रोज़ नदी पे जाता हूँ।” राजा, रानी तथा मंत्री आश्चर्य से चकित होकर उस सेठ की बातों को सुन रहे थे। अंत में राजा ने कहा, “सेठ ! आप सत्य कहते थे, ऐसा बैल तो मेरी वृषभशाला में हो ही नहीं सकता। इतना कहकर वे वापस अपने महल लौटने लगे। मन ही मन राजा को कभी सेठ के उन बैलों पर विस्मय होता, तो कभी सेठ की बैल बुद्धि पे तरस आता, जिसके कारण वो अपनी अपार धन सम्पदा का सुख भोगने तथा दान पुण्य करने के बजाय, बैल बनाने में लगा है। जो उसके लोभ को और बढाने के अतिरिक्त, किसी काम में नहीं आने वाला।

राजा ने रानी से कहा "देवी ! क्या आप लोभ में अंधे इस सेठ की गरीबी मिटा सकती है?" रानी बोली " लोभ तथा ममत्व में डूबे इस सेठ के एक क्या, अनंत जोड़ियाँ भी बन जाए, तब भी एक जोड़ी तो बाकि रह ही जाएगी। ऐसे व्यक्ति की कोई सहायता नहीं कर सकता।लोभ और तृष्णा का कहीं भी अंत नहीं है।

7 मार्च 2015

क्षणजीवी

किसी समय एक व्यापारी माल की बहुत सारी बैलगाड़ियां भर कर साथियों के साथ दुसरे देश में जा रहा था। उसने रास्ते में खर्चे के लिए फुटकर सिक्कों का बोरा एक खच्चर पर लाद रखा था। जंगल में चलते हुए फुटकर सिक्कों का वह बोरा किसी तरह से फट गया और उसमे से बहुत से सिक्के निकल कर बाहर गिर गए।

इसका पता चलने पर उस व्यपारी ने अपनी सभी बैलगाड़ियों को रोक दिया और वो सिक्के इक्कठे करने लगा। साथ के रक्षकों ने उस व्यापारी से कहा “क्यों कौड़ियों के बदले अपने करोड़ों के माल को खतरे में डाल रहे हो ? यहाँ इस खतरनाक जंगल में डाकू व चोरो का बड़ा आतंक है, अत: बैलगाड़ियों को शीघ्र आगे बढ़ने दो। रक्षकों की उचित सलाह को अस्वीकार करते हुए उस व्यपारी ने कहा, “भविष्य का लाभ तो संदिग्ध है, ऐसी दशा में जो कुछ उपलब्ध है उसको छोड़ना उचित नहीं” और वह उन फुटकर सिक्कों को इक्कठा करने में जुट गया।

साथ के अन्य लोग और रक्षक उस व्यापारी के माल से भरी बैलगाड़ियों को वहीँ छोड़, आगे बढ़ गए। व्यापारी सिक्कों को इक्कठा करता रह गया और बाकि सभी साथी उस जंगल से चले गये। उस व्यापारी के साथ रक्षकों को न देखकर, डाकुओं ने उस पर हमला कर दिया और उसका सारा माल लूट लिया।

उस व्यापारी की तरह जो मनुष्य तुच्छ सांसारिक सुखों में आसक्त होकर मोक्ष प्राप्ति के सारे उपाय छोड़ देते हैं वे संसार में अनंतकाल तक भ्रमण करते हुए वैसे ही दुखी होते हैं जैसे कौड़ियों के लोभ में, करोड़ों की संपत्ति लुटा देने वाला वह व्यापारी।

जो अच्छे कर्म के अच्छे प्रतिफल के बारे में शंकित रहते है और येन केन उपलब्ध कैसे भी कर्मों से मजा उठाने की विचारधारा में ही जीते है, उनकी दशा इस व्यापारी के सम होती है। वे शाश्वत सुख के अस्तित्व से संदेहग्रस्त होकर क्षणिक सुख के प्रलोभन में मदहोश हो जाते है

1 मार्च 2015

सदुपयोग

पुराने समय की बात है, छोटे से गाँव में एक किसान रहता था। वह रोज़ भोर में उठकर दूर झरने से स्वच्छ पानी लाया करता था। इस काम के लिए वह अपने साथ दो बड़े घड़े ले जाता था, जिन्हें एक लाठी से कावड़ की तरह कंधे के दोनों ओर लटका लेता था।

उनमे से एक घड़ा तो सही था किन्तु दूसरा कहीं से फूटा हुआ था। इसी वजह से रोज़ घर पहुँचते -पहुचते आधा हो जाता था। किसान घर डेढ़ घड़ा पानी ही ले जा पाता था। ऐसा दो वर्षों तक चलता रहा।

साबूत घड़े को बड़ा घमंड था कि वह अखंड है और पूरा पानी घर पहुंचता है, उसमें कोई कमी नहीं है। वहीँ दूसरी तरफ फूटा घड़ा इस पर शर्मिंदा रहता कि वह आधा पानी ही घर पंहुचा पाता था। उसे ग्लानि होती कि उसके कारण किसान की मेहनत बेकार चली जाती है। फूटा घड़ा यह सोच कर परेशान रहने लगा। उससे रहा नहीं गया और एक दिन उसने किसान से कहा ,“मैं खुद पर शर्मिंदा हूँ और आपसे क्षमा मांगना चाहता हूँ”

“क्यों ?", किसान ने पूछा , “ तुम किस बात से शर्मिंदा हो ?”

“शायद आप नहीं जानते पर मैं एक जगह से फूटा हुआ हूँ , और पिछले दो सालों से आधा ही पानी पहुंचा पाया हूँ, मुझमें यह बहुत बड़ी कमी है, और इसकारण आपकी मेहनत बर्बाद होती रही है”, फूटे घड़े ने दुखी स्वर में कहा।

किसान को घड़े की बात सुनकर दुःख हुआ और वह बोला, “कोई बात नहीं, मैं चाहता हूँ कि आज तुम लौटते समय रास्ते में पड़ने वाले सुन्दर फूलों को देखो”

घड़े ने वैसा ही किया, वह रास्ते भर सुन्दर फूलों को देखता आया , खिले हुए फूलों को देखकर उसकी उदासी कुछ दूर हुई मगर घर पहुँचते – पहुँचते फिर वह आधा खाली हो चुका था, वह मायूस हो, पुनः किसान से अफसोस व्यक्त करने लगा।

किसान ने कहा,”शायद तुमने ध्यान नहीं दिया, रास्ते के एक किनारे ही हरियाली व फूल खिले थे। वे फूल केवल तुम्हारी तरफ के किनारे थे। साबूत घड़े की तरफ के किनारे एक भी फूल नहीं था। ऐसा इसलिए था क्योंकि मैं हमेशा से तुम्हारे अन्दर की कमी को जानता था, मैंने उस कमी का सदुपयोग किया और तुम्हारी तरफ के किनारे भाँती भाँती के फूलों के बीज बिखेर दिए। तुम रोज़ थोडा-थोडा कर उन्हें सींचते रहे और इस तरह तुम्हारे छिद्र से होते स्राव ने रास्ते को खूबसूरत बना दिया। तुम्ही सोचो अगर तुम्हारे में यह छिद्र न होता तो तुम कभी सिंचाई न कर पाते और यह मार्ग इतना मनोरम न बनता।”

फूटा घड़ा अपनी कमी का भी सदुपयोग होते देख आत्मविश्वास से भर उठा।

मित्रों सभी सम्पूर्ण नहीं होते। कोई न कोई कमी हम सभी में होती है। ये कमियां ही हमें अनोखा बनाती हैं। यदि हम किसी कमी पर आत्मग्लानि महसूस करने की जगह उस कमी के भी सदुपयोग का मार्ग निकाल लें तो जीवन किसी भी दशा में मूल्यवान हो जाता है।

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